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जिज्ञासुओं के लिए जरूरी एक कृति

07:44 AM Mar 31, 2024 IST
पुस्तक : कलाओं की अंतर्दृष्टि लेखक : डॉ. राजेश कुमार व्यास प्रकाशक : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नयी दिल्ली पृष्ठ : 164 मूल्य : रु. 230.

योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

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डॉ. राजेश कुमार व्यास की यह पुस्तक निश्चय ही कलाओं के विषय में गंभीर जिज्ञासा रखने वालों के लिए मूल्यवान कही जा सकती है। कुल 23 अत्यंत चिंतनपरक निबंधों में लेखक ने भारतीय कलाओं के विभिन्न पहलुओं पर प्रामाणिक दृष्टि से विचार किया है। ‘कला-इतिहास की भारतीय दृष्टि’, ‘कलाओं का हमारा सौंदर्यबोध’, ‘कलाओं में श्लील और अश्लील’, ‘कलाओं के अंतःसंबंध’ और ‘गीतों की भोर, रंगों की सांझ’ शीर्षक निबंध तो ऐसे हैं, जिन्हें पढ़कर पाठकगण वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला और काव्यकला’ के सूक्ष्मतम रहस्यों और तत्वों से परिचित हो सकते हैं।
लेखक डॉ. राजेश ने ‘पुरोवाक’ में लिखा है ‘कलाओं की हमारी अंतर्दृष्टि पर पश्चिम की छाया इतनी घनी है कि हम अपने मूल में प्रायः झांक ही नहीं पाते हैं। यूरोप की छाया में कलाओं का अर्थ प्रायः द्रव्य-निर्मित माने प्लास्टिक कला से ही लिया जाता है। पर हम इस पर गौर नहीं करते हैं कि हमारी अपनी कलाएं भाव-संवेदना से जुड़ी अंतर का आलोक जगाने वाली, आत्म से साक्षात्कार की महती साधना है।’
यही सकारात्मक और भारतीय दृष्टि इस पुस्तक का वह ‘प्राण-तत्व’ है, जो इसे जिज्ञासुओं के लिए अनिवार्यतः पठनीय बना देता है। ‘योग का हमारा कला-बोध’ निबंध में लेखक का निष्कर्ष हमें अभिभूत कर देता है- ‘सृष्टि की हमारी प्रक्रिया, योग की प्राचीन भारतीय परंपरा के निहितार्थ में जाएंगे तो कला के हमारे सौंदर्यबोध से जुड़ते हम बहुत से और सूत्र जुटा लेंगे। सभ्यता की हमारी कहानी के इस संस्कृति पर्व में गहराई से उतरने की जरूरत है।’ ‘कलाओं का हमारा सौंदर्यबोध’ वस्तुतः इस निबंध संकलन का सर्वाधिक विचारोत्तेजक एवं चिंतनपरक निबंध है, जिसमें लेखक कहते हैं ‘सौंदर्य शास्त्र असल में, प्रकृति और जीवन में निहित सौंदर्य का विज्ञान नहीं है, बल्कि वह कलाओं में बसे सौंदर्य का ज्ञान है। कला सौंदर्य की सृष्टि करती है, पर इस बात को भी गहराई से समझना होगा कि रंग और रेखाओं की कोई भी निर्मिति चित्रकला नहीं है।’
और, अंत में इस कृति के बहुत छोटे से निबंध ‘कलाओं के आदिदेव’ का उल्लेख करना चाहूंगा, जिसके माध्यम से डॉ. राजेश व्यास ने कहा है ‘शिव कलाओं के सर्वांग हैं। भरतमुनि के ‘नाट्य शास्त्र’ में शिव के नृत्य के अंगहारों का अनूठा वर्णन है। नाद-मधुर स्वर और ताल के मिश्रण से तैयार श्रव्य संगीत, मुख मुद्राएं, अंगहार, शारीरिक हलचलों के माध्यम से बने स्वरूप की संधि में शिव की कलाओं के कितने रूप उभरते हैं।’
डॉ. व्यास की यह कृति निश्चय ही कलाप्रेमियों को पसंद आएगी और गंभीर कला चिंतकों की मानसिक भूख को शांत कर सकेगी।

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