अनंतनाग के दंश
जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले में आतंकवादियों से मुठभेड़ में सेना के दो अधिकारियों, एक पुलिस अधिकारी व शुक्रवार को एक घायल जवान की मौत राष्ट्र की अपूरणीय क्षति है। मुठभेड़ में कर्नल मनप्रीत सिंह, मेजर आशीष और डीएसपी हुमायूं भट की मौत बताती है कि आतंकवादियों से मुकाबले के दौरान जहां खुफिया तंत्र को दुरस्त करने की जरूरत है, वहीं रणनीति को अधिक धारदार व पुख्ता बने। दोनों ही सेना के अधिकारी आतंकवाद विरोधी इकाई का नेतृत्व करने वाले अनुभवी व सेना पदक का सम्मान पाने वाले थे। जाहिर है कि यह आप्रेशन खुफिया सूचनाओं पर आधारित था, लेकिन कहीं न कहीं रणनीति के क्रियान्वयन में चूक हुई है। पहले सूचना दी गई थी कि आतंकियों ने जंगल में अपना ठिकाना बना रखा है, लेकिन उन्होंने पहले ही घात लगाकर सुरक्षाबलों की संयुक्त टीम को निशाना बना लिया। इसी चूक के चलते ही हमारे सैन्य अधिकारी व जवान आतंकवादियों के जाल में फंस गये। निस्संदेह, भविष्य में आतंकवाद विरोधी अभियानों के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं यानी एसओपी के क्रियान्वयन में अधिक सतर्कता की जरूरत होगी। हालांकि, सेना ने वर्ष 2020 में जम्मू-कश्मीर में ऐसे ऑपरेशनों के लिये अपने एसओपी में संशोधन किया था, जिसमें मुठभेड़ के दौरान आतंकवादियों को आत्मसमर्पण सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता था। इसमें भटके हुए युवाओं को जान बचाने का मौका दिया जाता था लेकिन इस नीति ने सेना के जवानों के लिये लक्ष्य को कठिन बना दिया। निस्संदेह, ऐसी मुठभेड़ पे पहले मिली हुई सूचनाओं का गहन सत्यापन जरूरी होता है। आतंकवादियों व उनकी मदद करने वाले स्थानीय लोगों की चौबीस घंटे की निगरानी जरूरी होती है। हालांकि, इस घटना से जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पटरी पर लाने की कोशिशों को झटका लगेगा। हाल ही में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि वह जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने के लिये तैयार है। फिर भी इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बावजूद पहले से बहुत विलंबित चुनावी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से नहीं रोका जाना चाहिए।
बहरहाल, सेना व पुलिस के अधिकारियों की शहादत हमें सबक देती है कि अब खुफिया तंत्र की खामियों को दूर करने और आप्रेशनों की मानक संचालन प्रक्रिया को मजबूत बनाने की जरूरत है। जिससे सेना के अधिकारी व पुलिसकर्मी पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों का बेहतर ढंग से मुकाबला कर सकें। निस्संदेह, हाल के दिनों में घाटी में आतंकी घटनाओं में कमी आई है, लेकिन अभी भी आतंकी नेटवर्क को पूरी तरह धवस्त करने की जरूरत है। कुछ समय पहले कुलगाम में हुई एक मुठभेड़ के दौरान भी सेना के तीन जवान शहीद हुए थे। दरअसल, इलाके में आतंकवादियों की मौजूदगी के बाद ही काउंटर अभियान प्रारंभ किया गया था। इससे पहले मई में राजौरी में सैनिकों पर व पुंछ में सेना के ट्रक पर भी हमला हुआ था। यद्यपि पहले के मुकाबले में आतंकी हमलों की वारदात कम हुई हैं, लेकिन ये घटनाएं बताती हैं कि सेना के अभियान में अधिक सतर्कता बरतने की जरूरत होती है। यह भी तार्किक है कि पहले की तरह आतंकवादी अपने अभियानों को आसानी से अंजाम देने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर हमें सीमा पार से संचालित आंतक के नेटवर्क को पूरी तरह ध्वस्त करने की जरूरत है। वैसे यह भी हकीकत है कि अब सीमा पार से आने वाले आतंकियों को स्थानीय आबादी का पहले जैसा सहयोग सहजता से नहीं मिल पा रहा है। जिसके चलते आतंकवादी जंगलों में ठिकाना बना रहे हैं, जिसका मुकाबला करने में सेना को चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। जिसके लिये प्रमाणिक खुफिया सूचनाएं जुटाने और सेना व पुलिस में बेहतर तालमेल बनाये जाने की जरूरत है। तभी पाक प्रायोजित आतंकवाद पर नकेल कसी जा सकेगी। साथ ही आतंकवादियों से मुठभेड़ में अपने जवानों को बचाने के लिये आधुनिक तकनीक व ड्रोन आदि का प्रयोग करना भी जरूरी हो गया है। तभी घाटी में आतंकवाद अंतिम सांसे लेता नजर आएगा। जिससे केंद्रशासित प्रदेश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गति मिल सकेगी।