राजनीति की थाली में पौष्टिक आहार है गाली
सहीराम
गाली अब राजनीति की नयी डिश है जी- एकदम पौष्टिक और शक्तिवर्धक। वह चटनी नहीं है, अचार नहीं है कि स्वाद बढ़ाने के लिए जरूरी हो। वह तो एक तरह की शिलाजीत है, कीड़ाजड़ी है, वह तो महंगी वाली मशरूम है, वह काजू है, बादाम है। वह पूरी खुराक है, संपूर्ण भोजन है। अगर किसी नेता को गाली नहीं मिल रही तो वह अपने आपको वंचितों में गिनने लगता है। उसे लगता है कि वह गरीब है, एकदम दरिद्र। वह पीले राशनकार्ड वाला है। उसका शुमार अंत्योदय योजना वालों में ही हो सकता है। जिस लहौर नहीं वेख्या, वो जम्या ही नहीं टाइप फील कर नेता सोचने लगता है कि अगर गाली नहीं खायी तो जन्म ही अकारथ गया। उसने राजनीति में आकर क्या किया। बिल्कुल अध्यात्म में गर्क होकर वह सोचने लगता है कि जीवन व्यर्थ ही गंवाया।
एक जमाने में शादी-ब्याह में समधी लड़की वाले घर की महिलाओं की गाली खाकर फूला नहीं समाता था। आज नेता कुछ-कुछ उसी तरह तरह से विरोधी दल से गालियां खाकर सम्मानित महसूस करता है। गाली के महत्व को सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समझा जब कांग्रेसियों ने उन्हें मौत का सौदागर कहा था और उसे ही उपलब्धि की तरह दिखाकर उन्होंने चुनाव जीत लिया था। लेकिन इस राज को उन्होंने पिछले दिनों सार्वजनिक कर दिया कि मैं रोजाना दो-तीन किलो गालियां खाता हूं और ऊपर वाले ने मुझमें ऐसा सॉफ्टवेयर फिट कर रखा है कि इन गालियों को मैं न्यूट्रिशन में बदल देता हूं। उधर पहले तो राहुल गांधी और प्रियंका गांधी यह कह रहे थे कि हमें और हमारे परिवार को तो इतनी गालियां दी गयी हैं कि पूरी किताब बन सकती है। लेकिन जब से चुनाव परिणाम आए हैं, तब से शायद उन्हें भी लगने लगा है कि यह तो सचमुच बड़ी ही पौष्टिक खुराक है। इसलिए अब विपक्ष के नेता बनने के बाद राहुल गांधी कह रहे हैं कि न्याय की लड़ाई लड़ते हुए तो गालियां खानी ही पड़ती हैं।
असल में भाजपा के एक नेता ने उन्हें सदन में ऐसी बात कह दी जिसे गाली माना गया। जब माफी की बात आयी तो उन्होंने कहा कि मुझे आपकी माफी नहीं चाहिए। दो तुम्हें जितनी गाली देनी हो, दो। यह है गाली का महात्म्य। वह दिन दूर नहीं जब वे भी गालियों को पौष्टिक आहार के रूप में ग्रहण करने लगेंगे।