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लोटा

06:40 AM Jul 16, 2023 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

हरि मोहन
वे दोनों बिना फ़ोन किए आ गये। मैंने खुशी दिखाते हुए उनका स्वागत किया। ‘आज बहुत दिनों बाद आये नेताजी!’ (मन में आया नेताजी नहीं, लोगों का दिया नाम ‘लोटा’ बोलूं) न चाहते हुए भी मुस्कुराकर मुझे कहना पड़ा। सोफे पर बैठते-बैठते वे बोले, ‘आजकल पार्टी की सदस्यता के लिए अभियान चल रहा है। हम लोग उसी में जुटे हैं। उन्होंने भारी व्यस्तता दिखाई। ‘ये सज्जन कौन हैं?’-मैंने पूछा। ‘ये हैं हमारे नये मित्र जानीवाकर जी। ...हमारी पार्टी के तहसील अध्यक्ष।’ मैंने उनकी ओर ध्यान से देखा। कुछ पहचाने से लगे, कहीं इनको देखा है। पर याद नहीं आ रहा कहां। ‘और सुनायें क्या हो रहा है?’ निरर्थक-से इस वाक्य में मैंने जोड़ा, ‘आपने शराब छोड़ दी?’ ‘हां जी भाई जी...’ और बोले, ‘कभी-कभी कोई आग्रह करे तो ले लेता हूं!’ मैंने साथ वाले सज्जन की ओर देखा। नेताजी बोले, ‘इनको मैं आग्रह करने के लिए अपने साथ रखता हूं!’ घिसा-पिटा चुटकुला सुनाते हुए वे नकली हंसी हंसने लगे। दूसरे सज्जन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। नेताजी किसी से मोबाइल फोन पर बात करने लगे।
मैंने परिहास करते हुए पूछ, ‘आज आप किस पार्टी में हैं?’ नेताजी जानते सब हैं किंतु प्रकट में कुछ नहीं बोले। हमेशा की तरह सिर्फ़ मुस्कुराये। पत्नी ने बिना पूछे चाय की ट्रे मेज पर रख दी। वह जानती है, अब नेताजी कम से कम एक घंटे तक बैठेंगे। शायद चाय पीकर जल्दी चले जायें। उसने अपना गणित लगाया। और सचमुच चाय पीने के बाद वे उठ खड़े हुए। हाथ जोड़कर बोले- अब चलूंगा, अभी सदस्यता के लिए कई वार्ड बचे हैं, उनमें जाना है।
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‘क्यों आज क्या हुआ नेताजी?’
मुंह लटकाए दिलरुवा जी ने घर में प्रवेश किया, तो पत्नी ने पूछा। उसके पूछने में मुस्कान भी शामिल थी। बस इसी बात पर वे तिलमिला गए। उन्हें पत्नी के मुंह से अपने लिए ‘नेताजी’ सम्बोधन अच्छा नहीं लगता। सारी दुनिया उन्हें नेताजी कहे कोई बात नहीं। उनका तो नेता मैं हूं ही। लेकिन पत्नी के ‘नेताजी’ कहने में उन्हें हमेशा ‘व्यंग्य’ की गन्ध आती है। जब भी वह ‘नेताजी’ कहती है, लगता है चिढ़ा रही है। तब उसकी मुस्कुराहट बिच्छू के डंक की तरह विषैली और पीड़ादायक हो जाती है।
उन्होंने पत्नी के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और सीलन-भरे कमरे में पड़े पुराने सोफे पर धम्म से बैठ गए।
‘क्यों ‘हाईकमान’ ने मनाकर दिया?’ वे ‘हाईकमान’ शब्द सुनकर जैसे अन्धी सुरंग से बाहर आए। लेकिन चुप बने रहे। वे घर से झूठ बोलकर गए थे कि टिकट के लिए सीधे हाईकमान से बात करने जा रहा हूं। अपना झूठ पकड़े जाने से बेचैन वे फिर तिलमिला कर रह गए। उनके लिए इससे ज्यादा अपमानजनक बात और क्या होती कि उनकी अपनी ही पत्नी उनसे इस तरह चुस्की ले रही थी! उन्होंने सोफे के हत्थों को ध्यान से देखा। हत्थों पर पड़ा कवर बहुत ही चीकट लग रहा था। वे सोफे पर बैठे अपने आपको भी वैसा ही चीकट अनुभव करने लगे। पुराना, बेरंग और गन्दा!
जब पत्नी ने फिर पूछा, तो वे फूटे, ‘स्साला जानीवाकर आड़े आ गया।’
‘क्यों उन्होंने क्या किया?’
‘कुछ नहीं। तुम एक कप चाय बनाकर ले आओ।’-उन्होंने झल्लाकर कहा।
वे चाहते थे कि पत्नी जल्दी-से-जल्दी उनके सामने से हट जाए। जब वह जिद्दी मक्खी की तरह वहीं बनी रही, तो वे जोर से बोले, ‘अब चाय तो पिला दो! सब बताऊंगा।’ उनके स्वर में क्रोध, झुंझलाहट, क्षोभ, अपमान और अनुनय-विनय का घालमेल था। जो इस समय उन्हें कातर और लिजलिजा बना रहा था। सोचने लगे, ‘इसे मेरे टिकट न मिलने की कोई चिन्ता नहीं है। उस जानीवाकर के बच्चे के लिए पूछ रही है, उन्होंने क्या किया! अब यह स्साला इसके लिए ‘उन्होंने’ हो गया!’ उन्हें लगा वे खुले में खड़े हैं और तेज बारिश होने लगी है। वे इस आत्मग्लानि और अपमान की बारिश में भीगे हुए बैठे हैं और कांप रहे हैं।
ये ‘नेताजी’ और कोई नहीं हमारे और आपके कस्बे के दिलरुवाजी हैं। एक छुटभैये नेता। हर चुनाव लड़ते हैं। टाउन एरिया के वार्ड मैंबर से लेकर एमएलए, एमएलसी और एमपी तक का। परिणाम वही ‘बुरी तरह पराजय’ और जमानत जब्त! बार-बार की पराजय ने उन्हें जुझारू बना दिया है। वे अपने आपको ‘जुझारू’ और ‘वरिष्ठ नेता’ कहलाना ही पसन्द करते हैं। अपने निकज्जूपन और जाहिलपन को वे ‘संघर्ष’ मानते थे। अपने जैसे चकरैटों के साथ लगे घूमना, नेताओं की जनसभाएं आयोजित करवाना, नए लड़कों के साथ बैठकर डींगें हांकना, अपनी शेखी बघारना और विरोधियों को गाली देना, अखबारों में समाचार छपने से पहले यह देखना कि उसमें कहीं मेरा नाम है या नहीं जैसी बातें उनकी जीवन शैली का हिस्सा बन चुकी हैं। इसी शैली के चलते लोग उन्हें ‘गलदिवा’ (गाली देने वाला) और ‘एंग्री यंगमैन’ कहने लगे हैं! ऐसे ही उनके अनन्य मित्र हैं जानीवाकर साहब। जानीवाकर ने तो बीस साल पहले से कुर्ता-पायजामा में घुसकर अपने आपको विधिवत ‘नेता’ घोषित कर दिया है।
एक दिन की बात है। प्रातः बेला में दिलरुवा जी जानीवाकर के घर पहुंचे। जानीवाकर हमेशा की तरह किसी की शिकायत लिखने में व्यस्त थे। दिलरुवा जी को आया देखकर वे उठे। स्वागत-सत्कार किया। अभी-अभी लिखे शिकायत पत्र को उनके सामने करते हुए बोले, ‘बन्धु तुम भी इस पर हस्ताक्षर कर दो।’ थोड़ी ना-नुकर के बाद दिलरुवा जी ने अपनी अस्पष्ट सी चिड़िया बिठाई और पढ़ने लगे। ‘कुछ नहीं है यार, ला इधर ला।’ कहकर उन्होंने दिलरुवा जी के हाथों से कागज छीना और पांच- सात लोगों के फर्जी हस्ताक्षर करते हुए बोले, ‘इस साले का इन्तजाम तो हो गया। बड़ा ईमानदार बनता था। हम जब चन्दा मांगने गए तो नहीं दिया। अब देखता हूं यहां कैसे टिकता है।’
उसी दिन दोनों में मंत्रणा हुई। जानीवाकर की सलाह पर दिलरुवाजी ने अपनी एक साल पहले पकड़ी पार्टी भी छोड़कर, जानीवाकर वाली पार्टी में शामिल होने का मन बना लिया। कुछ दिन बाद एक आयोजन में बाकायदा इसकी घोषणा कर दी गई। उस ‘ऐतिहासिक’ दिन का जो समाचार एक स्थानीय समाचार पत्र में छपा, वह उन्होंने सहेजकर आज तक रखा हुआ है। समाचार में छपा था, ‘वरिष्ठ नेता दिलरुवा का दिल पलटा। अपने समर्थकों के साथ जानी की पार्टी में शामिल। इस अवसर पर जानीवाकर ने कहा कि दिलरुवाजी जैसे कर्मठ, जुझारू और वरिष्ठ नेता के हमारी पार्टी में आ जाने से पार्टी मजबूत हुई है। वे इसमें नई जान फूंकेंगे।’ पार्टी में कितनी जान फूंकी, यह तो नहीं मालूम, हां, दिलरुवा जी में जान अवश्य आ गई थी। ऐसा लोगों का कहना था। लोगों का यह भी कहना था कि, ‘अब यह पार्टी भी गई! जहां-जहां चरन पड़े सन्तन के हो गया बंटा ढार!’
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इधर इस पार्टी में दिलरुवा जी का बुरा हाल था। पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें वरिष्ठ मानने को तैयार नहीं थे। उनका तर्क था कि ये पार्टी में नए आए हैं। जबकि वे अपने आपको वरिष्ठ मानते थे और अखबारों में अपने नाम के सामने ‘वरिष्ठ’ जरूर छपवाते थे। एक बार पार्टी के एक बड़े नेता के सम्मान में जनसभा का आयोजन था। मंच पर दिलरुवा जी को भी बैठने का मौका मिल गया। मौका पाकर उन्होंने माइक हथिया लिया और अपनी चिंघाड़ती आवाज में बोलने लगे। बोलते-बोलते वे यह भूल गए कि मुख्य अतिथि मैं नहीं, वे हैं, जिन्हें जल्दी ही बोलकर आगे की यात्रा करनी है और जो भीतर-ही-भीतर उन्हें कोस रहे हैं!
उन्हीं दिनों राज्य में चुनाव कराए जाने की चर्चा शुरू हो गई थी। लेकिन पहले परिसीमन होना था। अपनी व्यस्तता के लिए नेताजी को काम मिल गया। वे जगह-जगह घूमने लगे और अपनी ओर से तरह-तरह के सुझाव देने लगे। मानो परिसीमन के कर्ता-धर्ता यही हैं। कभी-कभी अखबारों में उनके दो इंची वक्तव्य छप जाते। वे खुश होकर पत्नी को दिखाते। पत्नी ने एक दिन परिहास में कहा, ‘लगता है सारे प्रदेश का भार आप ही के कन्धों पर है।’ उन्होंने पत्नी को समझाया, ‘भई, नई पार्टी ज्वाइन की है। काम तो करना ही पड़ेगा। फिर चुनाव...’इससे आगे कुछ कहते हुए अटक गए।
अपने खेमे के लोगों से उन्होंने साफ-साफ कह दिया था कि अपने कस्बे की सीट से तो चुनाव मैं ही लड़ूंगा। जानीवाकर के साथ बैठकर उन्होंने रणनीति भी बना ली। कस्बे के अमुक मन्दिर में नारियल फोड़कर चुनाव-प्रचार का अभियान शुरू किया जाएगा। हम लोग इस दिशा से होकर उस दिशा में निकलेंगे। किस आदमी को क्या काम सौंपा जाएगा। नेताइन में भी एक नया जोश दिखाई देने लगा था। अपनी सखी-सहेलियों के बीच उनकी मुक्त हंसी अट्टहास के रूप में गूंजने लगी थी। बेशक उन अट्टहासों के तल में उनके दुख हाहाकार मचा रहे होते।
नेताजी का दुख इस बार एक नए अवतार में अवतरित हुआ। विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन हुआ तो उनके कस्बे की सीट आरक्षित श्रेणी में चली गयी। उन्होंने कहना शुरू कर दिया, ‘हमारे सारे नेता और मंत्री बेकार हैं। हम लोगों ने तो पार्टी के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। हमें क्या मिला? मजे करें स्साले ये, और मार खाएं हम! हम तो जी, इसका विरोध करेंगे। इस लड़ाई को हम सड़कों पर ले जाएंगे। चाहे इसके लिए हमें अपनी ही पार्टी का विरोध क्यों न करना पड़े।’ उनके बागी तेवर देखने लायक थे। उन्हीं की तरह अन्य पार्टियों के लोग भी मंसूबे पाले हुए थे और उनकी गिद्ध दृष्टि भी अपने कस्बे की सीट पर लगी हुई थी। सबने मिलकर दबाव बनाया। चुनाव आयोग को ज्ञापन भेजे। मेल और फैक्स सन्देश भेजे। लेकिन कुछ नहीं हुआ। प्रदेश के उनके ही मित्र एक मन्त्री जी के राजनीतिक कौशल के चलते वह सीट सुरक्षित श्रेणी में ही बनी रही।
कहते हैं सांप का डंसा पानी नहीं मांगता और चुनाव लड़ने के शौक में फंसा हार नहीं मानता। कस्बे के लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि, ‘अब हमारे नेताजी का क्या होगा? यहां से ये लड़ नहीं सकते, बाहर इन्हें कोई जानता नहीं!’ इसे नेताजी ने चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे चुनाव लड़ेंगे और अपनी ससुराल की सीट से लड़ेंगे।
चुनावों की विधिवत‍् घोषणा भी हो गई। नेताजी फिर सक्रिय थे। उनकी चाल-ढाल बदल गई। बात करने का ढंग बदल गया। वे विनम्र और गम्भीर हो गए। अपने आपको प्रत्याशी ही नहीं, विधायक समझने लगे। उन्होंने जगह-जगह से अपनी टिकट के लिए कहलवाना शुरू कर दिया। कई नेताओं से स्वयं मिले। हिम्मत कर के एक बार हाईकमान के पास भी पहुंचे। और जैसा कि उनकी कार्यशैली है, अपने पक्ष में सैकड़ों झूठे मेल और फैक्स स्वयं भिजवाए। अखबारों में बयान जारी कराए लेकिन यह क्या? वे सनाके में आ गए। उनका अपना ही मित्र जानीवाकर उनके साथ छल कर गया। उसने एनवक्त पर टंगड़ी मारी थी और उनका टिकट काटकर अपने लिए झटक लाया था। राजनीति में अपना ही मित्र सबसे बड़ा शत्रु होता है। यह बोध आज उन्हें गहरे तक साल रहा था। वे लगभग रो पड़े थे, ‘विश्वासघात! घोर विश्वासघात!!’’
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उस रात नेताजी की आंखों में नींद नहीं थी। थोड़ी-बहुत नींद आई भी, तो उसमें सपना आया। सपना आया तो सपने में चुनाव आया। चुनाव आया तो चुनाव में वे स्वयं आए। वे आए तो उनके साथ जानीवाकर आया। जानीवाकर आया तो वे गायब हो गए!
सुबह जब जानीवाकर ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी, तो नेताजी अनमने भाव से उठे। सपना भूलकर वे दरवाजे पर आ खड़े हुए। समर्थकों की छोटी-सी भीड़ के बीच फूल मालाओं से लदा जानीवाकर अपनी बेशर्म हंसी के साथ खड़ा था। दिलरुवा जी को जैसे पीट-पीटकर हंसाया गया हो, उन्होंने जैसे-तैसे अपने चेहरे पर खिसियाई मुस्कान लाते हुए जानीवाकर को खूब कसकर गले से लगाया। भीड़ ने नारा लगाया, ‘हमारा नेता कैसा हो!’ जवाब में पहला स्वर नेताजी का था- ‘जानीवाकर जैसा हो!’ उनकी आवाज बेहद थकी हुई, खुश्क और मरियल थी।
मतगणना शुरू हो चुकी थी। कभी जानीवाकर अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी रघुवीर सिंह से आगे निकल जाता, कभी पिछड़ जाता। सुनकर नेताजी के चेहरे के भाव बदलने लगते। अन्ततः जानीवाकर चुनाव हार गया। नेताजी के मन में प्रसन्नता की लहर उठी, लेकिन अगले ही पल पारे की तरह बिखर गई। जीतने वाले रघुवीर उनके सबसे बड़े दुश्मन थे। वे उन्हें ‘पैराशूट प्रत्याशी’ कहकर बहुत ही हल्का आंक रहे थे।
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कुछ दिनों तक भूमिगत रहने के बाद लोगों ने देखा कि दिलरुवा जी और जानीवाकर विक्रम और बेताल की तरह सड़क पर सीना ताने चले आ रहे हैं। गली के नुक्कड़ पर कुछ लोग ताश खेल रहे थे। उनमें से एक ने जैसे नारा लगा रहा हो, चिल्लाकर कहा, ‘नेताजी परनाम!’ सब के सब एक साथ खिस्स से हंस दिए। दोनों नेता-बन्धु तेजी से मुड़े और यू-टर्न लेकर गली में बिला गए। प्रणाम करने वाले ने अगली बाजी के लिए ताश की गड्डी फैंटना शुरू कर दिया। साथियों ने कहा, ‘ऊंहूं... यार क्या करता है? तेरा ध्यान कहां है! तूने जोकर भी पत्तों में मिला दिए!’ अब वह खिलाड़ी ताश की गड्डी में मिल गए जोकरों को बाहर निकाल रहा था।

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