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खतरे की घंटी

11:36 AM Jun 23, 2023 IST

ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का संकट गहरा रहा है और पर्यावरण अनुकूल विकास को वक्त की प्राथमिकता बताया जा रहा है, हिमाचल कैबिनेट का हालिया फैसला एक आत्मघाती कदम ही कहा जायेगा। शिमला के पारिस्थितिकीय तंत्र के लिये घातक साबित हो सकने वाले इस कदम के रूप में हिमाचल कैबिनेट ने शहर की 414 एकड़ में फैली हरित पट्टियों में निर्माण गतिविधियों का रास्ता खोल दिया। जिस पर दशकों तक पर्यावरणीय हितों के मद्देनजर नियामक संस्थाओं ने रोक लगा रखी थी। दरअसल, शीर्ष अदालत के एक फैसले के बाद मंगलवार को शिमला विकास योजना का मसौदा अधिसूचित कर दिया गया। हालांकि, शीर्ष अदालत के फैसले के अनुरूप अधिसूचना के एक माह तक दस्तावेजों को लागू न करने की बात कही गई है। इस मामले में अगली सुनवाई बारह जुलाई को होनी है। निस्संदेह, ये इलाके शिमला की जनता को प्राणवायु का संचरण करते हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले शिमला के फेफड़े कहा जा सकता है। पहले ही शिमला क्षमता से अधिक आबादी का बोझ झेल रहा है। बढ़ती आबादी के साथ ही लाखों पर्यटकों का दबाव अलग से है। पेयजल से लेकर पार्किंग जैसी तमाम समस्याएं सामने खड़ी हैं। निस्संदेह, ग्रीन बेल्ट पर निर्माण से शहर में कंक्रीट का एक ऐसा जंगल उग आएगा जो शहर का दम घोट सकता है। इसमें दो राय नहीं ग्रीन बेल्ट के बाबत इस फैसले से निर्माण गतिविधियों में अप्रत्याशित वृद्धि होगी। कहने को तो एक मंजिल तक निर्माण की अनुमति की बात कही जा रही है लेकिन कानून के छिद्रों को तलाशने वाले लोग निस्संदेह, इसका अतिक्रमण करेंगे। वहीं निहित स्वार्थों में लिप्त राजनीति इसके दूरगामी परिणामों को गंभीरता से लेने की कोशिश कभी नहीं करती। यदि सत्ताधीश दूरगामी खतरों को समय रहते भांप लेते तो शिमला के भविष्य से खिलवाड़ नहीं करते। लेकिन सत्ताधीशों की प्राथमिकता तात्कालिक हित ही होते हैं। उनकी कोशिश वर्ग विशेष को संतुष्ट करने की होती है।

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उल्लेखनीय है कि शिमला के पर्यावरण की रक्षा के मद्देनजर वर्ष दो हजार में इन ग्रीन बेल्टों को नो-कंस्ट्रक्शन जोन घोषित किया गया था। दरअसल, विशेषज्ञों और पर्यावरण प्रभावों के अध्ययन के निष्कर्षों का समर्थन करते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले तथा हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने तब से इस पर लगाये गये प्रतिबंध को बरकरार रखा था। इसमें दो राय नहीं कि राज्य में रियल एस्टेट लॉबी की इस फैसले को बदलवाने में बड़ी भूमिका रही है। वहीं दूसरी ओर इन ग्रीन बेल्टों में मुख्य संपत्ति के मालिकों ने इस मुद्दे को लंबे समय तक कानूनी लड़ाई में उलझाये रखा था। अफसोस की बात है कि एक के बाद एक आने वाली सरकारों का झुकाव रियल एस्टेट मालिकों की तरफ होता चला गया। निस्संदेह, रियल एस्टेट लॉबी की प्राथमिकता अपना आर्थिक हित ही होता है। उनकी प्राथमिकता शहर के अस्तित्व की परवाह करना कदापि नहीं हो सकता। दूसरा पहलू यह भी है कि भूमि मालिकों की मंशा भी इस कीमती जमीन से आर्थिक लाभ कमाना ही होगा। इस समस्या का एक सरल समाधान यह भी हो सकता था कि सरकार ग्रीन बेल्ट की जमीन को खरीद ले। सरकार यदि ईमानदार कोशिश करे तो इस समस्या का कारगर समाधान निकाल पाना संभव हो पायेगा। सरकार की किसी रचनात्मक पहल से ग्रीन बेल्ट का संरक्षण संभव है। जिससे आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को संरक्षित किया जा सकता है। निस्संदेह, आबादी के बोझ से दरकते देश के अन्य पहाड़ी शहरों की बदहाली से सत्ताधीशों को सबक लेना चाहिए। उत्तराखंड में जोशीमठ शहर के दरकने का ताजा उदाहरण हमारे सामने है। ग्लोबल वार्मिंग के दौर में पूरे देश के पर्यावरण की रक्षा के लिये हमारी वन संपदा व ग्रीन बेल्ट जैसे इलाकों का संरक्षण अपरिहार्य ही है। निस्संदेह, हरित पट्टी के बचाव की किसी अभिनव पहल से ही शिमला का पहाड़ों की रानी का प्रतिष्ठित दर्जा कायम रह सकेगा। हिमाचल सरकार को इस शहर के भविष्य के लिये अभिनव पहल करनी ही होगी।

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