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थोड़ी सी छांव

08:13 AM Oct 20, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

सृष्टि की आवाज़ लड़खड़ाने लगी और फिर उसकी आंखें में आंसुओं की धारा बहने लगी! मैंने उसे रोका नहीं लेकिन मेरा पत्रकार शर्मिंदा होकर रह गया, शायद वह लक्ष्मण रेखा लांघ गया था! सृष्टि के जीवन में इस तरह झांकने का मेरा कोई अधिकार नहीं था। इसलिए भाग गया और मैं एक संवेदनशील व्यक्ति बनकर लौटा और सृष्टि के कंधे थपथपाते पूछा-अब क्या सृष्टि?

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कमलेश भारतीय

ये कैसा सच था? यह मैं क्या पढ़ रहा था? यही सच था तो ऐसा क्यों‌ था? ये सृष्टि की डायरी के मात्र तीन पन्ने उसके जीवन का सच बयान कर रहे थे। सृष्टि एक प्राध्यापिका के साथ एक कवयित्री भी है और हम साहित्यिक गोष्ठियों में एकसाथ काव्य पाठ करते, मुलाकातें होतीं और सुनते सुनाते। इन्हीं गोष्ठियों में सृष्टि को लगा कि मैं उसकी कविताओं को रंग-रूप दे सकता हूं और वह पहली बार घर आई और अपनी डायरी मुझे ऐसे सौंप गयी, जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु को सौंप रही हो और बोली-सर! मेरी इन कच्ची-पक्की कविताओं को थोड़ा देख लीजिए। यदि आप कहेंगे तो एक कविता संग्रह मैं भी प्रकाशित करवा लूंगी!
इस तरह सृष्टि मेरे लिखने-पढ़ने की मेज़ पर अपनी डायरी रखकर चली गयी थी। कुछ दिन डायरी ऐसे ही पड़ी रही, फिर एक दिन जैसे उसकी कविताओं ने चिड़ियों की तरह चहचहा कर मुझे अपनी ओर बुला लिया। मैंने डायरी में से कवितायें पढ़नी शुरू कीं और एक जगह कवितायें न होकर उसकी अपनी ज़िंदगी का सच मेरे सामने था, पूरे तीन पन्नों में लिखा हुआ! क्या सृष्टि इन्हें डायरी सौंपते समय भूल गयी थी या वह इन पन्नों को मुझ तक पहुंचाना चाहती थी? मैं कुछ समझ नहीं पाया लेकिन ये पन्ने करवा चौथ जैसे नारी के जीवन के महत्वपूर्ण दिन पर लिखे गये थे, इसलिए बहुत मायने रखते हैं! वैसे तिथि को देखकर पता चला कि ये पन्ने पांच साल पहले लिखे गये थे यानी पांच साल से रोज कितनी कशमकश में ज़िंदगी गुजार रही है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। मैं आपके सामने सृष्टि की डायरी के पन्ने रखने जा रहा हूं-जस के तस!
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आज इस करवा चौथ पर न मैं खुश हूं और न ही मेरे मन में कोई उमंग है! न जीने को दिल करता है और न ही मरने को! मैं अजीब-सी स्थिति में जी रही हूं। मन में ढेरों सवाल उठ रहे हैं पर पूछूं तो किससे? आज मेरी हालत ऐसी है कि किसी से भी अपने दिल की हालत बयान नहीं कर सकती! बस, एक घुटन में जी रही हूं, जैसे किसी गैस चैम्बर में बंद कर दी गयी हूं। मैं सब बंधन तोड़कर आज़ाद होना चाहती हूं। पर पता नहीं ये परिवार, रीति-रिवाज, समाज और मेरे संस्कार रास्ता रोके खड़े हैं मेरा! सबके बीच बेबस हो जाती हूं। मेरे दो बेटे हैं, जिनसे मैं बहुत प्यार करती हूं। वे मेरे सबसे बड़े बंधन हैं। उनके लिए मैं अपनी जान भी दे सकती हूं। मैं उनसे कभी अलग नहीं हो सकती, वे मेरे अभिन्न अंग हैं।
आज करवा चौथ पर बहुत से बधाई के मैसेज भी आ रहे हैं, जो कह रहे हैं कि हर ब्याहता स्त्री अपने परिवार, करिअर, खुशियों और अपनी आज़ादी को परिवार पर कुर्बान कर देती है, कर देनी चाहिए, ऐसे भी संकेत हैं। यदि स्त्री इन हदों के बाहर जाती है तो उसके अपने ही उसे लौटने व सही राह पर चलने की हिदायतें देने लगते हैं! यही नहीं, उसे उसके इरादों को तोड़ने की कोशिश करते हैं।
क्या बताऊं, ईश्वर ने मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ पवित्र बंधन में बांधा, जो बिल्कुल मुझसे विपरीत है जैसे कालिदास व विलोम! न मेरे जैसी परवरिश न ही मेरे जैसे विचार! दो विपरीत ध्रुव हों जैसे हम दोनों! मुझे कोई सुकून नहीं मिला आज तक! मैं घुट-घुट कर जी रही हूं, जीती जा रही हूं। बस समय काट रही हूं। काटे नहीं कटते दिन, ये रात जैसी हालत है मेरी।
देख रही हूं कि आज अखबार में भी स्त्री के लिए करवा चौथ के महत्व पर पन्ने भरे पड़े हैं। करवा चौथ पर स्त्री को सजने-संवरने के टिप्स दे रखे हैं पर मुझे किस सजना के लिए सजना है जो मैं इन पन्नों को पढ़कर समय क्यों खराब करूं? पुरुष तो इतना ही चाहता है कि उसकी पत्नी सजे-संवरे और दिन भर भूखी रहकर उसके नाम की माला जपती रहे। हर काम पति की मर्ज़ी से करे। वही काम करे, जिसमें पति की खुशी हो। बस, उसके कदमों पर चले, ज़रा भी इधर-उधर न हो! स्त्री का प्रभुत्व पुरुष को कभी स्वीकार नहीं, सदियों से! वह करवा चौथ जैसे संस्कार और परंपरा के नाम पर स्त्री को उलझाये रखना चाहता है। हम महिलायें खुद कमा रही हैं लेकिन पति के उपहार की राह देखतीं भूखी रहकर दिन काट देती हैं! पुरुष समाज ने बचपन से ही ऐसी सोच बना दी है हमारी! ये संस्कार हमारे बंधन बनते चले गये। कोई भी महिला इन संस्कारों से बाहर नहीं जा सकती और जाये तो परिवार टूट जाये! स्त्री अपने पति के इशारों पर नाचती है, समाज में पतिव्रता दिखाने के लिए।
हे ईश्वर! मुझे इन बंधनों से मुक्ति दे दो!!
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ये कौन-सी सृष्टि मेरे सामने थी? ये सृष्टि का कौन-सा चेहरा था? साहित्यिक गोष्ठियों में वह बहुत शांत-सी, हल्की-सी मुस्कान बिखेरती मिलती थी। फिर यह सृष्टि मन की किन गुफाओं में कहां छिपी बैठी थी और कब से? सच में हर इंसान के अनेक चेहरे होते हैं। सृष्टि का यह चेहरा मुझे झकझोर कर रख गया! वह गोष्ठियों में थोड़ा सकुचाती हुई आती थी भाग लेने, जैसे कोई चोरी कर रही हो और पकड़े जाने के डर से परेशान भी रहती हो। तभी वह बार-बार कहती थी कि सर! संडे को रखा करो गोष्ठियां! छुट्टी वाले दिन रखी गोष्ठी में वह सहज रहती थी लेकिन उसके शांत से चेहरे के पीछे इतने तूफान उमड़ते रहते होंगे, यह भेद आज ही खुला। मन की गुफाओं में हर आदमी कितना कुछ छिपाये रखता है! फिर मैंने सृष्टि की कविताओं के विषयों पर ध्यान दिया तो और भी हैरान हो गया! सृष्टि की कविताओं में असल में यही तीन पन्नों वाली बात बार-बार आ रही थी-किसी बच्ची के साथ जन्म के बाद से ही भेदभाव समाज में, परिवार में और फिर यह भेदभाव शादी-ब्याह के बाद भी बढ़ते चले जाना! चाहे मायका हो या ससुराल, नारी के मन की बात कोई सुनने को, मानने को तैयार नहीं! न उसकी रुचियों का सम्मान और न ही उसकी भावनाओं की कद्र! करे तो क्या करे? जाये तो जाये कहां? सृष्टि सचमुच घुट-घुट कर जी रही थी, पल-पल मर रही थी लेकिन बेटों से प्यार उसे जीने के लिए एक रास्ता, एक खूबसूरत बहाना बना हुआ था! ये कवितायें उसके करवा चौथ वाले दिन लिखे तीन पन्नों की देखा जाये तो काव्यमयी अभिव्यक्ति कही जा सकती हैं। एक नन्ही बच्ची प्यार का थोड़ा-सा आंचल मांग रही है, एक नारी अपने मन का करने की आज़ादी मांग रही है और किसी ऐसे अनदेखे संसार की कल्पना में खोई हुई है, जहां उसे अपने मन का करने की आज़ादी होगी! ये कवितायें सृष्टि की छिपी हुई, आधी-अधूरी चाहतें कही जा सकती हैं! नारी संघर्ष करे तो कैसे? जैसे जीने की एक राह तलाश रही थी सृष्टि!
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आखिर मैंने डायरी में लिखीं सभी कवितायें पढ़ लीं और सृष्टि को बता दिया कि कवितायें पढ़ ली हैं और फुटनोट दे दिये हैं, किसी भी दिन आकर ले जाओ अपनी डायरी! सृष्टि ने कहा कि सर, किसी छुट्टी वाले दिन आ जाऊंगी और वह एक दिन फोन करके आ भी गयी!
थोड़े से जलपान के बाद मैंने उसकी डायरी के वे पन्ने खोलकर सृष्टि के सामने रख दिये!
सृष्टि को पन्ने देखते ही जैसे कुछ याद आया, जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो और उसके चेहरे पर भी संकोच और लाज के रंग दिखने लगे! कुछ देर‌ बाद संयत होकर बोली-सर! बस, उस दिन मैंने अपने मन का गुबार अपनी सखी डायरी को सुना दिया पर आपको डायरी देते इन पन्नों की ओर ध्यान न गया मेरा! माफ कीजिये!
पर ऐसा लिखना ही क्यों पड़ा सृष्टि?
मेरे अंदर का पत्रकार जाने कहां से निकल आया बाहर एकदम से!
सर! ये बात मेरे बचपन से जुड़ी है।
कैसे?
मैं नौवीं में पढ़ती थी और एक रात जब हम भाई-बहन खा-पीकर सो गये लेकिन मैं अधसोई-सी थी, तब मेरे बाबा मां को कहने लगे कि बेटियां बड़ी हो गयी हैं, अब इनकी शादी करेंगे नहीं तो क्या पता क्या दिन दिखायें! मैंने मन ही मन प्रण कर लिया कि मैं अपने बाबा का सिर कभी नीचा न होने दूंगी और फिर दसवीं पढ़ते-पढ़ते मेरी और बड़ी बहन की एक ही घर में शादी हो गयी, ये दोनों‌ सगे भाई थे। मैं पढ़ना चाहती थी लेकिन शादी कर एक तरह से मेरी राहें बंद‌ करने की कोशिश की बाबा ने।
फिर? बचपन की शादी कैसी लगी?
बिल्कुल वैसी ही जैसी महात्मा गांधी ने लिखा कस्तूरबा के बारे में कि अच्छे-अच्छे कपड़े मिलेंगे और खेलने के लिए एक साथी!
तो मिला फिर साथी?
नहीं न! ये प्लस टू पढ़े थे और दिन भर दोस्तों के बीच बिताकर आते थके-हारे! नयी नवेली दुल्हन का चाव नहीं मन में! फिर इनकी नौकरी लग गयी फौज में! कभी लम्बी छुट्टी आते पर साथ आती मेरी सौतन शराब!
फिर आगे कैसे पढ़ी सृष्टि?
मैंने मना लिया ससुराल वालों को और काॅलेज में एडमिशन ले लिया। इससे मैं सासु की झिड़कियों से भी बच गयी। सासु यहां तक कहती कि इसे तो झाड़ू लगाना भी नहीं आता और घूंघट भी ढंग से नहीं निकालती! ये आते तो काॅलेज थोड़ा मिस होता,बाकी मैं ग्रेजुएशन ही नहीं बीएड भी कर गयी और प्राइवेट एमए भी! बीच में दो प्यारे-प्यारे बेटे भी सौगात की तरह आये!
कभी साथ नहीं गयी सृष्टि?
गयी! एकबार जिद करके गयी कि हमें भी अपने साथ ले चलो और कुछ समय रही पर बच्चों की पढ़ाई एक जगह टिक कर करवाने के लिए यहीं लौट आई और देखो बच्चे बन भी गये अच्छी जाॅब पर भी लग गये हैं!
अब क्या फिक्र है सृष्टि?
मेरी वही सौतन शराब इनके साथ लौट आई है रिटायरमेंट के बाद! ये मेरे पास होते हुए भी जैसे मेरे पास नहीं होते! ऊपर से शक का कीड़ा बढ़ता ही जा रहा है और बस, मैं तंग आ गयी इस, सबसे और लिख डाले ये पन्ने, कह डाला डायरी सखी को अपना सारा दुख-दर्द! एक बार तो मन हल्का कर लिया, सर पर आज...
शक कैसा?
बहुत शक्की हैं मेरे हसबैंड, सर! अब स्कूल में जाॅब कर रही हूं तो किसी क्लीग का दफ्तर के काम से फोन आयेगा और ये ढेरों सवाल करने लग जायेंगे! अब गोष्ठियों में आऊं तो सवाल कौन हैं तेरे वहां? दूसरे दिन का अखबार दिखाती हूं कि ये थे मेरे वहां!
फिर सृष्टि की आवाज़ लड़खड़ाने लगी और फिर उसकी आंखें में आंसुओं की धारा बहने लगी! मैंने उसे रोका नहीं लेकिन मेरा पत्रकार शर्मिंदा होकर रह गया, शायद वह लक्ष्मण रेखा लांघ गया था! सृष्टि के जीवन में इस तरह झांकने का मेरा कोई अधिकार नहीं था। इसलिए भाग गया और मैं एक संवेदनशील व्यक्ति बनकर लौटा और सृष्टि के कंधे थपथपाते पूछा-अब क्या सृष्टि?
बस, सर थोड़ी-सी छांव चाहिए, पूरा जीवन धूप में नंगे पांव चलते-चलते काट दिया! पांवों पर तो नहीं मन पर न जाने कितने बोझ बढ़ते गये! उफ्फ!
मैं कुछ कह न सका और सृष्टि आंसुओं को समेटती, डायरी उठाकर चल दी!

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