चूक की जवाबदेही
इसमें दो राय नहीं कि पहलगाम के भीषण आतंकी हमले ने देश के अंतर्मन पर गहरे जख्म छोड़े हैं। निस्संदेह, निर्दोष पर्यटकों की निर्मम हत्या कई सवाल हमारे सामने छोड़ गई है। पहलगाम आतंकी हमले के बाद शुक्रवार को सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने कश्मीर का दौरा किया। उस आतंकी हमले के बाद जिसमें छब्बीस लोग मारे गए थे। निस्संदेह, उनका यह दौरा हमारे इस सैन्य संकल्प की अभिव्यक्ति है कि हमारी सेना आम जन की सुरक्षा के लिये प्रतिबद्ध है। एक ऐसे क्षेत्र में जहां लोगों ने दशकों आतंक की त्रासदी झेली है, वहां प्रतीकात्मक जवाबदेही से आगे ठोस रणनीति बनाने की जरूरत है। दुर्भाग्य से आतंकवादियों ने उस क्षेत्र को अपने आतंक का निशान बनाया, जो जम्मू-कश्मीर के अपेक्षाकृत सुरक्षित माने जाने वाले क्षेत्रों में शामिल था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस हमले को लेकर कोई खुफिया अलर्ट क्यों नहीं मिल पाया, जिससे लोगों में रोष व्याप्त हुआ है। दरअसल, सुरक्षा चूक की ऐसी घटनाएं सिस्टम की तैयारियों के प्रति जनता के भरोसे को प्रभावित करती हैं। इसमें दो राय नहीं है कि प्रधानमंत्री ने इस मामले में त्वरित हस्तक्षेप किया। इस संकटपूर्ण स्थिति में उन्होंने अपनी विदेश यात्रा को बीच में ही रोकना प्राथमिकता समझा। वहीं दूसरी ओर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह तुरंत जम्मू-कश्मीर पहुंचे। वहीं शाह का तुरंत घायलों से मिलने अस्पताल पहुंचना दुर्भाग्यपूर्ण घटना की गंभीरता को ही रेखांकित करता है। अब चाहे ये प्रयास कितने भी तात्कालिक व ईमानदार क्यों न हों, वे प्रणालीगत सुधार के विकल्प नहीं हो सकते। वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने आश्वासन दिया है कि हर अपराधी को पकड़ने के लिये सरकार कृतसंकल्प है। लेकिन इस तरह के आश्वासन केवल अल्पकालिक आवश्यकता को पूरा करते हैं। बेहतर होता कि हम पहले ही ऐसी चाक-चौबंद व्यवस्था सुनिश्चित करते कि परिंदा भी पर न मार सकता। निश्चित रूप से इस तरह के आतंकी हमले का व्यापक परिदृश्य हमें आत्ममंथन को विवश करता है।
बहरहाल, पहलगाम आतंकी हमले से हुई जनहानि तमाम सवालों को जन्म देती है। हर किसी संवेदनशील मन में घटनाक्रम को लेकर अनेक प्रश्न उभरते हैं। आम विमर्श में यह मुद्दा उठता रहा है कि जम्मू-कश्मीर के इस संवेदनशील क्षेत्र में सेना की उपस्थिति क्यों नहीं थी। आखिर इस हमले की भनक हमारे खुफिया तंत्र को क्यों नहीं लगी। जम्मू-कश्मीर देश का सीमावर्ती व संवेदनशील क्षेत्र है। दशकों की आतंकी घटनाओं के चलते इस क्षेत्र में सेना, केंद्रीय सुरक्षा बलों, खुफिया एजेंसियों तथा स्थानीय पुलिस की उपस्थिति देश के अन्य राज्यों के मुकाबले काफी ज्यादा रहती है। सवाल यह भी है कि आखिर खुफिया एजेंसियों से किस स्तर पर और क्यों चूक हुई। आखिर स्थानीय व विदेशी आतंकवादी इतनी आसानी से हमारे सुरक्षा चक्र को भेदने में कैसे सफल रहे? ऐसे तमाम सवाल हमारे नीति-नियंताओं से पारदर्शी जवाब मांग रहे हैं। ऐसे में सिर्फ सार्वजनिक रूप से बयान देने से काम चलने वाला नहीं है। हमें सुरक्षा व्यवस्था व खुफिया तंत्र की उन तमाम खामियों को दूर करना होगा, जिनके अभाव में आतंकवादी अपने खतरनाक मंसूबों को अंजाम देने में सफल हो सके। निस्संदेह, कश्मीर यात्रा के दौरान सेना प्रमुख जनरल द्विवेदी ने सुरक्षा बलों के बीच ऑपरेशनल समन्वय की समीक्षा की। लेकिन राष्ट्र और कश्मीरी सिर्फ प्रोटोकॉल को सख्त करने से कहीं अधिक चाहते हैं। पहलगाम आतंकी हमले के आलोक में खुफिया जानकारी साझा करने के तंत्र को सक्षम बनाने, तेज प्रतिक्रिया ढांचे के निर्माण और सुरक्षा तंत्र की मजबूती को मूर्त रूप देने की जरूरत है। कश्मीर को लेकर हमारे दांव हमेशा ऊंचे होते हैं, अब चाहे वे सैन्य, भावनात्मक और राजनीतिक रूप से हों। हमें पहलगाम आतंकी हमले में अपनों को खोने वाले लोगों के दर्द को संवेदनशील ढंग से महसूस करना चाहिए। आज वास्तविक स्थिति में बदलाव की जरूरत है ताकि हमारे राष्ट्रीय संकल्पों को संबल मिल सके। हमें जमीनी असहज सच्चाइयों का सामना करना होगा। इनसे मुकाबला करने की दृढ़ इच्छाशक्ति ही भविष्य की चुनौतियों से पार पाने में हमें सक्षम बना सकती है।