जन चेतना के साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी
आज हमारे सामने सबसे बड़ी व गंभीर समस्या नशे की है। नशे का यह कैंसर जिस तीव्रता से समाज में फैल रहा है उसे देख-सुनकर आदमी सिहर उठता है और लगता है कि जिस गति से नशा समाज को विनाश की गर्त में ले जा रहा है उससे तो समाज का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
प्रतिदिन नशे से होने वाली युवाओं की मौतों की खबरें और नशीले पदार्थों की बड़ी-बड़ी खेपें पकड़े जाने के समाचार डराते हैं। मानव समाज के अस्तित्व को खतरे में डालने वाला स्वयं इंसान ही है जो पैसे के लालच में अन्धा होता जा रहा है। एक समय था जब तंबाकू, सिगरेट, बीड़ी और अधिक से अधिक शराब को नशा माना जाता था। लेकिन आज अफीम, चरस, गांजा, कोकीन, चिट्टा और न जाने कौन-कौन से नए नामों के साथ नशा समाज में तबाही मचा रहा है। इस धंधे में जो अंधाधुंध कमाई हो रही है उसके लालच में लोग इस दलदल में फंसते हैं। यह भी कि जो फंस गए वे फिर निकल नहीं पाते। अधिकाधिक धन कमाने के लालच में लोग फंसते हैं। इसी तरह पुलिस प्रशासन और अन्य एजेंसियाें के कुछ लोग जिनको इस पर नियंत्रण करना है, वे भी रिश्वत के चक्कर में आंखें मूंद लेते हैं। इसका भयंकर परिणाम यह हो रहा है कि बच्चे, विद्यार्थी और युवा नशेड़ी बन जाते हैं।
परिवार नियोजन के कारण बहुत सारे परिवारों में एक ही बच्चा, लड़का या लड़की होती है और वह मासूम जब नशे की लत का शिकार हो जाता है तो मां-बाप की जिन्दगी भी नर्क बन जाती है। यदि युवा पीढ़ी नशेड़ी होगी तो न सेना के लिए वीर सैनिक मिलेंगे, न पुलिस प्रशासन के लिए स्वस्थ व जागरूक कर्मचारी-अधिकारी मिल पाएंगे। इस तरह न कृषि का क्षेत्र, न उद्योग का क्षेत्र और न ही सेवाओं का क्षेत्र नशे के असर से बचेगा।
नशे का यह जहर सारे समाज को खोखला कर देगा। नि:संदेह इस संकट को दूर करने के लिए कोई बाहर से आकर समाधान नहीं निकालेगा। हम सभी को स्वयं नागरिक के तौर पर अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व निभाना है। कुछ समय से मैं देख रहा हूं कि परिवार की परिभाषा पति, पत्नी और बच्चों तक ही सीमित हो गई है। समाज के अन्य लोगों का सुख -दुख हमारा अपना नहीं होता। इसी प्रकार से हमारा सुख-दुख समाज के लोगों का नहीं होता। इसी कारण से मनुष्य कष्ट या समस्या के समय सामाजिक प्राणी होते हुए भी अपने आप को अकेला पाता है। कुछ समय पहले तक किसी का भी बच्चा अगर सिगरेट, बीड़ी या शराब आदि का नशा करते किसी को मिलता था तो प्रत्येक व्यक्ति अपना सामाजिक दायित्व समझते हुए उसे रोकता था। उसके परिवारजनों को सूचना देता था तो एक प्रकार से कुरीतियों पर, दुष्प्रभावों पर पारिवारिक नियंत्रण के साथ-साथ सामाजिक नियंत्रण भी होता था। नशे की बात हो, महिलाओं से छेड़खानी की बात हो या कोई दुर्घटना हो जाए तो आंख बचाकर निकलने में ही भलाई समझी जाती है। इसलिए पहले तो सभी अपना पारिवारिक दायित्व निभाएं।
हम केवल बच्चे पैदा करना ही अपना दायित्व न समझें, बल्कि उन्हें अच्छे संस्कार देना, समय देना और समाज को सुसंस्कृत, सभ्य नागरिक देना भी सभी का दायित्व है। सामाजिक दायित्व को समझते हुए बुराई के खिलाफ खड़े होने का नैतिक साहस अपने अंदर पैदा करें और सामाजिक दायित्व को निभाएं। गलत किसी के साथ भी हो रहा है तो उसके खिलाफ आवाज उठाएं। परिवार और समाज के साथ सरकार पर भी बहुत बड़ा दायित्व आता है। इन बुराइयों को कुचलने के लिए सरकार को सख्त कानून बनाने की जरूरत है। इसमें वर्तमान कानूनों में अगर किसी संशोधन की आवश्यकता हो तो केंद्र और प्रदेश की सरकारें मिलकर सख्त कानून बनाएं। पुलिस प्रशासन के लोग अकसर यह शिकायत करते हैं कि हम तो केस पकड़ते हैं लेकिन अदालत से लोग छूट जाते हैं क्योंकि पकड़ी गई नशे की खेप की मात्रा कम होती है। तो क्या अपराधी नशा इतनी कम मात्रा में लाते हैं या पकड़ने वाले पकड़ी गई खेप की मात्रा कम दिखाते हैं। इसलिए सख्त कानून की आवश्यकता केवल धन के लालच में लगे समाज विरोधी ड्रग तस्करों के लिए नहीं अपितु इसे बनाने वालों, तस्करी करने वालों, नशा फैलाने वालों, प्रयोग करने वालों और संलिप्त पुलिस प्रशासन तथा राजनीतिक संरक्षण देने वालों समेत सब के लिए है। इसके लिए सबको इन समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त सभी लोगों के विरुद्ध सख्त दृष्टिकोण अपनाना होगा और सामान्य कानूनों के तहत मिलने वाले संरक्षण से इन्हें बाहर रखना होगा।
मुझे याद है, साल 1995 में संसद की ‘पर्यटन और परिवहन’ की स्थाई समिति के सदस्य के तौर पर सिंगापुर जाने का अवसर मिला। उन दिनों अमेरिका के दो नागरिक नशे की तस्करी के आरोप में सिंगापुर में पकड़े गये थे। अमेरिका के राष्ट्रपति ने उन्हें छुड़ाने के भरसक प्रयास किए, लेकिन प्रधानमंत्री श्री ली ने एक न सुनी और तीस लाख की आबादी वाले सिंगापुर ने दुनिया के सबसे ताकतवर देश के दोनों नशा तस्करों को अपने देश के कानून के अनुसार फांसी पर लटका दिया।
क्या 140 करोड़ की आबादी वाला नया भारत और यहां के भिन्न-भिन्न दलों के नेता दलगत राजनीति से ऊपर उठकर नशे के इस कैंसर से देश को मुक्त करने की इच्छाशक्ति दिखाएंगे और विश्व शक्ति बनने वाला भारत ‘नशा मुक्त’ भी होगा? यही हमारी सबसे बड़ी परीक्षा है और यह पास कर ली तो सबसे बड़ी उपलिब्ध भी होगी।
लेखक हि.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री हैं।