लोक कल्याण के लिए अर्पित जीवन
आर.सी. शर्मा
भारत के इतिहास और पौराणिक काल में कई दानी और परोपकारी व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है, लेकिन महर्षि दधीचि से बड़ा कोई दानी और परोपकारी नहीं हुआ। वे त्याग, परोपकार और दानशीलता की पराकाष्ठा के प्रतीक हैं। उन्होंने अपनी कोई प्रिय वस्तु या मूल्यवान चीज का नहीं, बल्कि अपने प्राणों का ही दान दिया था। महर्षि दधीचि की जयंती 11 सितंबर को मनाई जाती है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उनका जन्म ऋषि अथर्वा और माता चित्ति (या शांति) के पुत्र के रूप में हुआ था।
एक बार जब महर्षि दधीचि घोर तपस्या में लीन थे, तो उनकी तपस्या के ताप से इंद्र का सिंहासन डोलने लगा। इससे राजा इंद्र घबरा गए और सिंहासन पर संकट देखकर उन्होंने महर्षि दधीचि की तपस्या को भंग कराने के लिए देवलोक से कामदेव और एक अप्सरा को भेजा। मगर वे असफल रहे। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ऋषि की हत्या के लिए अपनी सेना भेज दी। लेकिन इंद्र की सेना के अस्त्र-शस्त्र भी महर्षि दधीचि के 500 मीटर दूर पहुंचने के पहले ही उनके तप के ताप में पिघल गए। देवताओं के राजा इंद्र की सेना महर्षि दधीचि को मारना तो दूर, उनके बहुत नजदीक भी नहीं जा सकी और वे अपनी समाधि में लीन रहे।
इसके कुछ दिनों बाद महाबली असुर वृत्तासुर ने देवलोक में आक्रमण कर दिया। देवता अपनी सारी ताकत लगाने के बाद भी उससे पार नहीं पा सके। जल्द ही देव लोक में त्राहि-त्राहि मच गई। इस पर देवराज इंद्र भगवान विष्णु के पास गए और भगवान विष्णु से विनती की कि वे देवताओं को वृत्तासुर के कोप से बचाएं, वरना समस्त देवताओं का वध हो जाएगा। भगवान विष्णु ने उत्तर दिया, ‘उसे तभी मारा जा सकता है, जब मृत्युलोक में तपस्या कर रहे महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र नामक अस्त्र बनाया जाए और इससे इस महाबली दैत्य पर प्रहार किया जाए।’
यह सुनकर देवराज इंद्र बहुत असमंजस में पड़ गए, क्योंकि महर्षि दधीचि के पास कैसे जाएं, जिन्होंने उनकी तपस्या भंग कराने के लिए बहुत अपराध किए थे। लेकिन चाहे देवता हो या आदमी, हर किसी को अपनी ही परवाह सबसे ज्यादा होती है। इसलिए सारी असहजता और संकोच को भुलाकर देवताओं के राजा इंद्र महर्षि दधीचि से उनकी हड्डियां मांगने के लिए उनके आश्रम पहुंचे। जब वे वहां पहुंचे, महर्षि तपस्या में लीन थे। इंद्र ने महर्षि दधीचि की आंखें खोलने का इंतजार किया। जब तपस्या टूटी, तो उन्होंने देखा कि देवराज इंद्र हाथ जोड़े खड़े हैं। महर्षि ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘देवराज इंद्र, मृत्युलोक में आपका किस कारण से आगमन हुआ?’
इंद्र ने उन्हें पूरी कहानी सुनाई। यह सुनकर महर्षि दधीचि मुस्कुराते हुए बोले, ‘अगर मेरी हड्डियां त्रिलोक की सुरक्षा के काम आएं, तो मेरा इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा?’ इसके बाद महर्षि ने आंखें बंद की और योग विद्या से कुछ ही क्षणों में न केवल अपने प्राण त्याग दिए, बल्कि कुछ ही देर में उनकी त्वचा, मांस और मज्जा अलग हो गए। केवल हड्डियां ही बची रहीं। देवराज इंद्र ने इन हड्डियों को देवशिल्पी विश्वकर्मा को सौंपा, जिन्होंने वज्र नामक प्रचंड अस्त्र का निर्माण किया। अंततः इसी अस्त्र के एक ही प्रहार से वृत्तासुर का अंत हो गया। इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर