कोर्ट की सार्थक पहल
यह विडंबना ही है कि कुदरती वजह या किसी हादसे के चलते शारीरिक अपूर्णता के शिकार लोगों के प्रति भारतीय समाज में कमोबेश सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता रहा है। हालांकि, अब स्थितियों में बदलाव आया है। अब उन्हें एक सम्मानजनक नाम दिव्यांग देने का प्रयास किया गया है। लेकिन परंपरागत समाज में उनके उपहास व उपेक्षा का भाव अब भी किसी न किसी रूप में सामने आ जाता है। यही वजह है कि इस दिशा में देश की शीर्ष अदालत को सार्थक पहल करनी पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने, फिल्मों व मीडिया के अन्य दृश्य माध्यमों में दिव्यांगों को कैसे चित्रित किया जाना है, उसके नियमन के लिये दिशा-निर्देश जारी करने की स्वागत योग्य पहल की है। इस रचनात्मक पहल का मकसद दिव्यांगों के प्रति रूढ़िवादी सोच को दूर करना है। इस ऐतिहासिक फैसले में इस बात को रेखांकित किया गया है कि शारीरिक अपूर्णता वाले लोगों को अपमानित करने तथा हाशिये पर ले जाने वाली भाषा पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। दरअसल, ऐसी सोच दिव्यांगों की सामाजिक सक्रियता की कोशिशों में बाधा उत्पन्न करती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने दिव्यांगों के लिये प्रामाणिक और सम्मानजनक प्रतिनिधित्व वाली दृश्य-श्रव्य रीति-नीति का निर्देश दिया है। उन्होंने उस रूढ़िवादी सोच के खात्मे पर बल दिया जो उनमें हीनता का भाव भरती हो। उनका कहना था कि लोगों ने अपने मनोरंजन के लिये शारीरिक रूप से अपूर्ण लोगों पर तमाम चुटकुले बनाए हैं। दरअसल, नियामक व्यवस्था में दिव्यांगों की भागीदारी न होने के कारण ऐसी सोच का समय रहते प्रतिकार नहीं हो सका है। इस मामले में मुख्य न्यायाधीश का संदेश साफ था कि दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील व्यवहार उन्हें समझने में मदद करता है,लेकिन यदि शारीरिक अपूर्णता को हास्य का विषय बनाया जाता है तो इससे उनका मनोबल प्रभावित होता है। निश्चित रूप से देश की शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश ने एक ज्वलंत विषय की ओर पूरे राष्ट्र का ध्यान खींचा है।
यह प्रशंसनीय है कि शारीरिक अपूर्णता के चलते तमाम तरह के कष्ट झेल रहे दिव्यांगों के प्रति समाज के संवेदनशील व्यवहार की ओर शीर्ष अदालत ने ध्यान दिलाया है। निस्संदेह, शीर्ष अदालत ने उचित ही निष्कर्ष निकाला है कि रचनात्मक स्वतंत्रता के ये मायने कदापि नहीं होते कि पहले से हाशिये पर मौजूद लोगों का उपहास किया जाए, उन्हें रूढ़िवादी सोच का शिकार बनाया जाए, उनको लेकर गलत बयानबाजी की जाए। कुल मिलाकर उनको अपमानित करने की आजादी किसी को नहीं दी जा सकती। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि शारीरिक अपूर्णता वाले दिव्यांगों को अपंग व ऐसे अन्य अपमानजक शब्दों से आहत करने की इजाजत किसी को नहीं दी सकती है। दरअसल, उनको लेकर समाज में व्याप्त रूढ़िवादी सोच को बदलने की जरूरत है। अब फिल्म निर्माताओं का भी दायित्व है कि फिल्मों का निर्माण करते वक्त ऐसे हास्यबोध वाले चित्रण से गंभीरता के साथ परहेज किया जाए। कैमरे के जरिये उनका ऐसा चित्रण होना चाहिए जिससे समाज में उनके प्रति संवेदनशील, समावेशी सोच और यथार्थवादी रवैया अपनाया जाए। शीर्ष अदालत के दिशा-निर्देशों में संविधान द्वारा प्रदत्त, भेदभाव-मुक्त व गरिमा को प्रतिष्ठित करने वाले प्रावधानों के अनुरूप दिव्यांगों की छवि बनाने पर बल दिया गया। जो कि दिव्यांगों के अधिकारों के लिये बने वर्ष 2016 के अधिनियमों के अनुरूप ही है। दरअसल, कानून सदा से समाज में दिव्यांगों के अधिकार व सम्मान-रक्षा को संबल देना चाहता रहा है। हालांकि, यह स्पष्ट है कि दिव्यांगों का समाज में अपना उचित स्थान प्राप्त करने का संघर्ष लगातार बना हुआ है। उनके लिये आज भी समाज में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का उपलब्ध न होना, पदोन्नति, प्रशिक्षण तक पर्याप्त पहुंच न होने, व्यावसायिक अलगाव, सार्वजनिक स्थलों व आफिसों में दिव्यांगों के लिये शौचालयों का न होना तथा कार्यालयों में व्यवस्था उनकी सुविधा के अनुरूप न होना वक्त की नग्न हकीकत है। निश्चित रूप से उन्हें एक सक्षम वातावरण प्रदान करके ही हम दिव्यांगों का सशक्तीकरण कर सकते हैं। फिल्म व अन्य दृश्य माध्यमों में उन्हें सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करना, उनके मनोबल को बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम कहा जा सकता है।