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एलियंस

06:52 AM Dec 31, 2023 IST
एलियंस
चित्रांकन : संदीप जोशी
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हरि मोहन

‘अरे! तुम?’
‘आप?!’
दोनों के मुंह से एकसाथ निकला। अचानक एक-दूसरे को सामने पाकर। यहां नैनीताल में मिल जायेंगे, उन दोनों ने कभी नहीं सोचा था। सुदूर सामने घना जंगल था। जिसके हरेपन की शीतलता में उनके मिलने की धूप धीरे-धीरे उतर रही थी। चमकीली ऊष्मा लिए हुए। पता नहीं इंदु के पीछे खड़े बांज के पेड़ों की हिलती पत्तियों में कौन-कौन सी इच्छाएं करवट बदलने लगी थीं। वह शिवा को तीस साल बाद देख रही थी। तीस साल या इस से भी ऊपर का समय हो गया। वह याद करने की कोशिश करती है। शिवा इस शहर के धुले हुए चेहरे को देखने लगा। तभी एक लाल रंग की चिड़िया उन दोनों के बीच से उड़ती हुई निकल गई। चिड़िया के पंखों की कोमल फरफराहट ने दोनों को वर्तमान में लाकर खड़ा कर दिया।
‘कैसे हो आप?’ इंदु ने पूछा।
‘मैं ठीक ही हूं। आप?’ शिवा का स्वर मशीनी नहीं था।
‘जैसी आपने छोड़ी थी, वैसी ही हूं!’ वाक्य लम्बा था। लेकिन जल्दी बोला गया।
इंदु शिवा की ओर देख रही थी। उसके बोलने का ढंग बिल्कुल तो नहीं बदला। लेकिन एक प्रौढ़ता आ गई है। होंठों को थोड़ा-सा टेढ़ा कर के मुस्कान लाने की सहजता बची हुई है। सरलता वही है। हमेशा की तरह। इंदु ने उसके शब्दों की छाया में दुबकी दुनिया के प्रति अलगाव की उसकी आदत को ढूंढ़ लिया।
‘तुम जहां बैठी हो आज इतने ऊपर, इंदु! नीचे की दुनिया बड़ी निर्मम है।’ –शिवा ने कहा। कहा भी है या नहीं, यह भी पता नहीं। पर इंदु को यही सुनाई दिया।
आंखों में तिर आई आर्द्रता को छिपाते हुए वह शिवा की आंखों में उसके दुःख को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। वहां एक खालीपन था, जो शिवा की प्रकृति से बिल्कुल मेल नहीं खा रहा था। जीवन को भरपूर सम्मान देने वाला, उत्साही शिवा, प्रेम में डूबा हुआ अलग ही था।
***
दोनों कुछ हटकर एक कोने में आकर बैठ गए। जहां विस्तृत ढलान के बीच में एक छोटा-सा टुकड़ा समतल का था। जैसे ढलान ने नीचे उतरते हुए एक क्षण को विश्राम किया हो। वहां से नैना झील का दृश्य साफ दिखाई दे रहा था। मोटर बोट में सवार लोग बेफिक्र होकर एंज्वाय कर रहे थे। वे दोनों द्रष्टा थे, लेकिन दृश्य का हिस्सा बन गए थे।
‘और कौन-कौन है साथ?’ शिवा को गलती महसूस हुई कि यह उसने बहुत देर बाद पूछा।
‘इस बार अकेली ही आई हूं...।’ कहते हुए उसने अपने उत्तर को पूरा किया, जैसे जल्दी से सब कुछ एक साथ कहा जा रहा हो, ‘हस्बैंड रिटायर हो गए। दो बेटे हैं। अभी पढ़ रहे हैं। मां और पापा अब रहे नहीं। कौन आता साथ। मैं अब अकेले ही रहना पसंद करती हूं।’
कहने के साथ ही लगा बरसों से बंद पड़े किसी मकान में कोई परिंदा चक्कर काट कर बैठा हांफ रहा हो।
‘याद है’, वह अचानक बोला, ‘तुम अक्सर ऐसी बातें किया करती थीं!’
इंदु ने सिर्फ उसकी ओर देखा। प्रत्यक्ष कुछ नहीं कहा। फिर भी उसने समझ लिया – ‘कैसी?’
‘क्या सपनों के फोटोग्राफ़ लिए जा सकते हैं? ...क्या हम अपने सपनों की फिल्म बना सकते हैं? ...क्या हम किसी फ़ोटो में मुस्कुरा रहे व्यक्ति को जीवित कर सकते हैं? ...तुम यही और ऐसी ही बातें पूछा करती थीं।’
‘सब कुछ याद है।’ कहा उसने। बात करते-करते इंदु अपना शरीर यहीं रखकर कहीं दूर निकल गई थी। लौटी।
‘कहां चली गई थीं?’ –उसने पूछा। वह एक फीकी मुस्कान के साथ चुप बनी रही। वह जानती थी कि मुझे शिवा अच्छी तरह जानता है। इसलिए कुछ कहा नहीं।
‘आपने अपने परिवार के बारे में कुछ नहीं बताया।’ इंदु ने पूछा। जैसे एकाएक उसे याद आ गया हो।
‘मेरे परिवार में सब हैं। श्रीमती, दो बेटे। एक की शादी हो गई है। उस पर एक बेटा और एक बेटी है। दोनों स्कूल जाने लगे हैं। ...पिताजी और मां जी चले गए। मैं भी रिटायर होने के करीब हूं।’ उसने जल्दी-जल्दी सब बता दिया। फिर जोड़ा, ‘सब हैं। बस मैं ही नहीं हूं!’ कहा उसने, जैसे लगा यह तो बताना ही भूल गया।
‘कैसे?’ हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ इंदु ने पूछने के लिए पूछा।
‘दरअसल इंदु बात ऐसी है कि घर में सब अपने-अपने मोबाइल फ़ोन पर लगे रहते हैं। पहले टेलीविजन में खोए रहते थे। अब मोबाइल में। इसलिए मैंने कहा सब हैं, बस मैं ही नहीं हूं। कभी-कभी लगता है कि हम सब के घरों में या तो रोबोट रहते हैं या एलियंस। मनुष्य नहीं रहते।’
‘सही कहा। हर घर में यही हाल है। बच्चों का बचपन भी चला गया ...हम जैसे लोग अकेले-अकेले हो गए हैं। हम सब चुप्पियों में रहते हैं।’
शाम घिर आई थी। दोनों को अपने-अपने होटल लौटना था। लौटे। शिवा इंदु को जाते हुए देखता रहा। नीली जींस और लाल शर्ट में जाती हुई वह अभी भी बहुत सुंदर लगती है। उसने सोचा।
कमरे के अंदर कमरा। दूसरे कमरे के अंदर एक और कमरा। फिर एक कमरा। ऐसे न जाने कितने कमरों के बाद एक अंधेरे कमरे में रखे गमले में सुंदर बहुत नन्हा-सा फूल खिल रहा था। जो अब दिखाई दिया। दोनों ने अनुभव किया।

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