अपना-अपना संसार
रतन चंद ‘रत्नेश’
बिंदेश्वरी बाबू को आखिरकार गांव से यहां आना ही पड़ा। अब उम्र सत्तर पार कर गई है। नहीं आते तो क्या करते? अकेले कब तक वहां पड़े रहते? पत्नी को रामप्यारी हुए सात साल से भी अधिक हो गए हैं। तब से अकेले हैं। अब तक खुद ही जैसे-तैसे पका-खा लेते थे। बीमारी-सुमारी में बेटा-बहू इतनी दूर शहर से तत्काल आ नहीं पाते और न आकर उनके साथ हफ्ता-दस दिन रह सकते थे। आखिरकार उनका भी अपना एक अलग संसार था। बेटा-बहू दोनों बड़ी-बड़ी आईटी कंपनियों में लगे थे। जब कभी बिस्तर पकड़ने की नौबत आ जाती तो भाइयों की बहुओं की सेवा-सुश्रुषा के बोझ तले दब जाते। हालांकि, अपनी पेंशन से उनकी कुछ भरपाई कर दिया करते। उनका भी अपना एक अलग संसार था। जब भाई अपने भाई से अलग हो जाता है, एक अलग संसार अपने आप बन जाता है। अब इसी तरह कई संसारों से बना यह संसार चलायमान है।
ऐसा नहीं है कि पिछले सात सालों से बेटा अपने पास बुलाकर रहने की जिद नहीं करता हो, परंतु बिंदेश्वरी बाबू यह कहकर टाल जाते कि जब तक चलता है, चलने दिया जाय। गांव में मन रमा रहता है। घूम आते हैं इहां-ऊहां। यहीं आसपास के इलाके के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अलख जगाकर रखते हुए अंत में प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। पेंशन समय पर हर महीने मिल जाती है जिससे सभी जरूरतें आसानी से पूरी हो जाती हैं। गांव के क्रियाकलापों में व्यस्त रहकर समय आसानी से गुजर जाता है। यों तो स्वास्थ्य भी दूसरों के मुकाबले कहीं बेहतर है। उम्र के लिहाज से बस साल में एकाध बार ढीले पड़ जाते हैं। तब तनिक मुश्किल आन पड़ती है तो आस जगती है कि कोई दिन-रात पास रहे तो अच्छा हो।
इस बार बीमार पड़े तो तनिक लंबा खिंच गया। छोटके बटुकेश्वर ने खुदे फोन करके गुरुग्राम में बैठे रोहित को इसकी सूचना दे दी। लिहाजा उसे किसी तरह आना ही पड़ा और जबरदस्ती बाबूजी को जरूरी सामान समेटकर हवाई जहाज की सैर कराते हुए शहर ले आए। साथ ही अल्टीमेटम भी दे दिया कि अब वे गांव में न रहकर हमेशा के लिए उनके साथ रहेंगे। बेटे ने स्पष्ट बता दिया कि उनके गांव में रहने से वह भी शहर में दिन-रात उनको लेकर चिंता में घुलता रहता है।
अब बिंदेश्वरी बाबू को भी अहसास होने लगा था कि जीवन के इस अंतिम पड़ाव में बेटे के साथ ही रहने में सबकी भलाई है। एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहजता से साथ निभा पाएंगे। बेटा-बहू और नन्ही आराध्या के संसार में अब खुद को रमरमा लें तो सबका भला हो।
गुरुग्राम पहुंचते ही बाबूजी को एक निजी क्लीनिक में सलाह के लिए ले गया रोहित। हालांकि अब उनके स्वास्थ्य में काफी सुधार हो चुका था। सारी जांच हुई तो रिपोर्टें लगभग सामान्य थीं। बस कॉलेस्ट्रॉल तनिक बढ़ा हुआ निकला। सो डाक्टर ने तली हुई चीजें और देसी घी का परहेज बता दिया। जिस देसी घी के बिना उनका निवाला गले नहीं उतरता, अब यहां उस पर पूर्णतः पाबंदी लग गई। यहां तक कि चपातियां भी अब शुष्क परोसी जाने लगीं। एक बार उन्होंने कहा भी, ‘बहू, रोटी में थोड़ा-सा घी तो चुपड़ दिया करो। यहां कौन-सी खालिस घी मिलता है। कुछ नहीं होगा मुझे।’
‘कुछ दिन परहेज क्यों नहीं कर लेते बाबूजी? अगली बार जांच में कॉलेस्ट्राल ठीक आया तो डॉक्टर की सलाह पर ले लिया कीजिएगा।’ रोहित ने बात वहीं खत्म कर दी और बिंदेश्वरी बाबू मन मसोस कर रह गए।
गांव से आए दस दिन हो गए थे परंतु वे अभी तक आलीशान बिल्डिंग के चौथे माले पर टंगे हुए हैं। वही एक दिन अस्पताल गए थे बस। अब मन बना रहे हैं कि नीचे उतरकर सुबह-शाम सामने के पार्क में चहलकदमी शुरू किया जाये। कब तक टीवी और अखबार के भरोसे बैठे रहेंगे। अखबार में अपने इलाके की कोई खबर आती नहीं कि मन रमा रहे। अखबार के सारे पन्ने गुरुग्राम और दिल्ली की खबरों से भरे रहते हैं, मानो देशभर में और कहीं कुछ हो ही न रहा हो। टीवी पर विज्ञापन आते ही मन उचट जाता है। बालकनी में आकर बैठ जाते और दूर तक आती-जाती गाड़ियों को जोखते रहते। सुबह पार्क में चहलकदमी करने वालों का आना छह बजे के बाद शुरू होता है जो नौ बजे तक किसी धारावाहिक की तरह चलता रहता है। तरह-तरह के ट्रैकिंग सूट, निक्कर और टी-शर्ट-लोअर सरीखे अन्य आकर्षक परिधानों में लिपटे स्त्री-पुरुष के इंद्रधनुषी रंगों को निहारते रहते। लगभग आठ बजे एक कोने में कुछ लोग इकट्ठे होते हैं और शायद किसी संत-महात्मा के कहे पर कुछ देर तक तालियां पीटते रहते हैं। वे गांव में सुबह चार बजे ही उठकर खेतों की ओर सैर के लिए निकल जाया करते थे। यह सिलसिला यहां भी शुरू किया जा सकता है। सोसायटी के अंदर का पार्क पूरी तरह सुरक्षित है। सुरक्षा इतनी चाक-चौबंद है कि बाहरी आदमी हो या गली का कुत्ता, कोई अंदर नहीं आ सकता। सभी उच्चवर्गीय, उच्च शिक्षित लोग रहते हैं इस सोसायटी में। बिंदेश्वरी बाबू भी कम लिखे-पढ़े थोड़े ही हैं। अब तो बेटा-बहू की वजह से वे भी संभ्रांत की श्रेणी में आ गए हैं।
दूसरे दिन से वे भी सुबह साढ़े चार-पांच बजे के करीब पार्क में सैर को जाने लगे और जुमा-जुमा दस दिन भी नहीं होंगे कि एक दिन बहू को बेटे से कहते सुना, ‘सुनते हो रोहित, बाबू जी सोसायटी में अपने इज्जत की बाट लगा रहे हैं। फर्स्ट फ्लोर वाली नीतू ने बालकनी से उन्हें सुबह सैर पर कभी लुंगी तो कभी धोती में जाते देखा।’
‘तो क्या हुआ, बाबू जी हमेशा से धोती और लुंगी पहनते आ रहे हैं। तुम्हें तो पता है।’
‘गांव की बात अलग है। यहां यह सब शोभा देता है क्या? सोसायटी वाले न जाने कैसी-कैसी बातें करेंगे। क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?’
रोहित ने कुछ नहीं कहा परंतु बिंदेश्वरी बाबू सब समझ गए। उनके कानों तक बहू की आवाजें पहुंच चुकी थीं। बनावटीपन ही तो इस शहर की खासियत है। एक दिन रोहित के साथ स्वयं बाजार गए और अपने लिए एक ट्रैक सूट और रेडिमेड कमीज-पतलून खरीद लाए।
नन्ही आराध्या बाय-बाय दादू कहकर सुबह ही स्कूल को निकल जाती और वहां से शाम को अपनी मम्मी के साथ ही लौटती। स्कूल से क्रेच तक पहुंचाने का जिम्मा एक ऑटोरिक्शा वाले को दे रखा था। बिंदेश्वरी बाबू सारा दिन घर में अकेले पड़े रहते। फिर धीरे-धीरे उन्होंने सोसायटी के आसपास के इलाकों में पैदल घूमना शुरू कर दिया परंतु धोती-कुर्ता के बजाय कमीज-पतलून में। धोती और लुंगी का इस्तेमाल पर्दे में होता। अब यहां रह रहे हैं तो बेटे-बहू की इज्जत का ख्याल तो रखना ही पड़ेगा। भले कमीज-पतलून और ट्रैक सूट में असहज रहना पड़े।
इसी तरह समय के साथ बेमन बिंदेश्वरी बाबू अपने आप को शहरी माहौल में ढालने की कोशिश करते रहे और फुर्सत में अपने ग्रामीण परिवेश की यादों में दिन पर दिन बिताते चले गए। सुबह का नाश्ता और रात का खाना महाराजिन बना जाया करती थी। जब से वे आए हैं, मन किया तो अपना दिन का खाना स्वयं बनाते हैं। पहले महाराजिन उनका दिन का खाना सुबह ही बना दिया करती थी परंतु उन्होंने मना कर दिया, यह कहकर कि दिन में कम ही खाते हैं। भूख लगेगी तो स्वयं बना लिया करेंगे। गांव में भी तो स्वयं ही बनाया करते थे।
एक रविवार बिंदेश्वरी बाबू को न जाने क्या सूझा, आराध्या को लेकर धोती-कुर्ते में ही पार्क में उतर आए। विद्रोही प्रवृत्ति मानो अतल गहराइयों से उछल आई हो। बेटा-बहू उस समय बालकनी में ही कुर्सी बिछाए अखबार पढ़ रहे थे। बिंदेश्वरी बाबू को लगा तो होगा कि बहू को उनका इस लिबास में उतरना सुहाया नहीं होगा परंतु वे मन ही मन में कुछ ठान चुके थे। बिंदेश्वरी बाबू आराध्या के साथ पार्क में चक्कर लगाने लगे। बीच-बीच में कोई उन्हें रोक लेता और उनसे बतियाने लगता। इनमें महिलाओं की संख्या अधिक थी। बेटा-बहू अपनी बालकनी से यह सब देखे जा रहे थे। आराध्या कभी-कभी अपने दादा जी का साथ छोड़कर इधर-उधर दौड़ पड़ती और थोड़ी देर बाद फिर से उनके साथ हो लेती। बेटा-बहू ने गौर किया कि सैर पर आईं कुछ महिलाएं अब बाबू जी का चरण-स्पर्श कर अपने माथे से भी लगाने लगी हैं।