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आखिर क्या हो पारदर्शी चंदे का विकल्प

06:31 AM Feb 17, 2024 IST

उमेश चतुर्वेदी

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पांच साल पहले जिस चुनावी बॉन्ड को चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने और चुनावों में कालाधन के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए लाया गया था, देश की सबसे बड़ी अदालत ने उसे अवैधानिक घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी है। दरअसल, चुनावी बॉन्ड के विरोधियों को उसे लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों को दान देने वाले लोगों के नाम का खुलासा नहीं हो रहा था। वैसे चुनावी बॉन्ड की अधिसूचना इसके लिए दानदाता को अपनी गोपनीयता की सहूलियत देती थी। चुनावी बॉन्ड को देने वाले का नाम सूचना के अधिकार के दायरे से भी बाहर था। ऐसे में आरोप लगता था कि चुनावी बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले राजनीतिक दल दरअसल बॉन्ड के रूप में रिश्वत दे रहे हैं और अपने कारोबारी या औद्योगिक हितों के लिहाज से बदले में सत्ताधारी दल से सहूलियती नीतियां बनवा रहे हैं।
गांधीजी ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आम लोगों से चंदा लेने की शुरुआत की। हालांकि, उस दौर में भी बिरला और बजाज जैसे औद्योगिक घराने कांग्रेस के बड़े दानदाता थे। लेकिन आम लोगों से चंदा लेने के पीछे भावना यह थी कि लोग इसके जरिए आंदोलन से तो जुड़ेंगे ही, उनका नैतिक दबाव आंदोलन कर रही कांग्रेस पर भी रहेगा। इसलिए वह लोकविरोधी फैसले नहीं ले पाएगी। आजादी के बाद भी राजनीतिक दल आम लोगों के जरिए ही धन जुटाते थे। लेकिन जैसे-जैसे भारत में औद्योगीकरण बढ़ता गया, औद्योगिक घराने भी चुनावी चंदा देने में आगे रहने लगे। निश्चित तौर पर इसका सबसे ज्यादा फायदा सत्ताधारी दलों को ही हुआ। एक दौर में कांग्रेस को सबसे ज्यादा चुनावी चंदा मिलता रहा।
कहा गया कि इसके जरिए सबसे ज्यादा दान भाजपा को मिला है। इसे आजादी के बाद से ही जारी परिपाटी का विस्तार कहा जा सकता है। ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ के मुताबिक विगत पांच वर्षों में चुनावी बॉन्ड के जरिए सबसे ज्यादा 6566 करोड़ का दान भाजपा को मिला है। दूसरे नंबर पर कांग्रेस है, जिसे एक हजार 123 करोड़ का दान मिला। तीसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस है, जिसे एक हजार 93 करोड़ की रकम मिली। वहीं 774 करोड़ रुपये बीजू जनता दल व डीएमके को 617 करोड़ मिले हैं। जाहिर है कि जिसके पास जितनी सत्ता है, उसी अनुपात में उसे चंदा मिला है।
निस्संदेह, चुनावी परिदृश्य में राजनीति शाहखर्ची का पेशा हो गया है। अकूत धन के बिना चुनाव लड़ना और राजनीतिक दल चलाना आसान नहीं है। शायद इसीलिए अब चुनावी प्रचार अभियान के लिए मीडिया ने कार्पोरेट बांबिंग का विशेषण दिया है। जाहिर है कि यह खर्च कारोबारी और औद्योगिक घरानों से ही आ सकता है। आम लोग से मिलने वाले के चंदे या दान से राजनीति करना आज के दौर में मुश्किल है। यही वजह है कि चुनावों में काले धन का इस्तेमाल बढ़ा। चुनाव आयोग की तमाम सख्ती के बावजूद अब भी चुनावों में काले धन का भरपूर इस्तेमाल होता है। जाहिर है कि जो चुनावी चंदा देगा, वह अपने हित की बात तो करेगा ही। चुनावी बॉन्ड को खारिज किए जाने के बाद गैर-भाजपा दलों ने भाजपा को कटघरे में खड़े करने की कोशिश जरूर की है। लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके हाथ पाक साफ हैं? सवाल यह भी है कि क्या वे अगर भाजपा की तरह प्रभावी होते और सत्ता में उनकी हनक होती तो क्या वे आम लोगों के चंदे के आधार पर ही अपनी राजनीति करते?
अक्सर चुनावों की फंडिंग में अवैध धन के इस्तेमाल का आरोप लगता रहा है। इसे ही ट्रांसपरेंट बनाने के लिए साल 2017 में मोदी सरकार ने चुनावी बॉन्ड जारी करने का फैसला किया था। लेकिन इस योजना को 14 सितंबर, 2017 को सुप्रीम कोर्ट में चुनाव सुधारों की दिशा में काम करने वाले संगठन ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस याचिका पर तीन अक्तूबर, 2017 को देश की सबसे बड़ी अदालत ने चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया। इसी दिन जया ठाकुर और सीपीआई एम ने भी इस याचिका में खुद को शामिल करने की अर्जी लगाई। इसी बीच 2 जनवरी, 2018 को केंद्र सरकार ने इस योजना को अधिसूचित करके लागू कर दिया। शुरू में बॉन्ड की बिक्री के लिए 70 दिनों की मियाद रखी गई थी। जिसे 7 नवंबर, 2022 को बढ़ाकर 85 दिन कर दिया गया। इस बीच 16 अक्तूबर, 2023 को मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने इस याचिका को पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सुनवाई के लिए भेजा। इसके पंद्रह दिन बाद पीठ ने याचिका की सुनवाई की। लगातार तीन दिनों की सुनवाई के बाद दो नवंबर, 2023 को पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया और 15 फरवरी, 2024 को अपना फैसला सुनाया। फैसले में चुनावी बॉन्ड को सर्वोच्च अदालत ने अवैधानिक घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी।
चुनाव आयोग ने कहा है कि इस योजना के जरिए राजनीति और धन के बीच सांठगांठ को बढ़ावा मिलता है। देखने की बात यह है कि आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस तरह जीवन के हर क्षेत्र पर पैसे का बोलबाला बढ़ा है, उसकी वजह से पैसे के राजनीतिक इस्तेमाल और राजनीति पर पैसे का प्रभाव जरूरी बुराई बन चुका है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों को देखिए। वहां ताकतवर उम्मीदवार वही माना जाता है, जिसे सबसे ज्यादा चंदा मिलता है। चंदा वहां आम वोटर और समर्थक भी देते हैं, लेकिन चंदे का बड़ा हिस्सा कार्पोरेट घराने ही देते हैं। जिसे ज्यादा पैसा मिलता है, उसे ही चुनावी दौड़ में आगे माना जाता है। इसके उलट इस प्रक्रिया को इस तरह भी समझ सकते हैं कि जो जीत रहा होता है, उसे ही सबसे ज्यादा दान मिलता है। चुनावी बॉन्ड पर सर्वोच्च न्यायालय भले ही रोक लगा दे, गैर-भाजपा दल भाजपा की चाहे जितनी भी आलोचना कर लें। लेकिन यह तय है कि चुनावी रण के खर्च के लिए अपने तईं पैसे जुटाने की कोई और राह जरूर चुन लेंगे।

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