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आत्म-अनुशासित चिंतनशील मन ही मार्गदर्शक

08:08 AM Jun 03, 2024 IST
आत्म अनुशासित चिंतनशील मन ही मार्गदर्शक
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विजय सिंगल
कहा जाता है कि किसी व्यक्ति का, अपने वास्तविक स्वरूप के बारे में ज्ञान, उसके अंतहीन जन्मों से एकत्रित हुई अज्ञानता से ढका रहता है। आध्यात्मिक ज्ञान का विकास करके इस अंधकार के आवरण को हटाया जा सकता है। इस तरह आत्मा की मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। लेकिन ऐसा ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाए? इस प्रश्न का उत्तर भगवद्गीता के श्लोक संख्या 4.34 में दिया गया है। श्रीकृष्ण ने सलाह दी है कि व्यक्ति को, विनम्र श्रद्धा एवं सेवा के साथ सार्थक प्रश्न पूछ कर तत्वदर्शी ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
जब तक व्यक्ति स्वयं अपने भीतर के प्रकाश को नहीं देख लेता, तब तक उसे आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। इसलिए, यह सुझाव दिया गया है कि व्यक्ति को एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु के पास जाना चाहिए, जिसने न केवल सैद्धांतिक रूप से सत्य को जाना है (तत्व-ज्ञानी), बल्कि स्वयं इसका अनुभव भी किया है (तत्व-दर्शी)। जब कोई व्यक्ति किसी प्रबुद्ध मनुष्य के पास श्रद्धापूर्ण सेवा-भाव और सार्थक पूछताछ के दृष्टिकोण के साथ पहुंचता है, तो ऐसा शिक्षक जीवन के गहरे अर्थ को खोजने में उसकी मदद करता है।
एक आध्यात्मिक गुरु का कार्य अन्य शिक्षकों के कार्य से काफी भिन्न होता है। जहां किसी भी विषय का शिक्षक अपने शिष्यों को ज्ञान की उस विशेष शाखा में ही ज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है, वहीं एक आध्यात्मिक शिक्षक का लक्ष्य होता है अपने शिष्य का पूर्ण कायाकल्प करना। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा की गहराई में सत्य को धारण करता है। लेकिन भौतिक जगत में उलझे रहने के कारण यह सत्य उसकी आंखों से ओझल रहता है। एक आध्यात्मिक गुरु का लक्ष्य होता है अपने शिष्य को जीवन के सत्य का अनुभव करने में सक्षम बनाना। वह उसे उसके वास्तविक स्वरूप के प्रति जागृत करता है।
एक सच्चा गुरु अपने शिष्यों को शास्त्रों की जानकारी देता है और उनके समक्ष आध्यात्मिक ज्ञान को भी प्रकट करता है। वह उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखाता है। वह इस पथ पर उनकी प्रगति की निगरानी करता है। वह रास्ते में आने वाली बाधाओं से भी आगाह करता है। एक प्रबुद्ध गुरु के पास अपने शिष्य के दिल और दिमाग को रूपांतरित करने की शक्ति होती है क्योंकि उससे जो ज्ञान उभर कर आता है वह उसके अपने अनुभव के प्रकाश से ओत-प्रोत होता है।
भगवद्गीता आध्यात्मिक दासता को स्वीकार नहीं करती। अपने गुरु का सम्मान करना चाहिए, लेकिन उसके सामने पूर्ण समर्पण का कोई सवाल ही नहीं है। जब भी शिक्षक के प्रति अंधविश्वास पर जोर दिया जाता है, तो उस अधिकार के दुरुपयोग का बहुत बड़ा खतरा होता है। गीता ने गुरु की श्रद्धायुक्त सेवा को, प्रासंगिक पूछताछ और स्वतंत्र परीक्षा के निर्बाध अधिकार के साथ सहज रूप से मिला दिया है। इसने शिष्य और उसके गुरु के बीच (अर्जुन-कृष्ण संवाद के रूप में) दिल से दिल की बातचीत का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसलिए साधक को गुरु का अंधानुकरण करने के बजाय उससे सार्थक प्रश्न पूछने चाहिए। सभी संदेह दूर होने चाहिए। बुद्धि तृप्त हो जानी चाहिए। ज्ञान की यह खोज तब तक जारी रहनी चाहिए जब तक कि पूर्णता प्राप्त न हो जाए।
जिन लोगों ने सत्य को जान लिया है, उनका यह कर्तव्य है कि वे अपने से कम विकसित बंधुओं को ज्ञान प्राप्ति के उनके प्रयास में मदद करें। इसीलिए प्राचीन भारत में गुरु-शिष्य संबंध की एक महान परंपरा स्थापित हुई। लेकिन आजकल कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा इस पवित्र परंपरा का घोर दुरुपयोग किया जा रहा है।ये झोलाछाप गुरु अपने को आत्मज्ञानी बताते हैं और तत्काल निर्वाण की दुकान खोल कर बैठ जाते हैं। ये स्वयंभू धर्मगुरु समाज के विभिन्न वर्गों की भावनात्मक कमजोरी और व्यक्तियों के अंतर्निहित भय का फायदा उठाते हैं। वे अपनी खुद की वित्तीय और राजनीतिक जागीर स्थापित कर लेते हैं। आत्मश्लाघा, व्यर्थ का आडंबर, काम-विलास और दासता की शर्त इन नकली आध्यात्मिक गुरुओं की पहचान बन गई है। और ऐसे लोग भी हैं जो एकांत का जीवन जीते हैं, और अपने स्व-घोषित आध्यात्मिक कौशल को प्रदर्शित करने के लिए अपने स्वयं के शरीर पर अत्याचार करते हैं। जादुई चालों को अक्सर अलौकिक शक्तियों के रूप में चित्रित किया जाता है। ऐसी सभी बेतुकी प्रथाएं सदियों पुरानी उन गौरवशाली परंपराओं के खिलाफ हैं जो शिक्षक की ओर से ज्ञान को साझा करने और शिष्य की ओर से प्रश्न करने और गहन विचार करने को बढ़ावा देती हैं।
शिक्षक द्वारा प्राप्त ज्ञान को अत्यधिक महत्व देना चाहिए। लेकिन इसे बिना सोचे-समझे लागू नहीं किया जा सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह प्राप्त ज्ञान पर चिंतन करे और तत्पश्चात स्वयं सत्य की खोज करे। उसके विचार उसके अपने होने चाहिएं, न कि शिक्षक द्वारा थोपी गई अवधारणाएं। इतना ही नहीं, सत्य के आकांक्षी को उन अवधारणाओं अर्थात‍् विचारों और विश्वासों, के लिए तर्कसंगत आधार और अनुभवजन्य साक्ष्य की तलाश करनी चाहिए।
एक प्रश्न प्राय: पूछा जाता है कि आध्यात्मिक गुरु का होना क्यों आवश्यक है, जबकि आध्यात्मिक सिद्धांतों की जानकारी आजकल इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध है। एक संबंधित प्रश्न यह भी है कि अपने लिए एक सही गुरु का चुनाव कैसे करें। इन प्रश्नों का उत्तर जीवन के प्रति व्यक्ति के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। यदि कोई व्यक्ति चिंतनशील मन का है और आत्म-अनुशासित है; उसे गुरु की आवश्यकता नहीं। वह सत्य की खोज स्वयं कर सकता है। लेकिन अगर किसी को अपनी खुद की समझ पर बहुत भरोसा नहीं है, और वह बिना किसी की मदद के खुद पर संयम नहीं रख सकता है तो उसे प्रेरित करने, उसका मार्गदर्शन करने और आवश्यकता पड़ने पर उसमें सुधार करने के लिए उसे एक संरक्षक की आवश्यकता हो सकती है। गुरु का चुनाव भी व्यक्तिगत निर्णय का विषय है। एक आध्यात्मिक शिक्षक की शिक्षाओं, निजी आचरण और अन्य गतिविधियों के बारे में जानकारी एकत्र करनी चाहिए। फिर सत्यापित करने के बाद, व्यक्ति किसी विशेष गुरु का अनुसरण करने या न करने के बारे में सोच-समझ कर निर्णय ले सकता है। ऐसा चुनाव करते समय व्यक्ति को अपनी आध्यात्मिक ज़रूरतों को भी ध्यान में रखना चाहिए।
अंत में, किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा एक सुखद अनुभव हो सकती है यदि वह सत्य को समझने और अनुभव करने के लिए उत्सुक हो और गुरु उसके साथ अपना ज्ञान साझा करने को तैयार हो।

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