असमंजस की अनुपस्थिति
सुरक्षा परिषद के कई असफल प्रयासों के बाद आखिरकार संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस्राइल-हमास संघर्ष पर रोक लगाने के आह्वान का प्रस्ताव पारित कर दिया। जिसके पक्ष में 120 व विरोध में 14 वोट पड़े। जबकि अनुपस्थित रहने वाले देशों की संख्या 45 रही। भारत को छोड़कर सभी दक्षिण एशियाई देशों ने गाजा युद्धविराम के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। इतना ही नहीं ग्यारह सदस्यीय ब्रिक्स प्लस समूह में भारत एकमात्र ऐसा देश रहा, जिसने मतदान में भाग नहीं लिया। निस्संदेह, यह प्रस्ताव गैर-बाध्यकारी है। लेकिन इसका अपना राजनीतिक महत्व है। जो फलस्तीन के मुद्दे पर अमेरिका व इस्राइल के अलगाव को दर्शाता है। भारत की विदेश नीति का इतिहास बताता है कि हमने ऐसे हर प्रस्ताव पर अधिकांश देशों के साथ युद्ध रोकने के लिये मतदान किया। भले ही भारत आतंकवाद के मुद्दे पर अपना बीच का रास्ता चुनने का दावा कर सकता है, लेकिन इससे उसकी फलस्तीन को लेकर चली आ रही दीर्घकालिक नीति को चुनौती मिलती है। सरकार की तरफ से आधिकारिक स्पष्टीकरण था कि भारत चाहता है कि प्रस्ताव के पाठ में हमास का विशेष रूप से उल्लेख किया जाए। लेकिन यह स्पष्ट है कि फलस्तीनी लोग एक बड़ी त्रासदी झेल रहे हैं। इस महीने उनके आठ हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और बीस लाख जीवन के लिये संघर्ष कर रहे हैं। निस्संदेह, वे सभी हमास का प्रतिनिधित्व नहीं करते। जाहिरा तौर पर अमेरिका व उसके साझेदारों का सीधे विरोध न करने की भारत की नीति के निहितार्थ हैं। जिसके मूल में अपने व्यापार का विस्तार, अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी की खरीद तथा चीन के दबाव का मुकाबला करने के लिये पश्चिमी देशों की मदद लेने की रणनीति ही है। लेकिन ध्यान रहे कि धीरे-धीरे गाजा का संकट घातक दौर की ओर बढ़ रहा है। कालांतर में इसकी चपेट में दुनिया के दूसरे देश भी आ सकते हैं। निस्संदेह, गाजा का युद्धविराम ही दुनिया को युद्ध के घातक परिणामों से बचा सकता है।
बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र महासभा में जॉर्डन द्वारा रखे गये युद्धविराम के प्रस्ताव से भारत के अनुपस्थित रहने ने कई सवालों को जन्म दिया है। इसमें दो राय नहीं कि दुनिया के लिये किसी भी तरह का आतंकवाद घातक ही होता है। आतंकवाद की कोई सीमा, राष्ट्रीयता व धर्म नहीं होता। जाहिरा तौर पर आतंकवाद को समर्थन देने वाले किसी भी देश का विरोध होना भी चाहिए। भारत ने दशकों तक आतंकवाद का दंश झेला है। अब चाहे पंजाब हो, कश्मीर हो या पूर्वोत्तर। मुंबई के भीषण आतंकी हमले से लेकर संसद पर हमले की टीस भारत ने महसूस की है। लेकिन गाजा में नागरिकों की जीवन रक्षा भी होनी चाहिए। उनके मानवीय अधिकारों की रक्षा हो तथा लाखों लोगों तक मानवीय मदद पहुंचना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। दशकों से फलस्तीन के प्रति भारत का रवैया उदार व मानवतावादी रहा है। ऐसे वक्त में जब फलस्तीनी लोग एक बड़े संकट को झेल रहे हैं तो हमें अपने दायित्वों का भी निर्वहन करना चाहिए। भारत दुनिया का ऐसा देश रहा है जिसने सदैव युद्ध का विरोध किया है। यहां तक कि भारतीय जीवन की मूल अवधारणा वसुधैव कुटुंबकम् की रही है। इतना ही नहीं, हमारा सारा स्वतंत्रता आंदोलन अहिंसक ढंग से चला और हमने फिर भी आजादी सम्मान के साथ पायी। लेकिन फिलहाल दिल्ली से ऊहापोह के बयान आते रहे हैं। कभी इस्राइल के स्ट्राइक का समर्थन किया जाता है तो कभी फलस्तीन की मदद का वादा किया जाता है। इस्राइल की कार्रवाई पर भारत सरकार की नीति की जब कांग्रेस व अन्य राजनीति दलों द्वारा तीखी आलोचना हुई तो फिर सरकार के बयानों में बदलाव आया। निस्संदेह, यह नीति दशकों से भारत द्वारा फलस्तीन को दिये सहयोग को निष्प्रभावी बनाती है। सही मायनों में आज भी दुनिया में भारत की परंपरागत अहिंसावादी नीति का संदेश ही जाना चाहिए। जिसका आधार सिर्फ और सिर्फ मानवता ही होता है। इसमें दो राय नहीं कि हमास के आतंकी मंसूबों का पुरजोर विरोध होना ही चाहिए, लेकिन फलस्तीन के आम लोगों की जीवन रक्षा की पुरजोर वकालत भी होनी चाहिए।