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बदहाली की जवाबदेही

11:45 AM Jul 07, 2022 IST
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कभी चंडीगढ़ को देश में सिटी ब्यूटीफुल का खिताब हासिल था। शहर की विशिष्ट बनावट व योग्य अधिकारियों के दीर्घकालीन प्रयासों से ही शहर को यह खिताब हासिल हुआ था। अब देश में जब से स्वच्छता के मानक नये सिरे से बने, यह शहर खूबसूरती के पायदान में नीचे खिसकता गया। विडंबना देखिये कि पंजाब, हरियाणा व केंद्रशासित प्रदेश के अधिकारियों के लाव-लश्कर वाले शहर की खूबसूरती अब नाम की रह गई है। मानसून की पहली बारिश से दो राज्यों की राजधानी चंडीगढ़ में जलभराव से जिस तरह जन-जीवन बाधित हुआ, उसने तंत्र की काहिली की पोल खोल दी। फ्रांस के वास्तुकार द्वारा तैयार प्रारूप पर बसे देश के इस पहले नियोजित शहर में यदि जल-भराव के संकट पैदा होने लगे हैं तो निश्चित रूप से जल निकासी से जुड़ी नीतियां विफल हुई हैं। इस नियोजित शहर में अवैध निर्माण की गुंजाइश न के बराबर है तो जाहिर है कि वर्षा ऋतु से पूर्व ड्रेनेज सिस्टम की जांच इस तरह से नहीं हुई कि कहां जलभराव की स्थितियां पैदा हो सकती हैं। निस्संदेह, हमारी जीवनशैली व खानपान में सहायक डिस्पोजल संस्कृति भी जल निकासी के मार्ग को अवरुद्ध करती है। लेकिन शहर की सफाई व जल निकासी के लिये जिम्मेदार अधिकारियों व कर्मचारियों की भी जवाबदेही बनती है कि जल निकासी के मार्ग को अवरुद्ध करने वाले कारकों को दूर किया जाये। यह जरूर है कि चंडीगढ़ से बाहर जल के विस्तार क्षेत्र में निर्माण कार्यों में तेजी देखी गई है, जिससे जल निकासी के प्राकृतिक बहाव में बाधा आई है, लेकिन इस विशिष्ट शहर की देखरेख करने वाले तंत्र की चौकसी से ये समस्याएं समय रहते दूर की जा सकती थीं। यूं तो कमोबेश देश के तमाम शहरों का यही आलम है। महानगर, राष्ट्रीय व राज्यों की राजधानियों में जलभराव से परेशान करने वाले मंजर नजर आते हैं। लेकिन चंडीगढ़ की खास संरचना और नीति-नियंताओं की बड़ी फौज होने के बावजूद जलभराव कई तरह के सवालों को जन्म देता है, जिन पर मंथन जरूरी है।

दरअसल, पूरे देश में यही आलम है कि जब तक नागरिक सुविधाएं बाधित नहीं होती, तब तक इनके निराकरण के प्रयास नहीं होते। यानी आग लगने पर कुआं खोदने की प्रवृत्ति पूरे देश में बनी हुई है। देश के शहरी व ग्रामीण स्थानीय निकायों में कमोबेश यही स्थिति है। निकायों को संचालित करने वाले जनप्रतिनिधि राजनीतिक क्रियाकलापों में तो बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं लेकिन जन-समस्याओं के प्रति संवेदनशील नजर नहीं आते। बड़े शहरों में जलभराव से जीवन नारकीय हो जाता है क्योंकि तमाम कायदे-कानूनों को ताक पर रखकर बस्तियों के निर्माण की अनुमति दी जाती है, जो जल प्रवाह के प्राकृतिक मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। जब जल भराव का संकट गहरा जाता है तब समस्या दूर करने के लिये हाथ-पैर मारने शुरू किये जाते हैं। दरअसल, बढ़ती आबादी और अनियोजित निर्माण के चलते यह संकट गहरा होता जा रहा है। आने वाले समय की चुनौतियों के मुकाबले के लिये नियोजन कहीं नजर नहीं आता। देश में स्मार्ट शहर बनाने का शोर मीडिया में तो तैरता रहा है, लेकिन हकीकत के धरातल पर ये कहीं नजर नहीं आता। विडंबना ही है कि तंत्र की यह संवेदनहीनता शहरी व ग्रामीण स्तर पर बराबर नजर आती है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि व सूखे की मार से जब भी किसानों की फसल नष्ट होती है तो नुकसान के मूल्यांकन व राहत पहुंचाने में विलंब व लाग-लपेट की जाती है। किसी आफत में राहत यदि समय रहते मिल जाये तो पीड़ितों को सुकून मिल सकता है। लेकिन संवेदनहीन तंत्र की कारगुजारियों के चलते प्राकृतिक आपदा के संकट से राहत तब मिलती है, जब कि राहत बेमानी हो जाती है। होना तो यह चाहिए कि शहरी व ग्रामीण परिवेश में किसी भी समस्या का पूर्व आकलन किया जाये और विषम परिस्थितियों में तुरंत राहत पहुंचायी जाये। अब समय आ गया है कि संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही तय की जाये। यदि वे अपने दायित्वों को पूरा करने में विफल होते हैं तो उनके विरुद्ध कार्रवाई का प्रावधान हो। दरअसल, जवाबेदही तय न होने से काहिली को बढ़ावा मिलता है।

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जवाबदेहीबदहाली
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