समय की मुठभेड़ से उपजी दास्तां
सैली बलजीत
ललिता विम्मी हरियाणा की उदयीमान लेखिका हैं। बीते सालों में उनके लेखन ने आकृष्ट किया है। उनके नव्यतम उपन्यास ‘इक दास्तां’ ने साहित्य में अलग पहचान दिलाई है। ज़िन्दगी की कटुतम सच्चाइयों को उलीचने में लेखिका ने अपनी समस्त ऊर्जा के ज़रिए ज़िन्दगी से मुठभेड़ करती विषमताओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। ज़िन्दगी के तमाम सफ़र को किन्हीं ख़्यालों में गुज़ार देना उसके वजूद पर हस्ताक्षर सरीखा प्रतीत होता है। ज़िन्दगी की छोटी-छोटी विसंगतियां कभी-कभार नासूर में तब्दील होते हुए इक दास्तां हो जाती हैं। ख़्यालों के मोहरों से ज़िन्दगी के कटुतम लम्हे दास्तां सरीखे हो जाते हैं।
ललिता विम्मी ने अपने उपन्यास में समाज की अनेक विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया है। रजनी और विजय के अतिरिक्त अनेक पात्रों के क्रिया-कलापों से उपन्यास में अनेक जटिलताओं और विद्रूपताओं के अनेक बिम्ब प्रस्तुत हुए हैं। रचनाकार ने स्त्री मन की गुत्थियों को भी सूक्ष्मता से उलीचा है।
रचना विशाल कैनवस पर फैला हुआ वृहद उपन्यास है जो लेखिका की बेबाकी का परिचायक भी है। लेखिका ज़िन्दगी के कटुतम लम्हों को सहजने का हुनर जानती है। ‘इक दास्तां’ उपन्यास रीते हुए वक्त से हुई नम आंखों की संवेदना को उभारने वाली कृति है। रीते हुए हाथ मलते हुए बिलखने के कई दारूण दृश्य उपन्यास के महत्वपूर्ण अंश हैं, जिसे लेखिका ने कुशलता से बुना है। ज़िन्दगी की शिला पर समय के हस्ताक्षर करते हुए एक दिन यह घोषणा होना कि हमारा किरदार ही समाप्त हो गया है तो मात्र एक अधूरी दास्तां शेष बची रह जाती है। लगभग पांच सौ पृष्ठों के इस उपन्यास में अनेक बार सामाजिक विद्रूपताओं का दोहराव कहीं-कहीं बोझिल करता है। उपन्यास की भाषा और ट्रीटमेंट साधारण है। आशा है ललिता विम्मी अपने भावी लेखन में गम्भीरता और उत्कृष्टता से प्रस्तुत होंगी।
पुस्तक : इक दास्तां लेखिका : ललिता विम्मी प्रकाशक : प्रखर गूंज पब्लिकेशन, दिल्ली पृष्ठ : 474 मूल्य : रु. 595.