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संदेश के बिना फिल्म बेमतलब

07:38 AM Sep 07, 2024 IST
चित्र : लेखक

दीप भट्ट
एक सफल फिल्म निर्देशक बनने का सपना लेकर मुंबई आए रजत कपूर ने ‘रघु रोमियो’ का निर्माण व निर्देशन कर अपनी निर्देशकीय प्रतिभा का परिचय दिया। फिर ‘डबल मिक्सड’ जैसी अर्थपूर्ण फिल्म का निर्माण किया। ‘मानसून वेडिंग’,‘दिल चाहता है’ और ‘तुम’ में निभाई उनकी भूमिकाएं दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय रहीं। रजत ने कुछ शार्ट फिल्में भी बनाईं। एक फिल्म थी, ‘प्राइवेट डिटेक्टिव’, जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने अभिनय किया। उनकी दूसरी फिल्म ‘रघु रोमियो’ के डायलॉग चर्चित अभिनेता व रंगमंच कलाकार सौरभ शुक्ला ने लिखे। उनका फिल्मी सफर जारी है। यहां वह खुद बता रहे हैं अपनी कहानी :

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बिना मैसेज बेमकसद है सिनेमा

बचपन से मुझे मालूम था कि मैं फिल्म बनाने वाला हूं। मुझे यह नहीं मालूम था कि मैं कैसी फिल्म बनाऊंगा। पर यह पता था फाइनली कि मैं फिल्म बनाऊंगा। फिर मैंने धीरे-धीरे करके कॉलेज के बाद दिल्ली में थिएटर शुरू किया। वहीं हमारा एक थिएटर ग्रुप था-चिंगारी। वह करने के बाद मैं फिल्म एंड टेलीवीजन इंस्टीट्यूट पुणे गया। वहां तीन साल डायरेक्शन में पढ़ा। फिर मुंबई आया।

बायचांस चालू हो गया अभिनय

जहां तक अभिनय का सवाल है, यह बायचांस चालू हो गया। कुछ टीवी सीरियल किए, कुछ फिल्में कीं व टीवी एड किए। फिल्मों में ‘मानसून वेडिंग’,‘दिल चाहता है’,‘तुम’ और ‘मुद्दा’ शामिल हैं। इन सभी फिल्मों में मेरी महत्वपूर्ण भूमिकाएं थीं। इन्हें करने में काफी मजा आया। ज्यादा फिल्में करना मैं नहीं चाहता। एक तो रोल बड़े अलग से होते हैं, हिन्दी फिल्मों में। साल में एक फिल्म हो लेकिन ढंग की हो।

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मैसेज बिन फिल्म फिज़ूल

मौजूदा फिल्मी माहौल से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। हम लोग मेन स्ट्रीम सिनेमा में कुछ स्टार्स के साथ काम करना चाहें, ऐसी कोई इच्छा लेकर भी नहीं आए। हम अपनी फिल्में बनाना चाहते हैं। अपना एक विज़न है। अगर फिल्म में मैसेज नहीं है तो उसका कोई मकसद नहीं है। ऋत्विक घटक एक महान फिल्मकार हैं भारत के। ‘मेघे ढाके तारे’, ‘सुवर्णो रेखा’ की टक्कर की फिल्में मैंने दुनिया में नहीं देखी। मुझे चार्ली चैप्लिन, फैलिनी, आर्सन वेल्स और दुनिया के कई और महान फिल्मकारों ने प्रभावित किया। आज मेहनत करने वालों के सपने हिन्दुस्तान भूल ही गया है। फिल्म वाले ही नहीं, मुझे लगता है हिन्दुस्तान के सारे पढ़े-लिखे लोग जो महानगरों में रहते हैं, वो भूल ही गए हैं कि एक दूसरा हिन्दुस्तान भी है, जिसमें कम आमदनी वाले लोग रहते हैं।

अपने अनुभवों से ही सृजन

‘रघु रोमियो’ में रघु एक वेटर है। उसको चार सौ रुपये की जरूरत है। उन 400 रुपये के पीछे उसकी पूरी जिन्दगी हिल जाती है। फिल्मों में तो बात होती है दो करोड़, चार करोड़ और आठ करोड़ की। लेकिन चार सौ रुपये एक आम इनसान के लिए बहुत बड़ी चीज हैं। मैं गांव में कभी रहा नहीं। मैं हीरा-मोती की कहानी नहीं बना सकता। अगर बनाऊंगा भी तो वह झूठी होगी। मुझे जो ढूंढना होगा अपना सच ढूंढना होगा अपनी जिन्दगी में से।

नया ट्रीटमेंट, नई कहानी हो

इस तरह के नए कहानीकार आए थे लेट सिक्सटीज तक। एक हिन्दी कहानी की मूवमेंट हुई थी। राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, मोहन राकेश जैसे साहित्यकार- इसी तरह के साहित्यकार अच्छे लगते हैं, उनमें मनोहर श्याम जोशी हैं। जिनका ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ और ‘कसप’ उपन्यास मुझे अद्भुत लगते हैं। अच्छा लगता है, जब बड़े-बड़े फिल्मकारों की बड़ी-बड़ी फिल्में जैसे-‘बूम’ पिट गई थी, क्योंकि पचास साल से आप कह रहे हैं कि हम वही दे रहे हैं, जो दर्शक चाहते हैं। दर्शक ने कह दिया कि आपने बहुत बेवकूफ बनाया, अब बस करिए। नया ट्रीटमेंट, नया विज़न, नई कहानी उनके लिए आए।

देश में अच्छे सिनेमा की गुंजाइश

जहां तक कंटेंट का सवाल है तो आज यह संकट दुनिया भर के सिनेमा में बना हुआ है। दुनिया का सिनेमा इस वक्त पतनशील है, इसमें कोई शक नहीं है। आज अच्छा सिनेमा कहां से आ रहा है- ईरान से आ रहा है। कमाल का सिनेमा बनता है वहां। अच्छा सिनेमा हांगकांग से आ रहा है। ताईवान से आ रहा है। हिन्दुस्तान में बन सकता है अच्छा सिनेमा, पर हिन्दुस्तान वाले सोचना ही नहीं चाहते, कोशिश ही नहीं करते, लिखना ही नहीं चाहते। नेहरू के जमाने में एक सपना तो था वो फिल्मों में भी रिप्रेजेंट होता था। ‘आवारा’, ‘बूट पालिश’, ‘श्री 420’, ‘फिर सुबह होगी’ एक के बाद एक फिल्में आईं। लिखने वाले लोग कौन थे। ख्वाजा अहमद अब्बास थे। कम्युनिस्ट थे वह। चाहे वह सपना झूठा ही था, पर उसमें उद्दाम आशावाद था।

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