प्रेमिल अनुभूति
पुरुषोत्तम व्यास
बदल गई परिभाषा प्रेम की
पर नहीं बदला प्रेम
आज नयनों में लिखी होती
कविता
आज भी कवि का हृदय धड़कता
भंवरों की तरह होता प्रेम
सुमन-सुमन फिरा करता
नहीं कुचलता सुमनों को
रसमय जीवन जीया करता
अधिकार भरी भाषा परे
डाली-डाली टहनी-टहनी
खिला करता...
न पीड़ा देना
न मर मिटने वाली सोच
धारा एक बह पड़ती
नयनों से नयन मिला करते
प्रेम-भरी छोटी-सी अनुभूति
रहती संग हर क्षण
प्रेम है जीवन में जिसके
संग परमात्मा उसके होता
मिला प्रेम
खुश नसीब समझे
मार-धाड़ वाली परिभाषा से
कवि बेचारा कुछ गढ़ न पायेगा।
पचपन में बचपन
मन बच्चे-सा लग रहा
चलाऊं रेलगाड़ी
दौड़ लगाऊं तितली के पीछे
रेत में घर बनाऊं...
बिना हाथ धोये कुछ भी खाऊं
हर राहगीर से हाथ मिलाऊं
कुत्ते के बच्चों को रस्सी बांध
घर ले आऊं
नहीं परवाह गंदे कपड़ों की
टूटी चप्पल के संग दौड़ लगाऊं
समोसे और कचौरी देख
मुंह पानी भर लाऊं
कल के बारे में नहीं सोचू
नये-नये सपने में खो जाऊं
बगीचे घूमने की घोषणा पर
पहले ही तैयार हो जाऊं
रेलगाड़ी में खिड़की के पास बैठूं
रंग-बिरंगी पक्षी देख मुस्कुराऊं
हाथी के पीछे-पीछे चलूं
बंदर का खेल देख ठहाके लगाऊं
दिवाली में फुलझडि़यां जलाऊं
होली में रंगों में डूब जाऊं
बारिश में भीगते-भीगते नाचूं
पकोड़ों को पहले मैं ही खाऊं
लगता ज्यादा बड़ा हो गया
बात-बात पर बखेड़ा हो गया
छोटी-छोटी खुशियों पर
क्यों दूर हो गया...