पहले अमेरिका अपने गिरेबां में झांके
संविधान एवं न्याय को ताक पर रखकर अमेरिका द्वारा की गई मुठभेड़ों की सूची बहुत लंबी है। साल 1990 में कुवैत। 2001 में अफगानिस्तान। 2003 में इराक। 2014 में सीरिया। 2015 में लीबिया में सीमित हमले। अमेरिकी कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस के अनुसार, 1991 से लेकर -जब पूर्व सोवियत संघ के विघटन के साथ शीत युद्ध समाप्त हुआ - 2022 के बीच अमेरिका ने 251 बार सैन्य दखलअंदाज़ी की है।
जब अमेरिकियों ने इराक पर बमबारी की थी तो मेसोपोटामिया में प्राचीन सभ्यता के खंडहरों को काफी क्षति पहुंची थी - लेकिन किसी ने एक शब्द तक नहीं कहा। जब अमेरिकी सैनिकों ने सद्दाम हुसैन को मार डाला, जोकि एक असाधारण तानाशाह था, परंतु जिसके पास से, इल्जामों के विपरीत, निश्चित रूप से सामूहिक विनाश का कोई हथियार नहीं ढूंढ़ पाए– तब भी पश्चिमी दुनिया चुपचाप देखती रही। और जब तक अमेरिकी अंततः 21 साल बाद अफ़गानिस्तान से निकले, तब तक वे जनजातीय ताना-बाना नष्ट करने के अलावा स्थानीय राजनीतिक नेताओं को गांठने में सफल हो चुके थे, जिसके चलते तालिबान को पुनः संगठित होने और देश पर फिर से कब्ज़ा करने का मौक़ा मिल गया।
कुछ लोग कहेंगे – विशेषकर, आज के ढाका में रहने वाले बांग्लादेशी - कि भारत ने भी तो 1971 में भी यही सब किया था, जिसका उद्देश्य पाकिस्तान को तोड़ना और एक नया देश बनाने में मदद करना था। ओह हां, अमेरिकियों ने इसे भी समझने में गलती की थी - अमेरिकी राजनयिक गैरी बास की पुस्तक, ‘द ब्लड टेलीग्राम’ पढ़ें, जिसमें आप पाएंगे कि कैसे रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर पूर्वी बंगालियों का बारम्बार नरसंहार किए जाने के बावजूद पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान की आलोचना करने से इंकार करते रहे (बांग्लादेश के निर्माण में पूर्वी बंगाल के राजनेताओं की मदद करने वाली इंदिरा गांधी के बारे में वे क्या कहते रहे, इसकी एक अलग कहानी है)।
इसलिए, गत सप्ताह अगर किसी को हैरानी हुई हो कि अमेरिका ने किस भौंडे ढंग से भारतीय खुफिया अधिकारी विकास यादव पर अभियोग लगाया है – जिसने खुद उतने ही भौंडे तरीके से एक अमेरिकी नागरिक और खालिस्तान समर्थक कार्यकर्ता गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या करने की कोशिश की, और इस काम को अंजाम देने के लिए सह-षड्यंत्रकारी के माध्यम से एक अमेरिकी पेशेवर हत्यारे को सुपारी देने की कोशिश की, जो बाद में एक अमेरिकी खुफिया मुखबिर निकला - तो, आपको आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है, भले ही यह कहानी एकदम हिंदी फिल्म की पटकथा सरीखी लगे।
बीते वीरवार को न्यायालय में सीलबंद लिफाफे से आरोप पत्र को निकालते हुए न्यूयॉर्क के दक्षिणी जिले के अमेरिकी अटॉर्नी डेमियन विलियम्स ने जो कहा, वह सुनें : ‘यह मामला उन सब के लिए चेतावनी बने, जो अमेरिकी नागरिकों को नुकसान पहुंचाना और चुप कराना चाहते हैं, हम आपको जवाबदेह ठहराएंगे, कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे आप कोई भी हों और जहां कहीं भी हों’। जब आपके अपने हाथों पर इतना खून लगा हो, जैसा कि अमेरिकियों के हाथों पर है, तो आप सोचेंगे कि कम से कम उसे तो मुंह बंद रखना चाहिए था।
हालांकि, साफ है, अमेरिकी प्रतिष्ठान में विरोधाभास या खिसियानापन या शर्म के लिए कोई जगह नहीं है - कम से कम, तब नहीं जब डोनाल्ड ट्रम्प और कमला हैरिस के बीच ‘करो या मरो’ वाला राष्ट्रपति चुनाव संग्राम जारी है। जैसा कि कहा जाता है और यह सत्य है कि डेमोक्रेट पार्टी की सरकार रिपब्लिकनों की तुलना में पारंपरिक रूप से भारत के प्रति अधिक सख्त रही है - शायद, रिपब्लिकन मानवाधिकारों को लेकर उतने चिंतित नहीं हैं, और उनका ध्यान अपने और शेष अमेरिका के लिए अधिक पैसा कमाने की और है, यह बात चीनियों को भी माफिक बैठती है।
आपने सोचेंगे कि जो बाइडेन, टोनी ब्लिंकन और जेक सुलिवन को बेहतर समझ होनी चाहिए थी कि वे एक स्वयंभू खालिस्तानी कार्यकर्ता को भारत-अमेरिका संबंधों का केंद्र बिंदु क्यों बनने दें। हैरान भारतीय यह पूछने से खुद को रोक नहीं पाएंगे : क्या अमेरिकी इस बात पर राजी हैं कि भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक खालिस्तान की स्थापना को तूल देकर भारत को तोड़ने की कोशिश करते रहें? कुछ लोग कहते हैं कि बाइडेन-ब्लिंकन-सुलिवन तिकड़ी ने कनाडा के जस्टिन ट्रूडो को भारतीय सरकार की सार्वजनिक तौर पर आलोचना करते वक्त सुर धीमा करने के लिए कहा है। यह एक और मजाक है। सनद रहे, 23 जून 1985 को आयरलैंड के तट पर एयर इंडिया की ‘कनिष्क’ उड़ान में विस्फोट हो गया था, जिसमें सवार सभी 329 लोग मारे गए थे, जिनमें से अधिकांश भारतीय मूल के कनाडाई नागरिक थे? खैर, कनाडा की पुलिस जांच एजेंसी, रॉयल कैनेडियन माउंटेड पुलिस ने 2000 में जब इस आतंकी कृत्य के लिए दो ‘खालिस्तान’ समर्थकों को गिरफ्तार किया तो इसमें पूरे 15 साल लगे थे।
वही रॉयल कैनेडियन माउंटेड पुलिस ने बीते सप्ताह ओटावा में की प्रेस वार्ता में लॉरेंस बिश्नोई के आपराधिक सिंडिकेट का नाम लेकर कहा कि उसने भारतीय अधिकारियों की मिलीभगत से बीते साल हरदीप सिंह निज्जर और एक अन्य कनाडाई नागरिक सुखदूल सिंह की हत्या की है। कनाडा में भारत के राजदूत संजय वर्मा को ‘संदेहास्पद सहयोगी’ नामित किया गया और उन्हें तुरंत कनाडा छोड़ने के लिए कहा गया।
निश्चित रूप से, पिछले सप्ताह ऐसा लगा कि अमेरिका और कनाडा लीक से हटकर भारत में लोगों को दोस्त बनाने और प्रभावित करने का काम कर रहे हैं। यह सही है कि दो गलतियां मिलकर एक सही नहीं बनाती और एक-दूसरे के प्रति प्रतिशोध वाला व्यवहार पूरी दुनिया को कुछ और अंधकारमय बनाता है। विकास यादव की कलाबाज़ियां निश्चित रूप से माफी योग्य नहीं। इसलिए, भारत ने बात को और बिगड़ने से रोकने की कोशिश की और यादव को सरकारी सेवा से ‘हटा’ दिया। लेकिन अगर यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है, तो बतौर अगले उपाय इंटरपोल से रेड-कॉर्नर नोटिस जारी करवाना, और शायद, उसका प्रत्यर्पण करवाना शामिल होगा। इससे द्विपक्षीय संबंध कठिन दौर से गुजरेंगे।
इस बीच, अमेरिका और भारत का घनिष्ठ मित्र इस्राइल गाज़ा पर बमबारी कर उसे पाषाण युग में वापस ले जाने में जुटा है, जिसका खर्च - कम से कम आंशिक रूप से सही- अमेरिकी करदाताओं की जेब से हो रहा है। यहां गौरतलब है कि रूस और चीन, जोकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य भी हैं, वे गाज़ा और लेबनान पर इस्राइल की बमबारी और ईरान प्रायोजित हमास नेताओं की टार्गेटिड किलिंग के खिलाफ ज्यादा कुछ नहीं कह रहे हैं। स्पष्टतया, यह सभी पक्षों को माफिक बैठ रहा है। जहां व्लादिमीर पुतिन इस बात से संतुष्ट हैं कि इससे दुनिया का ध्यान रूस-यूक्रेन युद्ध से हटा रहेगा वहीं शी जिनपिंग को तसल्ली है कि गाज़ा-लेबनान प्रसंग ने दक्षिण चीन सागर के इलाके को उसके द्वारा शातिराना ढंग से छोटे-छोटे टुकड़ों में हड़पने पर से ध्यान भटका रखा है। जहां तक लद्दाख की बात है, चीन पुरानी यथास्थिति बनाने को लेकर भारत से वार्ता करने में रुचि नहीं ले रहा।
इन परिस्थितियों के बीच, प्रधानमंत्री मोदी चार महीनों में दूसरी बार रूस की यात्रा करेंगे –जब अगले सप्ताह कज़ान में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। शायद, अमेरिकी इसे भी संदेह की दृष्टि से देखेंगे। उन्होंने भारत-रूस के बीच सुधरते संबंधों पर अपनी नाराजगी छुपाई नहीं है, खासकर पिछले दो सालों में भारत को सस्ते रूसी तेल की बिक्री को लेकर। लेकिन अमेरिका द्वारा इतना खराब व्यवहार करना – जबकि खुलेआम किए गए चिरस्थाई दोस्ती के सभी वादे अचानक नेपथ्य में जा रहे हैं –ऐसे में हो सकता है मोदी किसी ऐसे नेता के साथ संबंध मजबूत करने के लिए लालायित हों, जो उनसे यह सवाल न करे कि अपने देश में क्या कर रहे हो।
कुछ लोग कहेंगे कि यह राष्ट्रों द्वारा खेले जाने वाले खेल का एक अन्य अध्याय है- कुछ तत्परता से, तो कुछ मजबूरी में - जो शुरू होने जा रहा है।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।