नागार्जुन के प्रगतिवादी काव्य की विवेचना
डॉ. देवेंद्र गुप्ता
विवेच्य पुस्तक ‘नागार्जुन का प्रगतिवादी काव्य’ वस्तुतः वर्ष 1979 में एम.फिल. की उपाधि हेतु शोध ग्रंथ है। लेकिन अब 44 वर्ष के बाद पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुआ है। यह पुस्तक इसलिए नवीन है क्योंकि नागार्जुन के जीवन के अंतकाल तक 12 अन्य कृतियों की सर्जना को भी शोध में समाहित किया गया है। अतः इस विस्तृत शोध ग्रंथ में नागार्जुन की प्रगतिवादी काव्य की मीमांसा ही देखने को मिलेगी। तथापि, नागार्जुन की रचना प्रतिभा बहुमुखी है, जिसका विवरण 'व्यक्तित्व और कृतित्व' में विस्तार से दिया गया है। काव्य, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, बाल-साहित्य के अतिरिक्त संपादन का क्षेत्र भी उनसे अछूता नहीं रहा है। हिंदी, मैथिली और संस्कृत तीनों भाषाओं में उन्होंने साहित्य रचना की है।
इस शोधपूर्ण आलोचना कृति में लेखक ने हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति प्रगतिवाद की कसौटी पर नागार्जुन के काव्य का मूल्यांकन किया है। प्रगतिवाद के प्रमुख तत्वों, जैसे सामाजिक यथार्थ का चित्रण, प्रेमभाव और प्रकृति प्रेम का चित्रण, देश प्रेम की अभिव्यक्ति, काव्य में व्यंग्यपरकता आदि का विवेचन करते हुए बाबा नागार्जुन के प्रगतिवादी काव्य में तथ्यपरक समीक्षात्मक निरूपण किया है। आठवें और अंतिम अध्याय में भाषा, बिम्ब, अलंकार, प्रतीक, छंद, लय आदि विविध कलापक्षीय उपकरणों और उपादानों के संदर्भ में नागार्जुन की कलागत सरलता का उद्घाटन हुआ है।
पुस्तक में बाबा नागार्जुन को पढ़ने पर उनके जीवन की अनेक अनकही और अनसुनी बातें प्रकाश में आती हैं। आज की इस भौतिकवादी और पूंजीवादी व्यवस्था में पोषित लेखक और कवि संभवतः कल्पना भी नहीं कर सकते कि अनेक राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजे गए अल्हड़, मनमौजी, फक्कड़, यायावर कवि नागार्जुन ने जीवन के अंतिम दो-तीन वर्ष बीमारी और मुफलिसी में बिताए। उसी वर्ष साहित्य अकादमी द्वारा अकादमी के महतर फेलोशिप सम्मान मिलने पर बाबा ने कहा था, ‘मुझे सम्मान की नहीं, पैसे की जरूरत है।’
साहित्य सेवा के लिए अपने जीवन का सर्वस्व तिरोहित कर देने वाले बाबा नागार्जुन पर यह शोधपरक पुस्तक आलोचकों, समीक्षकों और शोधार्थियों को बहुत कुछ देकर जा रही है। कुछ सूत्र शोधार्थी ढूंढ़ लें तो शोध को आगामी विस्तार नए जिज्ञासु शोधार्थी देंगे, जिन पर पुनर्व्याख्या की आवश्यकता होगी।
पुस्तक : नागार्जुन का प्रगतिवादी काव्य लेखक : डॉ. रघुवीर सिंह बोकन प्रकाशक : हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन, गुरुग्राम पृष्ठ : 278 मूल्य : रु. 800.