पारदर्शी व्यवस्था में सुशासन की जवाबदेही
गुरबचन जगत
‘हम भारत के लोग…’ ये वे शब्द हैं, जो कभी हमारे राष्ट्र के संस्थापकों ने देश का संविधान बनाते समय कहे थे– समय है इन्हें याद करने का। हमारे संविधान में जिस भावना के तहत लोकतांत्रिक सरकार की व्यवस्था की गई है, यह वक्त है उसकी पुनर्स्थापना का, न कि उस पतन को ढोने का, जो आज व्याप्त है। यह समय है कर्णधारों से पूछने का ः ‘तुमने क्या किया? और आगे मतदाताओं (ग्राम, ज़िला, राज्य या राष्ट्रीय) के लिए क्या करना चाहते हो?’ यह कमजोर लोगों की निशानी है कि कोई ‘मजबूत’ नेता हांक ले जाए, जबकि ‘तगड़े’ लोग चुने जनप्रतिनिधियों से सीधा ठोस नतीजे देने को कहते हैं। ऐसे लोगों को किसी नेता को महामानव की तरह पेश करने वाले जनसूचना प्रचारों से भरमाया नहीं जा सकता। न ही वह लालच एवं दुर्भावना से संचालित संस्थाओं द्वारा फूट डालने और गुमराह करने वाले दुष्प्रचार में बहती है। हमारी तरह के लोकतंत्र में नागरिकों से अपेक्षित है कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र में काम कर दिखाने वाले सर्वश्रेष्ठ जनप्रतिनिधि को चुनेंगे (चाहे यह विधायक हो या सांसद या एक सरपंच)। ऐसा करते वक्त वे मानस पर किसी वंशवादी नेता या खुद को सर्वक्षमताशाली होने का प्रपंच रचने वाले को हावी न होने दें – चुनाव लड़ने वाले कोई आसमान से उतरे हुए नहीं बल्कि आम इनसान होते हैं, वे भी कमजोरियों, खामियों, स्वशंका और असुरक्षा से परिपूर्ण होते हैं। हमें जरूरत है ऐसे स्थानीय उम्मीदवार चुनने की, जिनके अंदर हम बतौर एक नागरिक अच्छा नेतृत्व, दूरदृष्टि, गहन सहृदयता एवं मानवता वाले गुण पाएं।
वोट देते समय मैं स्वयं विभिन्न दलों द्वारा जारी घोषणापत्रों को पूरी तरह नहीं पढ़ पाता, इसके पीछे सीधी वजह है, उनका बहुत लंबा, उबाऊ, दोहराव भरा होना। और अनुभव बताता है कि उनमें किए वादे शायद ही पूरे किए जाते हैं। कोई भी गौर कर सकता है कि अधिकांश मतदाता महत्वपूर्ण मुद्दों पर असल ध्यान केंद्रित करने की बजाय जाति-पाति, धर्म, क्षेत्रवाद, मतदान की पूर्व संध्या को पेश किए लालचों में फंसकर अपना मन बना लेता है। मतदाता को पूरी तरह यह तक समझ नहीं है कि वह खुद सरकार से क्या अपेक्षा रखे। यह परिणाम है लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों की असफलता का, मसलन, मीडिया-न्यायपालिका और चुनावी मामलों में राजनीतिक दलों एवं चुनाव आयोग की विफलता का। कहां तो आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से वर्जित किया जाना चाहिए, कहां धन और बाहुबल युक्त ऐसे तत्वों की बहुत पूछ होती है क्योंकि चुनावी जीत सुनिश्चित करने में इन अवयवों को प्रमुख माना जाता है। यह अपराधी-राजनीतिक-स्मगलर-पुलिस और समूचे न्यायिक तंत्र से बना गठजोड़ है, जो इतने बड़े स्तर पर ऐसे लोगों को मतदाता को धमकाने, जबरदस्ती करने और लालच देने की छूट देता है। ऐसे व्यक्ति मतदाताओं को जाति एवं धर्म के आधार पर बरगलाने में झूठ और फरेब फैलाने में माहिर होते हैं। तभी चुनावों से पहले हमें अक्सर जातीय या सांप्रदायिक नफरत उभारने वाली घटनाएं देखने को मिलती हैं। आम लोग इन प्रसंगों से बने माहौल के झांसे में आ भी जाते हैं क्योंकि इनका पर्दाफाश करने जो प्रतिवाद मीडिया अथवा सोशल मीडिया पर आना चाहिए, वह या तो बहुत कमजोर होता है अथवा नगण्य। इसलिए समाज के बहुत बड़े तबके में राजनेताओं और राजनीति के प्रति बनी वितृष्णा से व्यवस्था से पूरी तरह मोहभंग होने की स्थिति बन गई है। यहां तक कि चुनाव उपरांत, संसद, जो कि लोकतंत्र का ढांचा है, उसका रूप धीरे-धीरे ऐसे स्वांग में तबदील कर दिया गया है कि प्रस्तुत नये कानून ज्यादातर बिना यथेष्ठ बहस करवाए, केवल ध्वनि मत के जरिए स्वीकार एवं लागू करवा लिए जाते हैं। जबकि संसद ऐसा संस्थान है, जहां पेश किए जाने वाले नये कानून समुचित बहस के बाद स्वीकार-लागू होते हैं, नयी नीतियों का आगाज़ और बजट यहीं पास किए जाते हैं। यहां राष्ट्रीय महत्व के तमाम मुद्दे एवं विषय उठाए जाते हैं और उन पर मंथन होता है। किंतु जिस तरह जानबूझकर इस लोकतांत्रिक संस्थान में भारी बहुमत के बल पर छिपी मंशा वाले कानूनों को पास करवाया जा रहा है, वह निंदनीय है। क्या संसद की मौजूदा स्थिति भविष्य की इबारत है या फिर यह परिपाटी बनने जा रही है? यह वक्त ही बताएगा।
प्रत्येक राजनीतिक दल, चाहे क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय, वह ‘सुशासन’ या फिर ‘न्यूनतम प्रशासनिक नियंत्रण… अधिकतम प्रशासन’ देने का वादा करता है। लेकिन किसी को याद है वास्तविक रूप में पिछली मर्तबा कब ‘सुशासन’ वाला काल देखने को मिला था? वह स्तर जिस पर ज्यादातर नागरिकों का राबता सरकार से पड़ता है, वे हैं-पुलिस, कराधान, विकास कार्य, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि। सुशासन की नीव की शुरुआत मुख्यमंत्री, मंत्री, अधिकारियों द्वारा वास्तविक धरातल पर जनता, मतदान क्षेत्र और विकास कार्यों से सीधा नाता रखकर और भागीदारी बनाने से होती है। जिस एक अन्य तरीके से इसे किया जा सकता है, वह है, सघन दौरे। आंखों देखे हालात आपको बृहद आयाम प्रदान करते हैं और कार्य में तेजी लाते हैं। इन दिनों अफसर दौरों पर नहीं जाते, मंत्री तो केवल उद्घाटन या शादी या शोकसभा (भोग) में शामिल होने के लिए नमूदार होते हैं।
सुशासन बनाने में एक अन्य अवयव है अधिकारियों की नियुक्तियां एवं स्थानांतरण। लेकिन इस व्यवस्था को भी पूरी तरह तोड़-मरोड़ दिया गया है, सही क्रियान्वयन और न्यायोचित व्यवस्था वजूद में न होने का नतीजा है इलाकोंं में भ्रष्ट, नकारा अफसरों की नियुक्तियां। सूबे में वरिष्ठ पदों पर यानी जिलाधीश और पुलिस कप्तान यदि सही अफसर लगाए जाएं तो हालात में त्वरित सुधार आता है। इसी तरह केंद्र सरकार में प्रतिष्ठित पद जैसे कि सीबीआई और एनआईए के निदेशक, महालेखाकार, महत्वपूर्ण मंत्रालयों के सचिव, प्रवर्तन निदेशालय, कस्टम एंड एक्साइज़, आयकर विभाग में ऊंचे ओहदे इत्यादि का उत्तरोतर राजनीतिकरण हो रहा है। जबकि इनकी और कनिष्ठ अफसरों नियुक्तियों के लिए बाकायदा एक सुनियोजित व्यवस्था है। परंतु इसके प्रावधानों को लगातार दरकिनार किया जाता है। अधिकांश मामलों में न्यायपालिका मूकदर्शक बन जाती है। इसलिए यह एजेंसियां विरोधियों को तंग करने और ‘राह पर लाने’ के लिए सरकार का औजार बनकर रह गई हैं।
किसी निर्वाचित जनप्रतिनिधि द्वारा चुनाव पूर्व किए गए वादे और उन्हें पूरा कर दिखाने की क्षमता, उसकी कारगुजारी का आकलन करने को मूल पैमाना होना चाहिए। सरकार के काम में पारदर्शिता रखना एक अन्य महत्वपूर्ण अवयव है और इसका बहुत ज्यादा महत्व है। क्यों नहीं सरकार जनता को राष्ट्रीय मुद्दों पर भरोसे में रखती? फिर चाहे यह लद्दाख प्रकरण हो या कोविड महामारी या नोटबंदी की पूर्व सूचना ताकि अफरातफरी और पलायन जैसे हालात न बनें। क्यों नहीं हमें देश की वास्तविक आर्थिक स्थिति और बेरोजगारी के आंकड़े दिए जाते? एक तरफ तो हम गंगा में बहती लाशें और किनारों पर दफन मुर्दों के दृश्य देखते हैं वहीं सरकारें इन्हें नकार रही होती हैं। केंद्र सरकार कोविड से हुई कुल मौतों की जो गिनती बताती है, अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित एजेंसियों के मुताबिक आधिकारिक आंकड़ों से वास्तविक स्थिति 10 गुणा ज्यादा है। पेगासस जासूसी प्रकरण का जिन्न बाहर निकला और निशाने पर रहे कुछ नाम भी सामने आ आए, परंतु सरकार के मुंह से एक लफ्ज़ न निकला। आज सड़कों पर हजारों किसान भीषण सर्दी-गर्मी के बावजूद आंदोलनरत हैं, सैकड़ों की मौत हुई है लेकिन केंद्र सरकार की ओर से एक भी मिलने नहीं गया! चाहे करतूतें केंद्र सरकार की हों या राज्यों की, सूची अंतहीन है। क्या सूचना का अधिकार अभी भी जिंदा है?
नागरिक चाहते हैं महत्वपूर्ण विषयों पर पारदर्शिता बने, चाहे सत्ता में कोई भी दल हो। सरकारें पर्दे में रहकर काम न करें और पूछे जाने वाले हर सवाल को देशद्रोह न ठहराया जाए। जीवनस्तर में निरंतर सुधार हो, यह चाह हर नागरिक को होती है। अमेरिकी संविधान में तो सरकार प्रदत्त ‘खुशी का लक्ष्य पाना’ प्रत्येक नागरिक का अधिकार बताया गया है। हमारे पूर्वजों ने भी भारतीय संविधान बनाते वक्त यही भावना रखी थी, जब उन्होंने सबके लिए ‘समान अवसर एवं रुतबे’ की बात कही थी। रोजगार पाने का अधिकार इस घोषणा का जरूरी हिस्सा है। लोगों की रुचि आंकड़ों में नहीं है। वे सड़कों पर घूमते लाखों बेरोजगार युवा और भूखे शिशु एवं कुपोषित मांओं वाली दृश्यावली देखना नहीं चाहते। हम कतई नहीं चाहते कि हताश युवा नशे और अपराध की ओर मुड़ें। अब उनमें लाखों युवा बेहतर मौकों की तलाश में पश्चिमी और अरब मुल्कों का रुख कर रहे हैं, भले ही वहां उन्हें समान नागरिकता प्राप्त न हो। क्यों नहीं राजनीतिक दल एक बृहद योजना बनाते, जिससे हमें विकास और रोजगार, दोनों मिलें? हालिया इतिहास में विश्व में ऐसे कई अनुकरणीय मॉडल हैं, जिनसे हम सीख सकते हैं। हमारे पास आर्थिक एवं संबंधित विषयों पर तीक्ष्ण बुद्धि है, उद्योगों में अग्रणी कप्तान हैं, तो कृषि का गहन ज्ञान है। फिर क्यों नहीं हमारे नेता इन क्षमताओं का इस्तेमाल करते हुए ऐसी ठोस पंचवर्षीय योजना बनाते जो परी-कथाएं न होकर उन्नति एवं विकास का कदम-दर-कदम युक्तिपूर्ण कार्यक्रम हो? आइए विद्यालय और अस्पताल का बृहद तंत्र बनाएं–सनद रहे विकास की राह का आगाज़ हमारे बच्चों और युवाओं को प्राप्त होने वाली अच्छी शिक्षा एवं स्वास्थ्य से होगा। भारत को आधुनिक अर्थव्यवस्था में स्थापित करने के लिए उन्नत मुल्कों से कदमताल करती आर्थिकी बनाने की दिशा में हमें न केवल बुनियादी ढांचा विकसित करना है बल्कि बढ़ती पर्यावरणीय चिंताएं और मौसम में होते बदलावों से बनी चुनौतियों से भी खुद को ढालना होगा। आज हम डिजिटल युग और ऐसे वक्त में जी रहे हैं, जहां तेजी से बदलते परिदृश्य में दुनिया के उन्नत देश जीवाश्म तेल की बजाय पर्यावरण मित्र ईंधन एवं सतत स्रोत अपना रहे हैं, इस मौके को हाथ से न गवाएं।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल,
संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।