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सहज स्वीकार्यता से ही बनेगा महिलाओं हेतु उन्नत समाज

10:29 AM Mar 05, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

महिलाओं को समाज में समान दर्जा व स्वीकार्यता मिले इसके लिए सोच में बदलाव लाने की जरूरत है। इससे उन्हें सशक्त होने, आगे बढ़ने व भागीदारी बढ़ाने के अनुकूल माहौल बनेगा। इस महिला दिवस की थीम ‘इंस्पायर इंक्लूजन’ भी पूर्वाग्रह व लैंगिक भेदभाव मिटाने का ही संदेश लिए है।

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डॉ. मोनिका शर्मा

स्त्रियों के जीवन में बदलाव लाने की प्रक्रिया लंबा समय लेती है। आज की तैयारी ही भविष्य की बेहतरी की बुनियाद बनती है। महिलाओं की ज़िंदगी से जुड़े परिवर्तन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कई पहलुओं पर निर्भर करते हैं। सामाजिक-पारिवारिक और व्यक्तिगत मोर्चे पर अनगिनत चीज़ें इस बदलाव के आड़े आती हैं। ऐसे में जेंडर इक्वेलिटी के फ्रंट पर सोच-समझ और बर्ताव का रुख बदलना ही भावी बदलावों की बुनियाद बन सकता है। इस बुनियाद को मजबूती देने वाला सबसे जरूरी पहलू स्त्रियों के आगे बढ़ने, अपनी भागीदारी दर्ज़ करवाने के सहज परिवेश से जुड़ा है। इसी सोच को बल देती है इस वर्ष महिला दिवस की थीम ‘इंस्पायर इंक्लूजन’। यह विषय लैंगिक विभेद मिटाकर समानता पोषित करने के मानवीय भाव से जुड़ा है।

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नई सोच की नींव

दरअसल, सोच की दिशा न सिर्फ समाज में बदलाव के बुनियादी हालात तैयार करती है बल्कि घर-परिवार से लेकर वर्कप्लेस तक, स्त्री जीवन में आ रहे बदलावों को लेकर एक सहज स्वीकार्यता भी लाती है। विचार की दिशा हमेशा इंसानी व्यवहार की दशा भी तय करती है। सड़क और बाज़ार से लेकर अपने आंगन तक, राय बनाने का यह भाव महिलाओं के प्रति अपनाए जाने वाले व्यवहार में भी झलकता है। फिर बात चाहे घरेलू हिंसा से जुड़ी दोयम दर्ज़े की सोच की हो या कार्यस्थल पर होने वाले शोषण और दुर्व्यवहार की। विचार ही व्यवहार में उतरकर महिलाओं के प्रति असंवेदनशील माहौल बनाते हैं। ऐसे में जेंडर इक्वेलिटी का भाव हर देश, हर समाज में नई सोच की नींव तैयार कर सकता है। सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था की धुरी होने के बावजूद महिलाएं ही असमानता की सोच की सबसे ज्यादा शिकार बनती रही हैं। उच्च शिक्षित, सजग और कामकाजी महिलाओं के बढ़ते आंकड़े भी हमारे परिवेश को नहीं बदल पाए। जिसके चलते लैंगिक भेदभाव की सोच महिलाओं के लिए असुरक्षा और असम्मानजनक परिवेश की अहम वजह बनी हुई है।

कायम हैं पूर्वाग्रह

लैंगिक समानता की राह में सबसे बड़ी बाधा यह है कि आज भी महिलाओं के प्रति एक तयशुदा सोच जड़ें जमाए हुए है। आधी आबादी को एक ख़ास तरह के खांचे में फिट करके ही देखा जाता है। शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के बावजूद महिलाओं से एक नियत परिधि में ही सिमटे रहने की उम्मीद की जाती है। कुछ समय पहले आई यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनियाभर में लगभग 90 फीसदी महिलाएं और पुरुष, महिलाओं के प्रति किसी न किसी तरह का पूर्वाग्रह रखते हैं। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने दुनिया की 80 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले 75 देशों की स्टडी के बाद तैयार की गई। भारतीय समाज के परम्परागत ढांचे में यह बंधी-बधाई सोच और भी गहराई से समाई है। महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों के आंकड़े और घर-दफ्तर में उन्हें कमतर महसूस करवाने के वाकये, इसी सोच की बानगी हैं। ऐसे में महिलाओं की मजबूती के लिए आज लैंगिक समानता के मोर्चे पर गंभीरता से सोचा जाना वाकई जरूरी है।

हर कमी का कारण

आधी आबादी को उसकी उचित हिस्सेदारी न मिलना उनके जीवन से बहुत कुछ कम हो जाने की बड़ी वजह है। ऐसे में परिवार से लेकर परिवेश तक, लोगों का नजरिया बदले बिना मान-सम्मान से लेकर सहज जीवन जीने की स्वतंत्रता तक, कुछ भी महिलाओं के हिस्से नहीं आ सकता। समाज की सोच में बदलाव आए बिना नए हालातों में नई तकलीफें उनके हिस्से आती रहेंगी, क्योंकि आम लोगों की सोच ही सामाजिक-पारिवारिक संस्कृति बनाती है। दरअसल, जेंडर इनेक्वेलिटी के कारण ही कई कुरीतियों और रूढ़ियों का बोझ भी स्त्रियों के लिए दंश बना हुआ है। कई परिवारों में घर से जुड़े फैसलों में आज भी उनकी भूमिका दोयम दर्ज़े की ही है। भ्रूणहत्या, दहेज की मांग और घरेलू हिंसा जैसी कुरीतियां उन्हें समान न समझने का ही नतीजा हैं।

बेहतर भविष्य की आशाएं

हालिया बरसों में महिलाओं के जीवन से जुड़े कई पहलुओं पर बदलाव आया है। यह परिवर्तन बेहतर भविष्य की आशा भी जगाता है। कई मोर्चों पर सकारात्मक सोच की बुनियाद भी बन रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और कामकाजी मोर्चे पर आधी आबादी के हालात भी सुधरे हैं। इस वर्ष अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम इंस्पायर इंक्लूजन’ वैश्विक समाज में महिला समानता को बल देने का ही संदेश लिए है। यह थीम कहती है कि जब महिलाएं कहीं उपस्थित न हों, अपनी क्षमता और योग्यता के अनुरूप अपनी भागीदारी दर्ज़ करवाने में चूकें तो यह पूछा जाना चाहिए कि वे वहां नहीं थीं तो क्यों नहीं थीं? जब महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाये तो इसे खराब रिवाज कहकर बदलाव का आह्वान किया जाना चाहिए। महिलाओं की उपलब्धियों का उत्सव मनाकर भी भेदभाव के बारे में जागरूकता लानी होगी। संगठन, समूह या व्यक्तिगत जीवन में महिलाओं और लड़कियों की आवश्यकताओं, हितों, स्वास्थ्य समस्याओं, आत्मनिर्भरता और रचनात्मक प्रतिभा को बढ़ावा देने, शिक्षण-प्रशिक्षण को मान देने की सोच के साथ ऐसे प्रयासों को सफल बनाया जा सकता है। महिलाओं को हाशिये पर धकेल दिए जाने के बजाय हर भूमिका में सहज स्वीकार्यता मिलने का परिवेश बनाने का भरोसा जगाती यह मुहिम सराहनीय है।

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