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जीवन के खुरदरेपन में मिठास पैदा करने वाला कवि

08:02 AM Apr 21, 2024 IST
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राजेन्द्र गौतम 

सोलह अप्रैल, 2024 को माहेश्वर तिवारी के निधन के साथ समकालीन नवगीत का उच्चतम शिखर ढह गया। इसके साथ उनकी सात दशक की काव्य-यात्रा का अवसान हो गया। तिवारी जी की रचनाएं छठे दशक से ही ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थीं। ‘पांच जोड़ बांसुरी’, ‘नवगीत दशक-दो’, ‘यात्रा में साथ-साथ’, ‘गीतायन’ जैसे सभी प्रतिनिधि नवगीत संकलनों में उनके गीत शामिल हैं। उनके नवगीत-संग्रह हैं : ‘हरसिंगार कोई तो हो’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’, ‘नदी का अकेलापन’ और ‘फूल आये हैं कनेरों में’। इन संग्रहों का समकालीन कविता के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। काव्य-मंचों पर भी निरंतर उनकी उपस्थिति रही। उनका जन्म 22 जुलाई, 1939 को बस्ती, (उ.प्र.) में हुआ था। कुछ समय तक उन्होंने विदिशा में अध्यापन भी किया। उनकी संगीत-विशारद पत्नी विशाखा जी को चलने में कठिनाई थी। वे भी कॉलेज में पढ़ाती थीं। उनकी सुविधा का ध्यान रखते हुए माहेश्वर जी ने अध्यापन छोड़कर काव्य-मंचों को आजीविका का साधन बनाया।
माहेश्वर तिवारी के गीतों की ज़मीन बहुत विशिष्ट रही है। उन्होंने कृत्रिमताओं और बड़बोलेपन से दूर जीवन के ऐसे सहज चित्र प्रस्तुत किए, जिनमें पाठक के साथ चलने, उसकी संवेदना का हिस्सा बनने की अद्भुत क्षमता है। यह शक्ति उनकी काव्य-भाषा की बिंबात्मकता में निहित है। वे इसे नवगीत की काव्य-भाषा की विशिष्टता मानते हुए कहते हैं :- ‘नवगीत एक बिंबप्रधान काव्य-रूप है। उसमें सहजता तो अभिप्रेय है लेकिन सपाटबयानी नहीं। सपाट सिर्फ़ गद्य हो सकता है कविता नहीं। कविता... जितना व्यक्त करती है उतना ही अनकहा भी छोड़ देती है। दरअसल यह अनकहा ही तो कविता है।’
माहेश्वर तिवारी ने स्पष्ट किया : ‘नवगीत नई कविता से मुकाबले के लिए ओढ़ा गया कोई आवरण नहीं है। कविता के इतिहास में यथार्थ के दबाव से इसका जन्म हुआ।’ कम ही नवगीतकार ज़िंदगी के उतना निकट हैं, जितना माहेश्वर तिवारी। अति साधारण दृश्यों और घटनाओं से असाधारण संवेदना को व्यंजित करने वाले गीतों की रचना उनकी मौलिकता का आधार है। आश्वस्ति के स्पर्श में और रीढ़ को सिहरने वाले भय में क्या रिश्ता है, इसे परिवेश की हल्की रेखाओं से उभरने वाले बिंबों से वे कैसे चित्रित करते हैं, इसे ऐसे गीतों से समझा जा सकता है :-
‘उंगलियों से कभी/हल्का-सा छुएं भी तो/ झील का ठहरा हुआ जल/ कांप जाता है।
मछलियां बेचैन हो उठतीं/
देखते ही हाथ की परछाइयां
एक कंकड़ फेंक कर देखो/
कांप उठती हैं सभी गहराइयां
और उस पल/ झुका कन्धों पर क्षितिज की/ हर लहर के साथ/ बादल कांप जाता है।
माहेश्वर तिवारी मौजूदा दौर की चुनौती को स्वीकार करते हैं और बहुत धारदार शैली में अपने वक्त के वहशी चेहरे को बेनकाब करते हैं। विशेष यह है कि यह न तो नारेबाजी है और न नक्काशी। कविता की अनिवार्य उपस्थिति का नाम ही माहेश्वर तिवारी है। झुलसते हुए बारूदी सुरंगों के सफ़र को तय किया जाने का यह बयान बहुत मर्मस्पर्शी है :-
हम पसरती आग में
जलते शहर हैं
...हम झुलसते हुए
बारूदी सुरंगों के/ सफ़र हैं
कल उगेंगे/ फूल बनकर हम/
जमीनों में
सोच को/ तब्दील करते/ फिर यकीनों में
आज तो/ ज्वालामुखी पर/ थरथराते हुए घर हैं
नवगीत की रचना-प्रक्रिया में बिंबात्मकता के अतिरिक्त भाषा का रूपकात्मक और प्रतीकगर्भित प्रयोग इसकी नयी शैली का निर्माण करता है। जहां ये प्रयोग सहज एवं संवेदनाश्रित हैं, वहां वे इसकी उपलब्धि बने हैं, जहां उन्हें चमत्कार का जामा पहनाया गया है, वहां वे खिलवाड़ लगते हैं। माहेश्वर तिवारी के काव्य में प्रकृतिधर्मी प्रतीकों का अद्भुत प्रयोग नवगीत ही नहीं, समूची हिन्दी कविता में एक विशिष्ट स्थान रखता है। जिजीविषा और संघर्ष को प्रकृतिधर्मी प्रतीकों से माहेश्वर तिवारी ने ऐसे अद्भुत गीतों की रचना की है।
यद्यपि माहेश्वर तिवारी ने रूमान को अभिव्यक्त करते ‘याद तुम्हारी जैसे कोई/ कंचन-कलश भरे।’ जैसे कालजयी गीतों की भी रचना की है लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या उनके ऐसे गीतों की है, जिनमें अपने समय का दर्द गूंजता है। अपनी समस्त सौंदर्य-चेतना के बावजूद कविता यदि गूंगों की ज़ुबान नहीं बन पाती तो उसकी प्रासंगिकता संदिग्ध है। तिवारी जी के गीतों में मौजूद गहरा चिंतन हालात की प्रामाणिक तस्वीर ही नहीं है, सामाजिक संघर्ष का दस्तावेज़ भी है।
अंतत: माहेश्वर तिवारी द्वारा अपनी कविता के प्रेरणा-स्रोतों का यह उल्लेख उन्हें जीवन से जुड़ा हुआ कवि ही सिद्ध करता है : ‘मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूं। मुझे बिंब और भाषा के लिए किसी द्राविड़ प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती। हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयं यह मिठास भर देती है। कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है। जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख्त छिलका, गांठें हटाकर। उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है। मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है। सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूं। यह मिठास वहां से भी मिलती है। मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा स्रोत है। वहां से भाषा भी मिलती है और विचार भी।’

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