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सत्ता की महत्वाकांक्षा से भरोसे को आंच

07:16 AM Oct 28, 2023 IST

उमेश चतुर्वेदी

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बीच विभिन्न राजनीतिक दलों में टिकट बंटवारे के मुद्दे पर ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य को लेकर सवाल खड़े किय जा रहे हैं। इसकी वजह है, विशेषकर उत्तर और मध्य भारत के विधानसभा चुनावों में बिना सामंजस्य के उतरे विपक्षी गठबंधन के उम्मीदवार। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बेशक सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के ही बीच है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसे दलों की इन चुनावों में कोई भूमिका नहीं है। लेकिन कांग्रेस का इन चुनावों में ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों और उनके नेताओं के साथ जैसा व्यवहार है, उसके कुछ संकेत साफ हैं। संकेत यह कि कांग्रेस अपनी शर्तों पर इन दलों को मौका देगी और अगर उसे महसूस हुआ तो वह सहयोगी दलों के लिए मौका भी नहीं छोड़ेगी।
निस्संदेह, विपक्षी गठबंधन में सबसे बड़ा दल कांग्रेस है। उसका संगठन भी सबसे पुराना है। इस नाते उसका अगुआई का स्वाभाविक दावा भी बनता है। लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि जमीन पर उसकी वैसी पकड़ नहीं है, जैसी करीब तीन दशक पहले तक थी। दरअसल कांग्रेस यह हकीकत स्वीकार नहीं कर पा रही। हालांकि यही परिस्थितियां उसे गठबंधन के लिए मजबूर कर रही हैं।
संख्याबल के लिहाज से विपक्षी गठबंधन में ममता बनर्जी का दल सबसे बड़ा है। लेकिन वे गठबंधन की गतिविधियों में कम ही दिलचस्पी दिखा रही हैं। जाहिर है वे गठबंधन को बंगाल में उपयोग के हिसाब से तोल रही हैं। जनता दल यू भी बड़ा दल है। लेकिन असल में तो उसके सांसदों की संख्या भाजपा के साथ के चलते इतनी है। इस लिहाज से विपक्षी गठबंधन में समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर का महत्वपूर्ण दल है। लोकसभा में उसके सांसदों की संख्या भले कम हो, लेकिन जनसंख्या और लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में वही भाजपा के सीधे मुकाबले में है। ऐसे में समाजवादी पार्टी का गठबंधन में अहमियत की चाहत रखना स्वाभाविक है। इसी के चलते अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश में अपने लिए कुछ सीटों की उम्मीद रखी। लेकिन वहां कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ का बयान कि ‘छोड़िए अखिलेश-वखिलेश को’ एक तरह से समाजवादी पार्टी का अपमान ही है। रही-सही कसर उत्तर प्रदेश के नवेले कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय ने पूरी कर दी। ऐसे में अखिलेश के रुख में परिवर्तन आया जिसका असर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में दिख रहा है। यहां समाजवादी पार्टी भी मैदान में है। शायद अखिलेश का हश्र देखकर ही आम आदमी पार्टी ने तीनों राज्यों में उम्मीदवार उतारे।
मीडिया के कुछ समीक्षक आजकल यह स्थापित करने में जुटे हैं कि मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष का पद दमदार तरीके से संभाल रहे हैं। लेकिन हकीकत में कांग्रेस पर नियंत्रण राहुल गांधी का ही है। चाहे नीतीश कुमार को किनारे रखना हो या फिर अखिलेश पर कांग्रेसी हमला हो, या फिर आम आदमी पार्टी की उपेक्षा हो, सबके पीछे उनकी ही सोच है।
राहुल गांधी इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की वकालत कर रहे हैं। कांग्रेस नेता राज्यों में वादा कर रहे हैं कि जैसे ही उनकी सरकार बनी, पार्टी जाति जनगणना कराएगी। राजस्थान में तो ऐन चुनावों के बीच ऐसा ऐलान अशोक गहलोत ने कर भी दिया, जिसे चुनाव आयोग ने रोक दिया। सब जानते हैं कि जाति जनगणना की मांग हो या लागू करना हो, पिछड़े वर्गों को फायदा पहुंचाने की बजाय उसका असल मकसद राजनीतिक फायदा उठाना है। ऐसे में बेशक अखिलेश और उनका परिवार क्रीमी लेयर में आता हो,लेकिन वे भी अन्य पिछड़े वर्ग के हैं। बेहतर होता कि कांग्रेस अखिलेश के साथ पिछड़े वर्ग के नेता की ही तरह व्यवहार करती।
कांग्रेस को कुछ राज्यों मसलन हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में जीत के बाद लगता है कि अब उसके लिए सत्ता की बयार बह रही है। लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनावों में राजस्थान की समूची सीटें भाजपा ने जीती, कर्नाटक में भी यही हाल रहा, हिमाचल में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ और मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस के दो ही सांसद चुने गए। साफ है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व पर तब जनता ने भरोसा नहीं किया। लेकिन कांग्रेस जिस तरह अपने सहयोगी दलों की अनदेखी कर रही है, ऐसे में लगता नहीं कि वह चेत रही है।
हाल ही में मोतीहारी स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में नीतीश ने जिस तरह भाजपा नेताओं व समर्थकों के प्रति दोस्ती का इजहार किया, उसे कांग्रेस के उनके प्रति व्यवहार का नतीजा बताया गया। कांग्रेस के प्रति आम आदमी पार्टी भी आशंकित नजर आ रही है। ऐसे में सवाल है कि किस आधार पर कांग्रेस अगले आम चुनाव में अपने सहयोगी दलों का दिल से साथ हासिल कर पाएगी। ऐसा कर पाना आसान तो नहीं ही लगता।
यूं भी नीतीश का अतीत गवाह है कि वे अपना अपमान नहीं भूल पाते। वहीं अखिलेश के समर्थकों ने जिस तरह उत्तर प्रदेश की सड़कों पर उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तुत किया है, उसके संकेत साफ हैं कि आने वाले दिनों में अखिलेश कांग्रेस की राह आसान नहीं होने देंगे। ऐसे में राहुल हों या कांग्रेस या कांग्रेस के दूसरे नेता, अगले आम चुनाव में उनके पिछड़ावादी होने के दावे के बावजूद गठबंधन के बेलोस नेता बनने की उम्मीद शायद ही पूरी हो पाए।

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