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वसुधैव-कुटुम्बकम‍् की पैराेकारी

08:08 AM Dec 17, 2023 IST
पुस्तक : सपनों की परवाज़ शायर : रिसाल जांगड़ा प्रकाशक : कुरुक्षेत्र प्रेस, कुरुक्षेत्र पृष्ठ : 88 मूल्य : रु. 150.

सुशील ‘हसरत’नरेलवी

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ग़ज़ल संग्रह ‘सपनों की परवाज़’ शायर रिसाल जांगड़ा की सातवीं पुस्तक है, जिसमें 67 ग़ज़लियात का समावेश है। इन ग़ज़लों में प्रकृति के विभिन्न रंग, रिश्तों की महक तो टकराहट, इंसानी फि़तरत के अलग-अलग अंदाज़, दार्शनिकता का पुट, जीवन की धूप-छांव, मुहब्बत, तिज़ारत, दर्दे-दिल की दास्तान, वफ़ा ओ’बेवफ़ाई का बदलता मिज़ाज, अपनों की घात, सियासत के दांव-पेंच, चाहत की अठखेलियां, सकारात्मक चिन्तन हैं तो वहीं चन्द ग़ज़लियात आध्यात्मिक चोला भी ओढ़े हुए हैं। इक ग़ज़ल का मतला मुलाहिजा कीजिए :- ‘अपने-अपने हठ पर जब सब अड़े रहे/ नाज़ुक मसले अनसुलझे ही पड़े रहे।’
नफ़रतों को नकार मुहब्बत की लौ रौशन करने का भी जज़्बा लिए हैं ‘रिसाल’ की चन्द ग़ज़लें, जो कि फिऱक़ापरस्ती तो खुदगर्ज़ फि़तरत के आकाओं की खैर-खबर लेती हैं। अश्आर :- ‘लुत्फ़ उठाते फिर सैलानी कैसे नीली झीलों का/ उग्रवाद की आंधी में जब नया शिकारा टूट गया।’ ‘तिल का ताड़ बनाने वाले बहुत मिलेंगे/ मुद्दों को उलझाने वाले बहुत मिलेंगे।’
ग़ज़लों में सम्प्रेषित भाव, आदर्शवाद, नसीहत तो समाज को आईना भी दिखलाते हैं :- ‘निकट चिता के लोग खड़े हैं मरघट में पर/ चलती घर की और नफ़ा-नुक़सान की बातें।’ ‘जो थे आग बुझाने वाले/ निकले आग लगाने वाले।’
‘रिसाल’ की ग़ज़लियात के कथ्य में रिश्तों की टूटन, चुभन, कुढ़न का विश्लेषण है; हौसलों की बात है; खोखली व्यवस्था एवं भ्रष्ट-तंत्र पर लेखनी कटाक्ष करते हुए ग़ैर-जि़म्मेदारान हरक़तों को आईना दिखलाती हैं; महबूब की बेवफ़ाई, रिश्तों की खट्टी-मीठी नोक-झोंक है; गिरते नैतिक मूल्यों एवं कुंठित होती मानसिकता पर तंज़ है; ग़म में सुकून है; जि़न्दगी अठखेलियां करती है; भारतीयता, संस्कार, सौहार्द एवं वसुधैव-कुटुम्बकम‍् की पैराेकारी के अहसास करवट लेते हैं। उदाहरणार्थ :-
‘सम्बन्धों के शीशे यकायक चटक रहे हैं/ इक-दूजे की आंखों में हम खटक रहे हैं।’ ‘कितनी सरकारें ज़ोर आज़मा गईं/ मुफ़लिसों का मुकद्दर चमका नहीं है।’ ‘मेरी प्यास बुझाने आया/ वो छलनी में पानी लाया।’
‘रिसाल’ की ग़ज़लों का कलापक्ष मशक्कत का तलबगार है। शैली ग़ज़ल के अनुरूप तो सहज, सरल भाषा रवानगी लिये है।

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