भयावह संकेत
यह रिपोर्ट भावी पीढ़ियों के भविष्य को लेकर गहरी चिंता जगाती है कि यदि बढ़ते पर्यावरणीय तापमान को कम करने के गंभीर प्रयास न हुए तो आने वाले आठ दशकों के बाद हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र के अस्सी फीसदी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। निस्संदेह इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की यह चेतावनी खतरे की घंटी है कि सुधर जाइए अन्यथा कुदरत के रौद्र का सामना करने के लिये तैयार रहें। अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर आशंका है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इसी तरह बढ़ता रहा तो हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के अस्सी फीसदी ग्लेशियर वर्ष 2100 तक नष्ट हो जाएंगे। ध्यान रहे कि दुनिया में ध्रुवीय इलाकों के अलावा सबसे ज्यादा बर्फ इन्हीं इलाकों में जमा है। जिसे एकत्र होने में हजारों साल लगे हैं। अध्ययन के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं कि इस सदी के पहले दशक के मुकाबले दूसरे दशक में ग्लेशियर 65 फीसदी तीव्र गति से पिघले हैं, जो स्थिति की भयावहता को ही दर्शाते हैं। ग्लोबल वार्मिंग से होने वाले नुकसान के स्तर का पता इस बात से चलता है कि वर्ष 2100 तक यदि इसी गति से ग्लेशियर पिघलते रहे तो इस क्षेत्र के दो अरब लोगों के रोजगार व जीवन पर भयावह असर पड़ेगा। इससे न केवल हमारी सिंचाई व्यवस्था ध्वस्त हो जायेगी , बल्कि पशुधन की भी भारी क्षति होगी। हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर और बर्फ से आच्छादित पर्वत शृंखलाओं से जो जीवनदायी पानी क्षेत्र की बारह नदियों के लिये निकलता है, वो करीब चौबीस करोड़ लोगों के पेयजल का मुख्य स्रोत भी है। इतना ही नहीं, यदि तेजी से ग्लेशियर पिघलते हैं तो भीषण बाढ़-हिमस्खलन से भारी पैमाने पर मानवीय क्षति भी होगी। दो साल पहले उत्तराखंड के चमोली जनपद में ग्लेशियर टूटने से आई तबाही को दुनिया ने देखा था। हमें भविष्य में ऐसे संकटों के लिये तैयार रहना होगा।
उल्लेखनीय है कि हिंदूकुश पर्वत शृंखला में पिघलते ग्लेशियरों पर अध्ययन करने वाले इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट नामक अंतर-सरकारी संगठन में भारत, चीन, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भूटान व म्यांमार के सदस्य शामिल हैं। अध्ययन चेताता है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रहती है तो क्षेत्र के ग्लेशियर वर्ष 2100 तक तीस से पचास प्रतिशत तक पिघलेंगे। लेकिन यदि तापमान दो डिग्री से ज्यादा होता है तो इनके पिघलने की दर 55 से अस्सी फीसदी तक रह सकती है। आसन्न संकट के मद्देनजर दुनिया के विकसित व विकासशील देशों को इसे खतरे की घंटी मानते हुए युद्ध स्तर पर प्रयास करने होंगे। अन्यथा करोड़ों लोगों का जीवन संकट में फंस जायेगा। इससे जहां इन देशों की खाद्य सुरक्षा तहस-नहस हो जाएगी, वहीं प्राकृतिक आपदा कई रूपों में कहर बरपाएगी। सिंचाई के संसाधन नष्ट होने से खाद्यान्न संकट गहरा जायेगा। चमोली गढ़वाल इलाके में वर्ष 2021 में आई प्रलयंकारी बाढ़ के मूल में भी ग्लेशियर टूटने से आया सैलाब बताया जाता रहा है। बताया जा रहा है कि इस इलाके में कई जगह ग्लेशियर पिघलने से छोटी-छोटी झीलें बन गई हैं। इनमें पानी का लेवल बढ़ जाने से ये झीलें टूट जाती हैं, जिससे नदियों में बाढ़ आ जाती है। वर्ष 2013 की केदारनाथ दुर्घटना के मूल में भी ग्लेशियर टूटने के बाद आई बाढ़ को बताया जाता रहा है। विशेषज्ञ बताते हैं कि चमोली जनपद के इस इलाके में एक हजार के लगभग ग्लेशियर हैं। तापमान बढ़ने से जब विशाल हिमखंड टूटते हैं तो भारी मात्रा में पानी निकलता है। हिमस्खलन के साथ चट्टानें व मिट्टी टूटकर नीचे आने से बाढ़ की स्थिति बन जाती है। कई इलाकों में ग्लेशियरों के पीछे हटने से कुछ बर्फ ग्लेशियरों से अलग हो जाती है व फिर चट्टानों व कंकड़ों के मलबे को साथ लेकर नदियों में कहर बरपाती है। निस्संदेह, हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से बढ़ते तापमान के कारण पिघल रहे ग्लेशियरों को हमें एक बड़े संकट के रूप में देखना चाहिए। अन्यथा पिघलने से आने वाली बाढ़ इसके मार्ग में आने वाली बस्तियों, पुलों, हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट जैसे आधारभूत ढांचों को भी ध्वस्त कर सकती है।