आखिर हसीना कैसे शुमार हुई तानाशाहों में
ज्योति मल्होत्रा
सोमवार सायं को बांग्लादेश में भड़के अराजक आंदोलन के दौरान एक ‘प्रदर्शनकारी’ द्वारा बंगबंधु मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा पर हथोड़ा चलाने की तस्वीर सिहरन पैदा करने वाली था। हमें लगता है यह किसी आंदोलनकारी छात्र का काम नहीं हो सकता-कतई नहीं -भले ही वह बंगबंधु की बेटी से कितना भी नाराज़ क्यों न हो। यहां तक कि अगर शेख हसीना उस वक्त भी चुप रहीं, जब पिछले कुछ हफ्तों से चल रहे आंदोलन में ‘देखते ही गोली मार दो’ आदेश के बाद सुरक्षा बलों के हाथों 300 से अधिक मारे गए और यह हुक्म और किसी ने नहीं बल्कि उनकी आवामी लीग पार्टी के महासचिव ओबेदुल कादर ने दिया था। यदि बंगबंधु जीवित होते तो वे भी इन वैचारिक तौर पर विकृत लोगों का निशाना बन जाते, जिन्हें 1971 में बांग्लादेश को आज़ाद करवाने के लिए हुए लासानी युद्ध के बारे में तो बहुत कम या ज़रा इल्म नहीं है।
वे बांग्लादेश के उस राष्ट्रपिता की पुत्री हैं जो कभी गलत नहीं कर सकते थे, शेख हसीना तो लोकतंत्र की बेटी हैं, जो 15 अगस्त 1975 की मनहूस रात को हुए नरसंहार से बच गई थीं –जब उनके बाकी परिवार को विद्रोहियों द्वारा क्रूरता से खत्म कर दिया गया– सिर्फ इसलिए कि क्योंकि वे और उनकी बहन रेहाना, उस दिन धानमोंडी के पुश्तैनी घर में मौजूद नहीं थीं। आज हसीना को उन तानाशाहों की जमात में रखा जा रहा है जो अपनों का खून बहाने से पहले जरा नहीं सोचते, क्योंकि उन्हें यही करना पड़ता है, अपना बचाव सर्वप्रथम जो होता है।
पर यह सब हो गुजरने की नौबत बनी कैसे? शेख हसीना कैसे ओबेदुल कादर को अनुमति दे सकती हैं कि जो कोई प्रदर्शन करने की जुर्रत करे, उसे मार डाला जाए? स्पष्टतः 1971 की क्रांति खुद को दोहरा रही है। यह अपने संतान खुद खाने जैसा है। बताया जा रहा है, ढाका में दो हफ्ते पहले हुई अभागी पत्रकार वार्ता में कादर ने कहा कि यदि छात्र अपना आंदोलन बंद कर घर वापसी नहीं करते तो ‘इन्हें सीधा करने’ को अपनी आवामी लीग के कार्यकर्ताओं को हुक्म देना पड़ेगा। तो क्या इसका मतलब है कि शेख हसीना की पार्टी वालों ने ढाका और चटगांव में प्रदर्शनकारी निर्दोष विद्यार्थियों पर गोलियां चलाईं? यह अभी जांच का विषय है। लेकिन यूनिसेफ ने कहा है कि जुलाई माह के आंदोलन में कम से कम 32 छात्र मारे गए हैं।
यह कैसे हो सकता है कि शेख हसीना जिन्हें अपना पूरा परिवार नरसंहार में गंवाया हो और उसके बाद दिल्ली के पंडारा रोड के एक घर में अपनी बहन रेहाना और किशोर भाई रसेल के साथ बतौर राजनीतिक शरणार्थी रहना पड़ा, और इस दौरान उनके प्रिय बांग्लादेश में पाकिस्तान परस्त ताकतें सत्तासीन हो गईं– क्योंकर उन्होंने खुद को इतना बिखरने दिया कि उन्हीं तानाशाहों का प्रतिबिम्ब बन गईं, जिनसे कभी नफरत थी?
अब जबकि उन्हें दिल्ली के पास हिंडन वायुसेना अड्डे पर या उसके पास ‘भारतीय सेफ हाउस’ में रहना पड़ रहा है और केवल एक घंटे की दूरी पर, दिल्ली में रह रही और विश्व स्वास्थ्य संगठन में नौकरी कर रही अपनी बेटी साइमा वाज़ेद से मिलने तक की अनुमति नहीं है, तो शायद वे कुछ समय निकालकर अपने भीतर झांकेगी कि कैसे और क्यों उन्होंने इस मनहूस स्थिति को बनने दिया।
जनवरी माह में, जब विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) द्वारा दूसरी बार भी आम चुनाव का बहिष्कार किए जाने के बाद, शेख हसीना ने इस निर्णय पर हेकड़ी पूर्ण रुख अख्तियार करते हुए, बीएनपी के बड़े नेताओं को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया, यह एक तरह से उनके चेहरे पर थूकने जैसा था। भले ही ये दो महिलाएं, शेख हसीना और पिछले सालों से अस्वस्थ चल रही बीएनपी प्रमुख खालिदा ज़िया, एक-दूजे को सख्त नापसंद करती हों, किंतु लोकतंत्र के पहले नियम का तकाज़ा है कि चाहे आप किसी विपक्षी नेता से कितनी भी दिली नफरत क्यों न करते हों, फिर भी उसे अपनी बात कहने का मौका तो देना ही पड़ेगा।
लेकिन हसीना अड़ी रहीं – और भारत सरकार के पास उनकी दलीलों को मानने के सिवा कोई चारा नहीं रहा– लेकिन यदि भारत उनके अधिनायकवादी तौर-तरीकों से चुनाव के जरिये सत्ता में वापसी का समर्थन न करता रहता तो बंगाल की खाड़ी उन मगरमच्छों का आशियाना बन जाती, जिनका प्रशिक्षण और पोषण पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान करता आया है। विडंबना है कि वह आकलन भी एकदम सच था। इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी सहित अपने से पहले के प्रधानमंत्रियों की भांति नरेंद्र मोदी को भी अहसास रहा कि भारत के पास शेख हसीना का समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। जब 2001 से 2006 के बीच बीएनपी सत्ता में रही, तब न केवल भारत के उत्तर-पूर्वी इलाके को गहरी उथल-पुथल में धकेला गया बल्कि पाकिस्तान परस्त तत्वों ने चटगांव बंदरगाह से होकर बांग्लादेश में आधुनिक हथियारों की खेपों की खेपें उतारीं।
यह एकदम सच है कि शेख हसीना की ढाका में वापसी भारत के लिए एक बड़ा वरदान रही। केवल 1971 के नाते से नहीं–यह सरगर्मी आरंभ से रही, जब विशेष रिश्ता कायम हुआ, जो न केवल मुक्ति बाहिनी और भारतीय सेना के बीच था बल्कि दोनों मुल्कों के नागरिकों के मध्य भी – और ये संबंध शेख हसीना के पिछले 15 सालों के प्रधानमंत्रित्व काल में भी बने रहे।
भारत और शेख हसीना के नेतृत्व वाले बांग्लादेश के मध्य राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में एक बिल्कुल नई किस्म की साझेदारी बनी, जो बाकी दक्षिण एशिया के लिए आदर्श उदाहरण बनी। सड़क, रेलवे, पारगमन का अधिकार, आम नागरिकों को आने-जाने की अनुमति, रक्षा क्षेत्र में मदद, जो कोई भी नाम लें, उस क्षेत्र में भारत-बांग्लादेश की जुगलबंदी कायम रही।
तब फिर ऐसा क्या हुआ? सोमवार को ढाका में बांग्लादेशी आंदोलनकारी द्वारा शेख मुजीब की मूर्ति के सिर को हथौड़े से तोड़ने और देशभर में हिंदू परिवारों पर हुए हमले साफ दिखाते हैं कि पर्दे के पीछे से कोई ताकतें यह सब करवा रही हैं। सबसे बड़ा शक पाकिस्तान परस्त जमात-ए-इस्लामी संगठन पर है। वे लौट आए हैं। बांग्लादेश में इतिहास कभी भी वास्तव में इतिहास नहीं रहा। अब पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान के लिए बंगाल की खाड़ी में ‘खेला’ करने के लिए यह परिस्थिति जन्य मौका है।
यह भी उतना ही सच है कि शेख हसीना के सिवाय एक भी ऐसा नहीं है जिसके पास जमात-ए-इस्लामी और इसके राजनीतिक मुखौटे बीएनपी से मुकाबला करने का माद्दा हो। लेकिन हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा। अब जबकि हिंडन वायुसेना अड्डे पर वे ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय द्वारा राजनीतिक शरण की अनुरोध स्वीकार करने की बाट जोह रही हैं, शायद लंदन से अनुमति आने तक उनके लिए ढाका में बने रहना सुरक्षित न होता। अवश्य ही उन्होंने भारत से अस्थाई पनाह देने की गुहार लगाई होगी। उन्हें आने देकर मोदी सरकार ने सही किया है। और दोस्त होते किसलिए हैं– भले ही अगला गलत क्यों न हो।
लेखिका द ट्रिब्यून की प्रधान संपादक हैं।