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डिनर डिप्लोमेसी से कूटनीतिक लक्ष्य साधने की कवायद

08:20 AM May 12, 2024 IST
डिनर डिप्लोमेसी से कूटनीतिक लक्ष्य साधने की कवायद
हनोई, वियतनाम
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पुष्परंजन
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

जर्मन राष्ट्रपति फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर की कबाब कूटनीति को तुर्की मूल के प्रवासी पचा नहीं पाये। उन्होंने इसे अपमानजनक मानते हुए जर्मन राष्ट्रपति की आलोचना की है। फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर बीते सोमवार को तुर्की गये थे, साथ में एक कबाब बनाने की रोलर मशीन और एक प्रसिद्ध कबाबिये को ले गये थे। 10 वर्षों में किसी जर्मन राष्ट्रपति की यह पहली आधिकारिक यात्रा थी। सौ साल पहले दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना हुई थी। बीते बुधवार को अंकारा में तुर्की के राष्ट्रपति रेजप तैयप एर्दोआन से मुलाकात करते हुए जर्मन राष्ट्रपति फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर ने जर्मन-तुर्की संबंधों को पुनर्जीवित करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा, ‘यह संवेदनशील समय है। हमें एक-दूसरे की जरूरत है। इसलिए हमें जर्मन-तुर्की संबंधों को नया महत्व देना चाहिए।’
जर्मनी में डोनर कबाब बहुत मशहूर है, तो राष्ट्रपति श्टाइनमायर को लगा कि ‘डोनर डिप्लोमेसी’ खेल लेते हैं। उन्होंने अपने साथ चरखी की तरह घुमाकर मीट पकाने वाली रोटरी मशीन ली। बर्लिन के मशहूर शेफ आरिफ केल्स को साथ में ले गये। जर्मन दूतावास में चुनिंदा लोगों की उपस्थिति में डोनर कबाब पकाया। राष्ट्रपति श्टाइनमायर ने मीट के टुकड़ों को स्वयं काटा उसे पीता ब्रेड में वेजिटेबल सलाद, लहसुन-मिर्च की चटनी, मेयोनी सॉस के साथ पैवस्त किया, और उपस्थित लोगों को परोसा। ऑन कैमरा इस पूरी कवायद को देख रहे कुछ लोगों ने पसंद किया, लेकिन जिन्हें यह सब बुरा लगा, वो जर्मनी में दशकों से बसे तुर्किये थे, जिन्हें लगा कि इस देश में हमें केवल कुक समझा गया है, जबकि विभिन्न शोबों यानी क्षेत्रों में तुर्क मूल के लोगों का अहम योगदान रहा है। तुर्किये डायसफोरा ने अपने कौम के नामी-गिरामी लोगों की पूरी सूची सामने रख दी है।
श्टाइनमायर की कबाब कूटनीति को यूरोपीय संघ के कई कूटनीतिक बेवकूफी भरी ड्रामेबाज़ी मान रहे हैं। श्टाइनमायर ने तुर्किये के राष्ट्रपति एर्दोआन से मुलाक़ात में नाटो और जी-20 के भीतर सहयोग का जिक्र किया। श्टाइनमायर ने स्पष्ट किया कि एर्दोआन से ग़जा इश्यू पर हम इत्तेफाक नहीं रखते। जर्मन राष्ट्रपति ने कहा, ‘मेरी राय में 7 अक्टूबर की घटना को लेकर मध्यपूर्व में कोई युद्ध नहीं होगा। गज़ा में स्थिति सुधार का प्रयास होना चाहिए।’
इन तमाम बयानबाज़ियों के बीच एकबार भी एर्दोआन ने श्टाइनमायर के टर्किश कबाब का ज़िक्र नहीं किया। बल्कि एर्दोआन ने एक बार फिर इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की तीखी आलोचना की और उन पर अपना राजनीतिक अस्तित्व सुनिश्चित करने के लिए पूरे मध्य पूर्व को खतरे में डालने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि तुर्की हमास द्वारा अगवा किए गए इस्राइली बंधकों की रिहाई सुनिश्चित करने के प्रयास कर रहा है। एर्दोआन ने जर्मनी में बढ़ते नस्लवाद पर भी चिंता जताई। उन्होंने कहा कि यूरोप के साथ-साथ जर्मनी में बढ़ते जेनोफोबिक, इस्लामोफोबिक, नये नस्लवादी संगठनों के बारे में हमारी चिंताएं लगातार बढ़ रही हैं। एर्दोआन ने कहा कि हमें जर्मनी में तुर्की मूल के लोगों पर गर्व है, जो वहां के समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उन्होंने एकीकरण की दिशा में बढ़ते जर्मनी में दोहरी नागरिकता कानून का स्वागत किया।

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परस्पर सहयोग का कालखंड

वर्ष 1924 तुर्की गणराज्य और जर्मनी दोनों के लिए उभयपक्षीय सहयोग का कालखंड था। दोनों देश प्रथम विश्व युद्ध में हार रहे थे और परिणामस्वरूप उन्हें अपने प्रभाव वाले क्षेत्र छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। दोनों देशों ने अपनी राजशाही का अंत देखा था। जर्मनी में वाइमार रिपब्लिक ने जर्मन साम्राज्य का स्थान ले लिया। तुर्की के भीतर परिवर्तन और भी अधिक क्रांतिकारी थे। देश के संस्थापक मुस्तफा कमाल अतातुर्क एक धर्मनिरपेक्ष, यूरोप उन्मुख तुर्की चाहते थे। ओटोमन साम्राज्य की मुख़ालिफत और शरिया कानून को पश्चिमी कानूनी प्रणाली द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। इससे पहले, ओटोमन साम्राज्य और जर्मन साम्राज्य ने भी घनिष्ठ राजनयिक, सैन्य और व्यापारिक संबंध बनाए रखे थे।
1923 में तुर्की गणराज्य की स्थापना के कुछ ही महीनों बाद, राजनयिक संबंध फिर से स्थापित हुए और उभयपक्षीय मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए गए। इतिहासकार और तुर्की मामलों के विशेषज्ञ रसीम मार्ज ने कहा कि जर्मनी ने उस समय समझौते को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। जर्मन-तुर्की संबंधों में एक अध्याय को अक्सर भुला दिया जाता है, वह था नाजी युग के दौरान सताए गए कई सौ जर्मनों के निर्वासन का मामला, जो राजनीतिक रूप से तटस्थ तुर्की में चले गए थे।

तुर्की यात्रा के दौरान जर्मनी के राष्ट्रपति

जर्मनी में तुर्की प्रवासी

1961 में जर्मन संघीय गणराज्य से तुर्की का समझौता श्रमिकों की भर्ती के वास्ते हुआ। तब 876,000 लोग तुर्की से जर्मनी आए थे। उन्होंने खनन व कार उद्योग में काम किया, और स्टोर खोले। कई लोग अपने परिवार को अपने साथ ले आए और स्थायी रूप से बस गए। साल 2024 में जर्मनी की आबादी सवा आठ करोड़ के आसपास बताई गई है, जिसमें तुर्की मूल के लगभग 30 लाख लोग रहते हैं। जर्मन राष्ट्रपति फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर ने इस्तांबुल के सिरकेसी ट्रेन स्टेशन पर इन श्रमिकों को श्रद्धांजलि दी, जहां भर्ती किए गए कई तुर्क जर्मनी जाने वाली ट्रेनों में सवार हुए थे।
जर्मनी गाजा पट्टी में इस्राइल की कुछ कार्रवाइयों की आलोचना करता रहा है, लेकिन जब जर्मन राष्ट्रीय हित का सवाल आता है, वह यहूदी राज्य की रक्षा करने की प्रतिबद्धता को बरकरार रखता है। एर्दोआन भी फिलस्तीन को लेकर संवेदनशील हैं। श्टाइनमायर के आगमन से कुछ समय पहले हमास नेता इस्माइल हानिया से उन्होंने मुलाकात की थी। जर्मनी से रूठने-मनाने, दांव-पेच का सिलसिला पुराना है।
साल 2005 के कालखंड को देखिये, तो तब के जर्मन चांसलर गेरहार्ड श्रोएडर के समर्थन से तुर्की यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए एक प्रबल उम्मीदवार रहा है। यह मामला लगभग 20 वर्षों से लटका पड़ा है। मुद्दा मानवाधिकार का है, ईयू के नेता मानते हैं कि तुर्की हमारे पैरामीटर पर खरा नहीं उतरता। पूर्व जर्मन चांसलर आंगेला मैर्केल से भी अंकारा की अदावत बनी रही। उनके बाद के चांसलर ओलाफ शॉल्त्ज़ के नेतृत्व वाली वर्तमान एसपीडी सरकार में राजनेता तुर्की के खिलाफ़ अधिक मुखर रहे हैं, विशेषकर ग्रीन पार्टी की विदेश मंत्री अनालेना बेयरबॉख़।

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जर्मन-तुर्की संबंधों की हुई एक नई शुरुआत!

इस समय जर्मन सरकार तुर्की नागरिक समाज और तुर्की के विपक्ष से अपनी उम्मीदें बांध रही है, जो एर्दोआन को रास नहीं आया है। कुछ हफ्ते पहले एर्दोआन की एकेपी पार्टी को स्थानीय चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था। मुख्य विपक्षी दल, सीएचपी ने पूरे देश में अपनी पकड़ बना ली। पार्टी की संभावित भावी राष्ट्रपति इस्तांबुल के मेयर एक्रेम इमामोग्लू हैं, जिनसे जर्मन राष्ट्रपति ने फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर ने एर्दोआन के साथ अपनी वार्ता से पहले मुलाकात की थी। आप कबाब लेकर जाइये और प्रतिपक्ष के नेताओं से चोंच लड़ाइये, रेजप तैयप एर्दोआन ऐसे उदारमना तो हैं नहीं, कि ऐसे कबाब की प्लेटर को पसंद करें।

डोनर कबाब पॉपुलर कैसे हुआ?

टर्किश कबाब को ‘केबाप’ बोलते हैं। सैंडविच की शक्ल में पीता ब्रेड में सलाद और चटपटे सॉस के साथ यह प्लेटर में जब प्रस्तुत होता है, आप अपने टेंप्टेशन को जज़्ब नहीं कर पाते। ‘डोनर’ शायद कबाबों का बाप है, इसलिए तुर्क इसे ‘केबाप’ बोलते हैं! एक डोनर कबाब से आप लंच या डिनर की भूख शांत कर सकते हैं। घर में खाना बनाने के आलस ने जर्मनों के बीच डोनर कबाब को अत्यधिक पॉपुलर किया है। वर्टिकल रोटिसरी का आविष्कार 19वीं सदी के ओटोमन साम्राज्य के समय हुआ था। अरब श्वार्मा, ग्रीक गायरोस, कैनेडियन डोनर और मैक्सिकन अल पास्टर जैसे पॉपुलर व्यंजन के लिए मीट इसी घूमने वाली मशीन पर पकते हैं। डोनर कबाब के आधुनिक सैंडविच संस्करण की उत्पत्ति 1970 के दशक में पश्चिमी बर्लिन में तुर्की प्रवासियों द्वारा की गई थी। सस्ता, स्वादिष्ट होने की वजह से डोनर कबाब बहुत जल्द जर्मनों को भा गया, और इसका विस्तार हर छोटे-बड़े शहरों में हो गया। बता दें कि 24 अक्तूबर 2013 को बर्लिन में कादिर नूरमन की मृत्यु हुई। कहते हैं कि कादिर नूरमन ही वो प्रवासी तुर्क थे, जिन्होंने पहली बार डोनर कबाब की दुकान बर्लिन में खोली थी।

भारत में जी-20 के दौरान विदेशी प्रतिनिधि

रिश्ते बनाने-संवारने को डाइनिंग डिप्लोमेसी

कहते हैं, ‘किसी के क़रीब जाना हो, तो उससे खाने की मेज़ पर मिलिये। और किसी से विवाद सुलझाना हो, तो भी खाने की मेज पर मिलिये।’ अपने देश के मशहूर प्लेटर के साथ, मेहमान देश का व्यंजन परोसिये, तो शायद बिगड़ी बात बन जाती है। साल 1972 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने पेइचिंग का दौरा किया। उनके लिए ख़ास डिनर में चीनी मेज़बानों ने पेइचिंग डक, डम्पलिंग के साथ कुछ क्षेत्रीय फूड भी पेश किये थे। बताते हैं कि चीनी स्वाद का असर प्रेसिडेंट निक्सन पर इतना गहरा था कि उभयपक्षीय संबंध पटरी पर आ गये। इसी तरह 15 अप्रैल 1982 को तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रास्वां मितरां जापान गये। सम्राट हिरोहितो ने उन्हें दावत दी। उससे पहले जापानी रसोइये पैरिस गये, फ्रांसीसी व्यंजनों को समझा, और फिर दावत के समय पारंपरिक जापानी-फ्रेंच फूड का फ्यूज़न प्रस्तुत किया, जिससे प्रभावित हुए बिना राष्ट्रपति मितरां रह नहीं पाये।
1985 में जेनेवा समिट को याद करते हुए फूड हिस्टोरियन बताते हैं कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत प्रधानमंत्री मिखाइल गोर्वाचेव को मिलना था। पहले उनके प्रिय भोजन की पड़ताल की गई, फिर मेज पर उन खानों को परोसा गया, जो दोनों नेताओं के स्वाद पर रच-बस गया। जब हथियार नियंत्रण और निरस्त्रीकरण पर दोनों नेता सहमत हुए, तो उस शेफ को धन्यवाद दिया गया, जिसके ज़िम्मे दस्तरख़्वान का इंतज़ाम था। व्हाइट हाउस में बाकायदा कैलियोग्राफी ऑफिस है, जो विदेशी मेहमानों को परोसे जाने वाले मेन्यू के स्केच बनाता है। कैंप डेविड समझौते के दौरान क्या कुछ परोसना है, उसकी सूची तैयार करना भी कैलियोग्राफी ऑफिस के हवाले था।
अमेरिकी सरकार को थाई अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना था, इसलिए अमेरिका में लगभग 3000 थाई रेस्तरां खोलने का आदेश दिया गया। पैरिस में ‘क्लब दस शेफ्स-दस शेफ्स’ नामक एक अंतरराष्ट्रीय कलनरी ग्रुप का गठन किया गया है, जो दुनिया भर के कूटनीतिक हलकों में शेफ मुहैया करता है। ये शेफ अपने राष्ट्राध्यक्षों के साथ लगातार संपर्क में रहते हैं, और दुनिया भर में अपने देशों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जी-20 की बैठकों में भी ‘डाइनिंग डिप्लोमेसी’ काफी सफल होती देखी गई। जब भी जी-20 के शिखर नेता डिनर या लंच पर मिलते, मतभेद वाला माहौल कतई नहीं दिखता। शांघाई कोऑपरेशन आर्गेनाइजेशन (एससीओ) की अस्ताना शिखर बैठक और जी-20 की दिल्ली समिट ‘डाइनिंग डिप्लोमेसी’ का अपूर्व उदाहरण है। तब 7 से 10 जून 2017 को अस्ताना शिखर बैठक में दो ध्रुवों पर बैठे भारत-पाकिस्तान एससीओ के पूर्णकालिक सदस्य बने थे। इस अवसर को यादगार बनाने के वास्ते एक डिनर पार्टी हुई, जिसमें ज़ायकेदार भोजन को भारत-पाकिस्तान के बेहतरीन रसोइयों ने परोसा था। यह दिलचस्प है कि 2010 और 2014 में भारतीय शेफ विकास खन्ना ने व्हाइट हाउस में सात्विक व्यंजन बनाया था।

जी-20, भारत

अपने प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान, इंदिरा गांधी राजकीय भोजों के बेहतरीन प्रबंधन के लिए प्रसिद्ध थीं। कॉमनवेल्थ शिखर बैठक के समय हैदराबाद हाउस में मिसेज गांधी द्वारा दिये भोज का मैं स्वयं साक्षी रहा हूं। अपने परिष्कृत और उत्तम स्वाद के लिए अक्सर सराही जाने वाली श्रीमती गांधी समझती थीं, कि भोजन से कैसे भारत के कूटनीतिक ताने-बाने को बुना जा सकता है। उन्होंने आईटीडीसी से द अशोक होटल में साइप्रस रेस्तरां खोलने के लिए कहा था, जब 1960 में आर्चबिशप मकारियोस तृतीय साइप्रस के प्रथम राष्ट्रपति चुने गये। डाइनिंग डिप्लोमेसी की वजह से भारत और साइप्रस के बीच आज भी मधुर संबंध हैं। यानी, भोजन कभी व्यर्थ नहीं गया।
भारत द्वारा व्यंजन कूटनीति आगे के दशकों में भी जारी रहा। साल 2015 में जर्मनी के औद्योगिक मेले ‘हनोवर मेस्से’ में भारत के छह प्रमुख रेस्तरां लगाये गये, जहां 28 शेफ भारतीय स्वाद पेश करने गये थे। दिसंबर 2017 में पीएम मोदी ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की मेजबानी की। तब एक मुश्किल सवाल सामने आया कि पीएम मोदी की ओर से भोज में ओबामा को क्या परोसा जाएगा? फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से शाकाहारी और मांसाहारी दोनों व्यंजनों के प्लेटर लगाये गये। वर्ष 2017 में जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे के साथ प्रतिनिधिमंडल वार्ता में पीएम मोदी ने भारतीय से अधिक जापानी रेसिपी को प्राथमिकता दी।

जब निक्सन ने खु्रश्चेव के पेट में अंगुली चुभो दी

ज़रूरी नहीं कि डिनर टेबल पर सबकुछ अच्छा-अच्छा ही हो। साल 1959 में मॉस्को में अमेरिकी राष्ट्रीय प्रदर्शनी के दौरान तत्कालीन उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और सोवियत प्रधान मंत्री निकिता खु्रश्चेव के बीच ‘रसोई बहस’ शीतयुद्ध के तनाव को और बढ़ा गई। ‘किचन डिबेट’ में एक पल ऐसा भी देखा गया, जब दोनों नेता आपा खो बैठे थे। निक्सन ने तो निकिता खु्रश्चेव के पेट में अपनी अंगुली चुभो दी थी। एक और वाकये की चर्चा यहां ज़रूरी है। साल 1954 में व्हाइट हाउस ने चीन और सोवियत प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी की। उसकी थीम थी, ‘टाइगर फाइट्स द ड्रैगन’। एक चमड़ीदार कार और ड्रैगन जैसे पात्र में जब व्यंजन परोसा गया, प्रतिनिधिमंडल ने बड़ा अपमानित महसूस किया, और रात्रिभोज छोड़कर व्हाइट हाउस से निकल गये। उस घटना के बाद से अमेरिका और सोवियत संघ के संबंध और बिगड़े।

‘ऐसे हाथों से भेजे आम स्वीकार नहीं’

एक और घटना याद करने लायक है। साल 1977 के चुनाव अभियान के दौरान श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरीमाओ भंडारनायक को पाक दूतावास के ज़रिये जनरल ज़ियाउल हक़ द्वारा भेजा आम का टोकरा मिला। उसमें एक पत्र भी ज़ियाउल हक का था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘मुल्तान के बाग़ से ख़ास आपके लिए।’ अगले दिन वही टोकरी एक स़ख्त संदेश के साथ कोलंबो स्थित पाक राजदूत ख़ालिद खैशगी ने रिसीव की। उस संदेश में सिरीमाओ भंडारनायक ने लिखा था, ‘जो हाथ पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के ख़ून से रंगे हों, उन हाथों से भेजे आम हमें स्वीकार नहीं।’ पाक राजदूत ख़ालिद खैशगी की हिम्मत नहीं कि उस टोकरे और पत्र को वापिस इस्लामाबाद भेजें। मुलतानी आम अंततः दूतावास के कर्मचारी ही चूस-खा गये।

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