अफगानिस्तान : अंधेरे की कैद में उजाले
नासिरा शर्मा
अफगानिस्तान को एक आधुनिक देश नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वह कबीलों में बंटा है जहां हर कबीले के अपने नियम और रीति-रिवाज हैं जो गरीबी और भौगोलिक रूप से पहाड़ों पर कुछ-कुछ दूरी पर आबादी रखता है और राजधानी काबुल व अन्य बड़े शहरों से कटा हुआ है। कुछ क़बीले बेहद दौलतमन्द व शक्तिशाली हैं जिन पर काबुल सरकार के कानून और नियमों का कोई असर नहीं पड़ता है। उनकी औरतें अपने कबीले के दस्तूर की तरह ज़िन्दगी गुजारती हैं। औरतें हुनरमन्द और मेहनती हैं। उनके हाथों से बुने नमदे व कालीन उनके शौहर बेचकर पैसा अपनी जेब में रखते हैं। अन्य मुस्लिम देशों की तरह यहां भी दहेज देने की कोई रस्म लड़की वालों पर नहीं, बल्कि लड़का या उसके परिवार वाले शादी का खर्च उठाते हैं और लड़की को आराम से रखने की अपनी हैसियत भी बताते हैं। यह रस्म कबीलों में जानवरों के रूप में लड़के के बाप को अदा करनी पड़ती है या फिर नकद रुपयों के रूप मे यानी कि यहां लड़का नहीं खरीदा जाता, बल्कि लड़की खरीदी जाती है या कहें कि मां-बाप को, बेटी के पालन-पोषण का खर्चा अदा किया जाता है इसलिए वहां लड़कियां बोझ नहीं समझी जाती हैं। दूसरी अहम बात शादी के बाजार में जवान लड़कियों की जगह बड़ी उम्र की लड़कियों की कीमत ज्यादा अदा करनी पड़ती है क्योंकि यह घरेलू काम में दक्ष होती हैं और हुनरमन्द भी होती हैं। यह बातें आज के दौर में स्वीकार नहीं की जा सकती हैं, मगर उनके अपने रहन-सहन का तरीका यही है जिसमें वह अपने को सुरक्षित महसूस करते हैं। जहां इन कबीलों का बखेरा है वह इस तरह की पहाड़ियां हैं। जहां आधुनिक एवं वैज्ञानिक सुविधाएं नहीं पहुंचाई जा सकती हैं। जो एक-दो कबीले हर दृष्टि से शक्तिशाली हैं वह बेहतर स्थिति में हैं।
दायरे, बंदिशें और उथल-पुथल
अब अगर हम समतल जगहों पर बसे शहरों की जिन्दगी देखते हैं तो महसूस होगा उनको शिक्षा, नौकरी करने की सुविधाएं तो हैं, परन्तु उनको अपने से बाहर जाकर शादी करने की इजाजत नहीं है। जिसने अपने समाज अौर धर्म से बाहर निकल कर शादी की तो उसे न परिवार और न ही अफगान समाज ने कुबूल किया। यदि किसी अफगान ने अपने ही देश में अल्पसंख्यक से विवाह किया जैसे हजारा, ताजिक, उज़बेक से तो उस लड़की को पत्नी के रूप में कभी भी वह दर्जा प्राप्त नहीं हो पाएगा जो अफगान पत्नी को परिवार देता है। अफगानिस्तान में जैसी सरकार आई और हुकमरान के विचार कैसे हैं उस हिसाब से औरतों को रहना पड़ता आैर परिवार वालों के तौर-तरीकों को लड़की को अपनाना पड़ता है। इसी के साथ उसे शौहर से अलग अपनी राय या कोई भी कदम नहीं रखना है। यह सब उसूल हैं या पाबन्दियां, यह स्त्री के मिजाज़ पर निर्भर करता है।
1964 में ज़ाहिर शाह का ‘नयी आज़ादी’ वाला संविधान, जिसमें सरकार और बादशाहत को अलग करने के अलावा कई महत्वपूर्ण बदलाव रखे गए थे वह लोकप्रिय नहीं हो पाया। रूढ़िवादी सदस्यों की भरमार के कारण प्रभावहीन होकर रह गया। वर्ष 1959 में जाहिर शाह की इच्छा के अनुसार उनकी मलिका ने ‘पर्दे’ के विरोध में प्रदर्शन किया और महिला अधिकार के जरिए उनमें जागृति लाने का प्रयास किया। उस दौर में औरतों व लड़कियों को आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिला। इससे पहले अमानउल्लाह खान ने अफगानिस्तान को आधुनिक और शक्तिशाली बनाने के अपने सपने को व्यावहारिक रूप दिया था। मगर कबीलों के सरदारों और जमींदारों ने अपने अधिकारों को कम होने के भय से इस नये संविधान के नियमों को एक हद तक ही माना। वर्ष 1924 में उनके खिलाफ बगावत हो गई। अमानउल्लाह और उनकी पत्नी स्त्री शिक्षा के पक्ष में थीं और कुछ लड़कियों को शिक्षा के लिए तुर्की भेजा मगर संकीर्ण सोच वालों ने उनकी इन सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया कि यह सारे कदम इस्लाम के खिलाफ हैं। 19 जनवरी, 1929 को अमानउल्लाह सत्ता से हटा दिए गए और बच्चा-ए-सक्का सत्ता में आ गए। बाहर पढ़ने भेजी गयीं लड़कियों को वापस बुला लिया गया। एक बार फिर अवाम खासतौर से लड़कियां पूरी चांद रात की जगह अमावस्या भरे भविष्य की तरफ धकेल दी गईं।
इन्हें सलाम…
अगर हम औरतों को शुमार करें जो इन बदलते परिदृश्य में भी अपने को शिक्षित कर पाईं अौर अपने सामाजिक कायदे कानून में भी बड़े-बड़ेे अोहदे पर पहुंचीं उनकी संख्या बहुत कम रही। साहित्य में शायरी के क्षेत्र में उन्होंने अपनी सृजनात्मकता के झंडे गाड़े, जिनमें से कुछ नाम यहां दर्ज कर रही हूं—राबिया बल्खी, मेहरुन्निसा, आयशा अफगान मस्तूरे गौरी, राबे असीर, मखफी बदख्शी, महजूबा सफोरा, मस्तूरह-ए-अफगान, शरीफा दानिश, लैला कावियान, लैला सराहत, हुमैश नकहत, दस्तगीरज़ाद, हाजके वगैरह। नयी और पुरानी शायराओं की ज़िन्दगी के बारे में जब मैंने पढ़ा तो एक दिलचस्प हकीकत से टकराई कि इन सभी के पिताओं ने इन्हें पढ़ाने और प्रोत्साहन देने में कोई कमी नहीं की। मगर इनके भाइयों और शौहरों ने ज़रूर इन पर अंकुश लगाए। राबिया बल्खी जो फारसी शायरी का एक बड़ा नाम है, जिनके पिता ने उन्हें तालीम दी, मगर उनके मरने के बाद बहन के आशिकाना शेरों को पढ़ कर भाई ने राबिया को गर्म हमामखाने में उसकी कलाई की नब्ज काट कर बंद करवा दिया। जहां वह अपने खून से दीवारों पर शेर लिखती रही :-
इश्क का समन्दर, जिसका किनारा ओझल
कौन तैरेगा इसमें, अो अकलमन्द।
लेकिन समय के साथ यह सख्तियां कम भी हुईं और कवियों में शताब्दियों बाद औरत पर लगे अंकुश के खिलाफ आवाज उठा कर उनका साथ दिया जैसे बारिक शफी की नज़्म ‘बे पर्दा जलवाकुन’ जिसका अर्थ है बिना अपने को छुपाए पर्दे के बिना सामने आअो—
बेपर्दा नज़र आअो
मेरी अज़ीज़ बहन!
आर्यों की बेटी!
मैं खुल कर साफ-साफ शब्दों में कहता हूं
तुम फूल नहीं हो जिसे मैं अकेला सूंघूं
ए राबिया की आंखों का तारा!
ए यमा की बेटी!
यह बड़ी दुनिया
चंद तंग नज़रों की तरह घुटी और सियाह नहीं है।
ज़िंदगी का सहरा, तारों की तरह रौशन है
इस अंजुमन में जो तुम्हारी है
आओ और अपना मुक़ाम हासिल करो!
एक दुख्तरे होशमंद!
बानों नेक नामी
तुम एक कीमती मोती हो
आदमी की औलाद की शकल में!
मर्दों की तरह सरतानों इस बेहूदा जंग में
और नैतिकता का परचम लहराओ!
तुम्हारी अज़मत और अक्लमंदी को मेरा सलाम!
औरतों का गद्य में आगमन देर में हुआ या कहें इस तरह पुरुष लेखों का ध्यान भी बाद में आया। इस समय लेखिका निदा हाशमी, फैज़िया करीमी, हुमरा क़ादरी, फौज़िया कोफी अतिया अवावई, फरीबा मवा, सायरा शाह का नाम लिया जा सकता है। पीडीपी के आने के बाद किताबों का छपना शुरू हुआ मगर वह छपकर सोवियत लैंड (रूस) से आती थीं। अफगानिस्तान में कोई छापाखाना नहीं था। उपन्यास लिखा ही नहीं गया था। अफगानिस्तान लम्बे समय तक मुजाहिदीनों और सोवियत फौजों के बीच जंग में फंसा रहा। उनके जाने के बाद मुजाहिदीन फिर तालिबान के जुल्मो-सितम व अापसी मुठभेड़ों में फंसा रहा। औरतों के काम करने पर मनाही लग गई और बदतरीन दौर से अफगानिस्तान गुजरा। बहुत बड़े पैमाने पर अफगानी शरणार्थी बने।
भटकने में ही खप गयीं कई पीढ़ियां
वैसे तो अफगान पहाड़ों से उतर कर पूरा जाड़ा पाकिस्तान में गुजारते थे और अपनी दस्तकारी के सामान को बेचते और मजदूरी करते थे फिर गर्मी आते ही अफगानिस्तान लौट जाते थे। भारतवर्ष में भी वह सूखे मेवे, हींग, काला जीरा इत्यादि बेचते थे और वापस चले जाते थे, मगर सोवियत फौजों के जाने के बाद यह दहशत में भागे और पाकिस्तानी शरणार्थी कैम्पों में रहे। भारत जाने वाले अधिकतर लोग मध्यवर्गीय और उच्च वर्ग से थे जो कनाडा अौर अमेरिका जाने की कोशिश में लगे रहे। मैंने पाकिस्तान के शरणार्थी कैम्प भी देखे और लाहौर और कराची में अफगानों की दुर्दशा भी देखी, जिससे स्वयं पाकिस्तान का आम इंसान परेशान था।
इस सूचना को यहां देना इसलिए जरूरी था कि किस तरह अफगानों का अपना रहन-सहन बदला उससे औरतों पर बहुत बुरा असर पड़ा। उनके जीने का अंदाज़, रीति-रिवाज, विश्वास और मान्यताएं स्थानीय लोगों के साथ रहने से बदलने लगीं। यही बच्चे जो साथ गए ये बड़े हुए और तालिबान बने। कुछ मध्यवर्गीय लड़के-लड़कियों ने अपने समाज से हट कर शादियां भी कीं और उन्हीं देशों में रच-बस गए। दिल्ली के निजामउद्दीन कब्रिस्तान में अफगानों की तीन पीढ़ियां दफन हैं। लेकिन जो अफगान पिछले दस-पन्द्रह वर्ष से यहां रह रहे हैं उन्हें भारत सरकार ने वीजा अभी नहीं दिया, जिन्हें दिया है, उन्हें वर्षों बाद दिया। अफगान कौम भटक और बिखर चुकी है। जिन्होंने बाहर रह कर भी अापस में शादी की है उनके घर में अफगान संस्कृति का ही बोलबाला है। खान-पान, रहन-सहन, भाषा-बोली इत्यादि। पर्दे में अफगान औरतें पहले भी नज़र नहीं अाती थीं, विदेश में भी वह उसी तरह रहती हैं, मगर जब-जब जड़वादी लोगों का सत्ता में आना हुआ, औरतों की स्वतंत्रता पर पाबन्दी लगी। पूरे बीस वर्ष अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजें रहीं और इस बीच अफगानिस्तान में स्थिरता आई और औरतों का सहयोग जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ा। राजनीति में 27 महिलाओं का संसद सदस्य के रूप में रहना प्रशंसा की बात है। टीवी, रेडियो, विश्वविद्यालय व कॉलेज, संगीत, साहित्य और कला में भी औरतों ने अपने गुणों का प्रदर्शन किया। अफगानिस्तान में स्थिरता आई। भारत व अन्य कई देशों ने अफगानिस्तान के विकास में अपनी पूंजी लगाई और कई बेहतरीन योजनाएं शुरू की थीं। शिक्षा के साथ अफगान महिलाओं में विश्वास आया।
ऐसी उम्मीद तो न थी…
यह तो तय था कि एक दिन अमेरिकी फौजों को वापस जाना है, मगर किसी को यह इंतजार नहीं था कि अचानक तालिबान अफगानिस्तान में दाखिल होकर कई शहरों पर कब्जा कर लेंगे और अमेरिकी फौजों को 31 अगस्त तक देश खाली करने और पंजशीर घाटी पर कब्ज़ा करने के लिए गोला-बारूद का इस्तेमाल करेंगे। अल कायदा ने भी अपनी दखलअंदाजी शुरू कर दी है। काबुल हवाई अड्डे पर सात व अन्य स्थानों पर भी बम फोड़े गए, जिसमें अमेरिकी फौजी और अफगान लोग आहत हुए और बड़ी संख्या में मरे। औरतों का हौसला टूट गया। खासकर उनका जो गनी सरकार में हर क्षेत्र में अपने पैर जमा चुकी थीं उनको वहां से भागना पड़ा। कहने को तो तालिबान के प्रवक्ता यह बात कह रहे हैं कि हम न किसी से बदला लेंगे और न ही औरतों को काम करने से रोकेंगे। उन्होंने कामकाजी अौरतों को घर जाने को जरूर कहा है। इसके दो अर्थ हैं कि वह अपने पैर जमाने के बाद औरतों को अपने हिसाब से काम करने की इजाजत दें या दूसरा यह कि इस बीच किसी भी तरह की हिंसक मुठभेड़ों से औरतें सुरक्षित रहें। वह देश छोड़ने पर रोक लगा रहे हैं, शायद इस ख्याल से कि हम आप का ध्यान रखेंगे। कुछ दिन धैर्य रखें। परंतु उनके पहले अनुभव से आतंकित अफगान उनकी बातों पर यकीन नहीं कर रहे हैं। औरतें तो बिल्कुल नहीं क्योंकि समस्या खर्च चलाने की भी है। अफगान फौजों ने तालिबानों से भिड़ने से इनकार कर दिया। राष्ट्रपति गनी खून-खराबे से बचने के लिए पहले ही अफगानिस्तान छोड़ चुके हैं। ब्रिटेन के कहने पर अमेरिका ने अफगानिस्तान में कुछ दिन और फौजें रखने का इरादा किया और जी-7 की मीटिंग में तालिबानों की अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष पर रोक लगा दी है। इन सारी कोशिशों के बीच एक मोर्चा वजूद में आ रहा है और न चाहने पर भी अफगानिस्तान एक बार फिर युद्ध में फंस सकता है। इन सारी बारीकियों का ध्यान अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन को पहले से रखना चाहिए था कि बीस वर्ष एक व्यवस्था स्थापित करके अचानक वहां से उखड़ना उचित कैसे ठहराया जा सकता है, जबकि तालिबानों को पहले एक बार आजमाया जा चुका है और अन्य देशों के बेजा हस्तक्षेप भी स्थिति को बिगाड़ चुके हैं। भारतवर्ष का अफगानिस्तान से बहुत पुराना रिश्ता है जो ऐतिहासिक, साहित्यिक, आर्थिक रह चुका है। आज भी कन्धार का अनार कलकत्ता के मन्दिर के लिए जाता है और भारत के बाज़ार में उनके सूखे मेवे व फल बरसों से आते रहे हैं। देहरादून में उगाया बासमती चावल जाहिरशाह की देन है। हमारे कई सांस्कृतिक अनुबंध उनके साथ हैं। हर वर्ष उनके रोगी इलाज के लिए आते हैं और विद्यार्थी पढ़ने के लिए। अफगान भारत की धरती से प्यार करते हैं और उन्हें अपना चचाज़ाद भाई कहते हैं। इस समय विश्व के सभी देशों को सुलह एवं संवाद से अफगानिस्तान को किसी भी प्रकार के संकट से निकालना जरूरी है। खासकर वहां की महिलाओं को ताकि अमावस्या की रात लम्बी न हो जाए।