मज़हबी भेदभाव से परे सुकोमल अहसास
अमृतलाल मदान
आम पाठक के लिए स्व. कृष्णा सोबती की किसी कृति को पढ़ना भाषा के स्तर पर टेढ़े-मेढ़े रास्ते से गुज़रना है। मुझे खुशी है कि मैं अपने लड़कपन में विभाजन के दौरान उस धरती से भारत आया जहां लहंदा बोली बोली जाती थी, जिसके बहुत से शब्द व मुहावरे समीक्ष्य कृति में हैं। वहां के अंचल के ‘चोह’ (पहाड़ी नाले), नदी, घोड़े, रीति-रिवाज, कवित्त, हकीमी उपचार, खाद्य पदार्थ, धार्मिक भाईचारे, हवेलियां-झोपड़ियों की यादें भी मेरे मन में बची रहीं, तभी तो मैं कृति के मर्म में पैठ कर सोबती की अद्भुत सृजनशीलता का आनंद उठा पाया।
इसकी कहानी में एक हिंदू शाह जी हैं, जो विवाहित हैं तथा एक बड़े होते बेटे लाली के पिता भी। वे गांव में एक मुस्लिम किशोरी के उस्ताद भी हैं जो उसके रचित कवित्त को शौक से सुनते और दुरुस्त करते हैं। उम्र व मज़हब की इन खाइयों के बावजूद दोनों रूहानी रूप से रिश्ते का अदृश्य पुल बना लेते हैं।
एक देर-शाम शहर से लौटते हुए चोह में अचानक आई बाढ़ में घोड़े सहित शाह जी के बह जाने का दृश्य राबी अपनी छत से देखते ही उन्हें बचाने के फिक्र में झट से चोह में कूद पड़ती है। कोहराम मचता है, लोग भागदौड़ करते उन्हें दूर कहीं पानी से निकाल तो लेते हैं किंतु वे मरणासन्न अवस्था में हवेली में अब उपचाराधीन हैं जहां शाहनी राबी के प्रति कृतज्ञता एवं ईर्ष्या के बीच द्वंद्वरत रखती है। फलस्वरूप बहुत समय बाद राबी भी दरिया को आत्मसमर्पण कर देती है किंतु उससे पहले आत्मीय अहसासों का समर्पण भी होता है। कालांतर में अन्य पात्र भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। प्राणोत्सर्ग की इस कथा के बरअकस ‘गर्दन पर तिलक’ शीर्षक से एक और लंबी कहानी भी है इसी जिल्द में। इसमें वर्तमान समय की दिल्ली में प्राॅपर्टी डीलरों द्वारा गांव से आए रोजगार तलाशते युवाओं की खाल खींचने के षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया गया है। इन डीलरों के लिए पैसा ही सब कुछ है, नैतिकता, दया आदि मूल्य कुछ भी नहीं। इन दोनों कथाओं में समयों की विसंगतियां द्रष्टव्य हैं।
पहली कथा में भाषाई सौंदर्य पंजाबी-लहंदा के शब्दों व मुहावरों का सरल हिंदी के संग सम्मिश्रित रूप भी देखने योग्य है। इनमें संस्कृत, फारसी-अरबी तड़का भी है।
सोबती का धाकड़पन न केवल भाषाई स्तर पर अपितु कथ्य के स्तर पर भी प्रभावित करता है जहां वह धर्म-मज़हबी भेदभाव के खिलाफ जिहाद और प्रेम-प्यार के पक्ष में, त्याग के पक्ष में जयनाद करती प्रतीत होती हैं।
पुस्तक : वह समय यह समय लेखिका : कृष्णा सोबती प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 150 मूल्य : रु. 250.