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एक बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ का यूं ही चले जाना!

07:19 AM Jul 03, 2023 IST

बीर दविंदर सिंह के रूप में पंजाब ने एक विद्वान, विचारक, उत्कृष्ट वक्ता और बुद्धिमान राजनीतिज्ञ खो दिया। वे हमेशा सरकार की कमजोरियों को उजागर करने में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। उन्होंने वक्ता के रूप में अलग पहचान बनाई। राजनीति, धर्म, साहित्य और संस्कृति का उन्हें अद्भुत ज्ञान था। वे शब्दों के जादूगर थे। एक दबंग राजनेता थे।
उजागर सिंह
सरदार बीर दविंदर सिंह किसी राजनीतिक नेता का अनुसरण करके नहीं, अपनी क्षमताओं से राजनीति में आए थे। उनके पिता प्रीतपाल सिंह पुलिस विभाग में थे और कर्तव्य निभाने के दौरान उनकी हत्या कर दी गई। घर के बड़े बेटे होने के कारण बीर दविंदर सिंह को पुलिस विभाग में नौकरी की पेशकश की गई, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। उनका झुकाव समाज की भलाई की ओर था। उनके मन में कुछ अलग करने की तमन्ना थी। ऐसे में उनके छोटे भाई को पुलिस में नौकरी दे दी गई। यह जानकारी मुझे बेअंत सिंह ने दी थी। उन्होंने यह भी बताया था कि जब बीर दविंदर कांग्रेस में शामिल हुए तो वह और ओमप्रकाश बैक्टर उनका स्वागत करने उनके गांव कोटला भाईका गए थे, क्योंकि बीर दविंदर का ननिहाल बेअंत सिंह के पड़ोसी गांव जैपुरे में था। वे बीर दविंदर को शगुन भी देकर आए थे।
बीर दविंदर सिंह को राजनीति में अपनी विद्वता और क्षमता की कीमत चुकानी पड़ी। किसी भी वरिष्ठ राजनेता ने उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। यही वजह रही कि उन्होंने कैप्टन अमरेंद्र सिंह की सरकार के दौरान डिप्टी स्पीकर पद से इस्तीफा दे दिया था। यहां तक कि एक तरफ 2002 से 2007 तक उनके संसदीय प्रदर्शन के कारण उन्हें ‘सर्वश्रेष्ठ सांसद’ का खिताब दिया गया, दूसरी तरफ 2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने उनका टिकट काट दिया। 2002 में भी पंजाब का कांग्रेस नेतृत्व उन्हें टिकट नहीं देना चाहता था, लेकिन वे सीधे सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से टिकट ले आए। उन्होंने 20 दिन में ही प्रचार कर चुनाव जीत लिया। वर्ष 2016 में उन्हें कांग्रेस पार्टी छोड़नी पड़ी।
बीर दविंदर का 30 जून को पीजीआई चंडीगढ़ में 74 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे फूड पाइप के कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी से पीड़ित थे। दो साल पहले उनके दिल का ऑपरेशन हुआ था। हालांकि, इसके बाद से वे सामान्य जीवन जी रहे थे।
उन्होंने अपने राजनीतिक करिअर की शुरुआत ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट फेडरेशन से की थी, जहां से एक प्रकार का गहरा प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उन्होंने पंथरत्न जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहरा के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल में काम करना शुरू किया था, लेकिन टोहरा की सलाह पर उन्होंने अकाली दल को अलविदा कह दिया और कांग्रेस में शामिल हो गए। उस दौरान जत्थेदार टोहरा के सबसे करीबी प्रो. प्रेम सिंह चंदूमाजरा हुआ करते थे। वह सरहिंद विधानसभा क्षेत्र में चंदूमाजरा की जगह बीर दविंदर को नेता नहीं बनाना चाहते थे। बीर दविंदर 1971 से 1977 तक ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट फेडरेशन के अध्यक्ष रहे। इस दौरान उन्होंने सिखी के प्रचार-प्रसार के लिए कई कैंप लगाए। सिख स्टूडेंट फेडरेशन की शिक्षा उनके व्यक्तित्व में ऐसी चमक लाई कि वे राजनीतिक क्षेत्र में ध्रुव तारे की तरह चमकने लगे। दूसरा, सिख इतिहास को पढ़ने के साथ-साथ अन्य कई धर्मों का अध्ययन उनके लिए वरदान साबित हुआ। ज्ञानी जैल सिंह, बूटा सिंह और बीर दविंदर सिंह अपने भाषणों में सिख इतिहास के उदाहरणों और शब्दावली का इस्तेमाल किया करते थे, जो श्रोताओं, दर्शकों को बांधे रखता था।
1977 तक वह ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट फेडरेशन का सक्रिय नेतृत्व करते रहे। अकाली नेतृत्व द्वारा रोड़े अटकाने पर उन्होंने 1978 में कांग्रेस का दामन थाम लिया। वर्ष 1980 में वे सरहिंद विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गये। उन दिनों वह तत्कालीन मुख्यमंत्री दरबारा सिंह के करीबियों में से एक थे, लेकिन दरबारा सिंह ने उन्हें कोई पद नहीं दिया, केवल पंजाब विधानसभा में कांग्रेस पार्टी का मुख्य सचेतक बनाया। कांग्रेस नेता उनका इस्तेमाल ही करते रहे। कई बार उन्होंने शपथ लेने के लिए जैकेट और अचकन सिलवाई, लेकिन उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। वर्ष 2002 में वह खरड़ से विधायक चुने गए। भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाने पर कांग्रेस ने उनको पार्टी से निकाल दिया। वह 2010 में मनप्रीत सिंह बादल की पीपुल्स पार्टी में शामिल हो गए। बाद में वर्ष 2019 में वह शिरोमणि अकाली दल टकसाली में शामिल हो गए। फिर जुलाई 2020 में सुखदेव सिंह ढींडसा के यूनाइटेड अकाली दल में शामिल हो गए और उपाध्यक्ष बनाए गए। फिर उन्होंने राजनीति ही छोड़ दी।
बीर दविंदर उन कुछ निर्वाचित नेताओं में से एक थे, जो राजनीति में पुस्तक संस्कृति से जुड़े थे। बीर दविंदर सिंह सराओ के चले जाने के बाद पंजाब ने एक बुद्धिजीवी, विद्वान, विचारक, उत्कृष्ट वक्ता और बुद्धिमान राजनीतिज्ञ खो दिया। बीर दविंदर हमेशा सरकार की कमजोरियों को उजागर करने में अग्रणी भूमिका निभाते रहे, वह किसी एक पार्टी के साथ टिक कर नहीं चल सके, लेकिन उन्होंने विद्वता और वक्ता के रूप में अलग पहचान बनाई। इतिहास, साहित्य, विरासत और सभी धर्मों की उन्हें गहरी जानकारी थी। उनका गांव कोटला भाईका, छोटे साहिबजादों के बलिदान वाली पवित्र भूमि श्री फतेहगढ़ साहिब के करीब होने के कारण, उन्हें आध्यात्मिक शक्ति मिलती रही। वह अंग्रेजी भाषा में भी निपुण थे।
अमरेंद्र सिंह सरकार में 2003 से 2004 तक पंजाब विधानसभा के उपाध्यक्ष रहे बीर दविंदर अधिक समय तक इस पद पर नहीं रह सके। छह माह पहले मैं और प्रो. कृपाल उनसे मिलने गए थे, उन्होंने सियासी शतरंज की चालों पर खुलकर चर्चा की थी।
बीर दविंदर का जन्म प्रीतपाल सिंह और रणधीर कौर के घर हुआ था। उनकी तीन बेटियां और एक बेटा है।

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