एक त्रुटिपूर्ण रणनीति का बेढंगा निपटान
रमेश इन्दर सिंह
वर्ष 1984 एक विध्वंसक साल रहा। इसमें घटित बड़े प्रसंग गौरतलब हैं– ऑपरेशन ब्लू स्टार, प्रधानमंत्री की हत्या और सिख विरोधी नरसंहार– इस एक बरस ने राष्ट्र के आंतरिक विमर्श और इतिहास का जिस प्रकार निर्धारण किया उतना शायद आजादी के उपरांत किसी अन्य साल ने नहीं किया।
40 साल गुजरना भी इसके आघात की टीस नहीं भर पाया। प्रभावित हुए लोगों को न्याय न मिलने की धारणा और त्रासदी की चुभन अभी भी सालती है। तमाम संबंधित पक्षों – राजनीतिक तत्व, सरकार के इशारे पर काम करने वाले, आतंकवादी और नरसंहार में लिप्त भीड़- की जवाबदेही तय करने के लिए यदि सत्य एवं सुलहकारी कोई आयोग बनाया गया होता तो शायद न्यायिक प्रक्रिया एवं मान-मनौव्वल से अंततः आहत भावनाओं के मामले का संतोषप्रद समाधान हो पाता।
क्या ऑपरेशन ब्लू स्टार करने से बचा जा सकता था? तत्कालीन केंद्रीय सरकार आतंकवाद को खत्म के वास्ते इस कार्रवाई को बतौर एक अवश्यंभावी उपाय पेश करती रही। उस वक्त हथियारबंद विद्रोहियों ने पूरे स्वर्ण मंदिर परिसर पर कब्जा कर रखा था और हथियारों से लैस चौकियां बना डाली और संवैधानिक रूप से स्थापित राष्ट्र-नीति की वैधता को चुनौती देने को उद्यत थे। आम दलील अक्सर यह आती है- यदि स्वर्ण मंदिर परिसर में सशस्त्र विद्रोही किलेबंदी न करते तब क्योंकर सेना लगाने की जरूरत पड़ती।
आस्थावानों की धारणा किंतु इससे विपरीत है। ऑपरेशन ब्लू स्टार को सिखों के सबसे पवित्रतम स्थल को अपमानित करने की एक पूर्व निर्धारित योजना के रूप में देखा जाता है, जिसके पीछे मकसद था ध्रुवीकरण पैदा करके कुछ महीने बाद होने वाले आम चुनाव में राजनीतिक लाभ उठाना। इसको समझने के लिए आठवीं लोकसभा के चुनाव प्रचार में जारी विज्ञापनों में ध्रुवीकरण करती इबारत बांचें तो –‘क्या देश की सीमा अतंतः आपकी दहलीज़ तक आ जाएगी’ या सिख चालक वाली टैक्सी दिखाकर संलग्न किया सवाल : ‘क्या आप इस टैक्सी में सुरक्षित महसूस करेंगे’।
विध्वंसक घटनाएं अक्सर उद्देश्य को ढांप देती है, विशेषकर आस्था के मामले में। ब्लू स्टार के मामले में अब कुछ तथ्य पूरी तरह स्थापित एवं किंतु-परंतु से इतर स्पष्ट हैं। संक्षेप में घटनाक्रम बताएं तो, अकाली दल ने 4 अगस्त, 1982 को अपनी दस मांगों को लेकर मोर्चा लगाने का ऐलान किया– इनमें धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और अंतर-राज्यीय विवाद संबंधी मुद्दे थे। इसके लिए प्रदर्शनकारी रोज शांतिपूर्ण ढंग से गिरफ्तारियां देते थे। जून 1984 तक, लगभग 1 लाख 70 हजार कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी दी। पंजाब के लगभग 12000 गांवों में शायद ही कोई ऐसा होगा जहां से लोगों ने इस आंदोलन में भाग न लिया हो। अकालियों को अपने अनाड़ीपन में लगता था कि यदि वे जेलें भर देंगे तो केंद्र सरकार उनकी मांगें मानने को मजबूर हो जाएगी। लगभग दो साल चले इस आंदोलन में कोई 26 मौके ऐसे आए जब समझौते के प्रयास सिरे चढ़ते महसूस हुए, कुछ में प्रधानमंत्री और विपक्षी नेताओं ने भी भाग लिया। कम से कम दो अवसर ऐसे रहे जब सहमति पूरी तरह बन गई लेकिन केंद्र सरकार ऐन मौके पर पीछे हट गई। लगता है सरकार ने राजनीतिक हल न निकालने का मन बना लिया था और कैबिनेट की उप समिति ने मई 1984 में समस्या का सैन्य समाधान करना चुना। प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश चेतावनी को किनारे करते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा : ‘प्रणब, मुझे नतीजों के बारे में ज्ञान है... यह निर्णय बदला नहीं जा सकता’। फिर 25 मई को सेना प्रमुख को सेना को अमृतसर पहुंचाने के आदेश दिए गए हालांकि दिखावे के तौर पर 29 मई को अकालियों के एक प्रतिनिधिमंडल से केंद्रीय मंत्रियों का समझौता वार्ता का क्रम जारी रहा। इसमें आम सहमति बन भी गई लेकिन बाद में केंद्रीय मंत्री अपनी बात से यह कहकर पीछे हट गए : ‘मैडम नहीं मान रहीं’।
पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल बीडी पांडे को सेना बुलाने के लिए अर्जी देने के कहा गया और इसके वास्ते औपचारिक आदेश पंजाब के गृह सचिव ने 2 जून को जारी किए। सेना ने स्वर्ण मंदिर और अन्य 42 गुरुद्वारों पर कार्रवाई की। राज्यपाल पांडे ने सैन्य अभियान न किए जाने की गुहार लगाई और बाद में पुष्टि की कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी राजनीतिक हल नहीं चाहती थीं। उधर जरनैल सिंह भिंडरावाले के साथ भी सरकार की प्रस्तावित वार्ताएं दो बार स्थगित हुईं – जिसमें एक सीधी राजीव गांधी से होनी थी– तब जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने अपने समर्थकों से कहा : ‘वार्ता भले जारी रखो, लेकिन अपनी तैयारी भी पूरी रखो’। और यह तैयारी थी सशस्त्र आंदोलन की, जो अकाली दल के शांतिपूर्ण मोर्चे के समानांतर चली हुई थी।
विद्रोही इसे ‘हकां दी लड़ाई’ करार दे रहे थे। उनके लिए, हिंसा पुलिसिया जबर की प्रतिक्रिया थी और राजसत्ता से संवाद का एक अन्य ढंग भी, उनके अपने तरीके का। चूंकि विद्रोहियों को संवैधानिक रूप से वैधता प्राप्त नहीं होती इसलिए वे विद्वान मार्क जुएर्गेंस्मेयर के शब्दों में ‘धर्म प्रदत अधि-नैतिकता’ को अपनी स्वीकार्यता का आधार बताते हैं। तत्पश्चात हिंसा उतरोत्तर बढ़ती गई। पाकिस्तान ने विद्रोहियों को प्रशिक्षण और हथियार देकर अपना खेल शुरू कर दिया। राज्य व्यवस्था यद्यपि सुस्त न थी तो भी निष्प्रभावी लगने लगी। स्वर्ण मंदिर परिसर के अंदर मशीनगन सहित हथियारबंद किलेबंदी होने लगी। तत्कालीन पुलिस प्रमुख प्रीतम सिंह भिंडर की मानें तो अंदर पहुंचाए जाने वाले हथियारों की जब्ती इसलिए नहीं की गई क्योंकि जून से दो माह पहले तक ऐसा न करने का मौखिक आदेश ‘ऊपर से’ था, लिहाजा कार सेवा के ट्रकों की तलाशी नहीं ली जाती थी। सेना ने 3 जून की रात को स्वर्ण मंदिर परिसर को घेर लिया। सेना ने विद्रोहियों से समर्पण करवाने हेतु वार्ता का प्रयास नहीं किया। विद्रोहियों का नेतृत्व मेजर जनरल शबेग सिंह के हाथ में था जोकि भारतीय सैन्य अकादमी में उस वक्त प्रशिक्षक थे जब ऑपरेशन ब्लू स्टार में सैनिकों के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार वहां कैडेट थे। दोनों एक-दूसरे को भलीभांति जानते थे। यदि उनकी आपस में बातचीत होती तो शायद इस खूनी त्रासदी को टाला जा सकता था– लेकिन यह वह किंतु-परंतु हैं, जिनसे इतिहास रचा होता है। फिर, चरमपंथियों ने लड़ाई की, पश्चिमी सैन्य कमान के जीओसी रहे ले़ जनरल वीके नायर के शब्दों में : ‘क्योंकि उनको और कोई विकल्प नहीं दिया गया’।
5 और 6 जून की मध्य रात्रि भयावह थी। अकाल तख्त, जोकि मुगल एवं अफगान आक्रांताओं के विरुद्ध सिख सार्वभौमिकता और संघर्ष का ऐतिहासिक प्रतीक रहा है, वह खंडहर में तब्दील हो गया। सैन्य कार्रवाई में लगभग 330 सुरक्षाकर्मी और 780 सिविलियन मारे गए, जिनमें वे श्रद्धालु भी शामिल थे जो स्वर्ण मंदिर के संस्थापक गुरु अर्जुन देव के शहीदी पर्व के अवसर पर इकट्ठा हुए थे। निशाने से चूके गोलों की वजह से परिसर के पश्चिमी सिरे से सटे निजी भवनों का बहुत नुकसान हुआ। लगभग 160 दुकानें और 15 घर तबाह हुए। लेकिन इस सबसे हासिल क्या हुआ? सेना ने कुछ सौ सशस्त्र लड़ाकों को मार गिराया, तथापि विजय विनाशकारी रही। ब्लू स्टार ने जातीय-राष्ट्रीय संघर्ष के बीज बो डाले, जिससे आगे और ज्यादा हिंसा जन्मी। देश अपने और अपनों के विरुद्ध लड़ने लगा, जिसमें कुछ सैनिकों ने हथियार सहित बैरकें छोड़कर विद्रोह कर दिया। विद्रोही तत्व जल्दी ही फिर से स्वर्ण मंदिर परिसर पर काबिज हो गए और अप्रैल 1986 को परिसर से खालिस्तान की घोषणा कर दी। तत्पश्चात ऑपरेशन ब्लैक थंडर 1 एवं 2 करने पड़े।
पंजाब की समस्याओं पर गौर करे बगैर बेढंगी रणनीति और बुरे तरीके से क्रियान्वयन वाला ऑपरेशन ब्लू स्टार एक भयंकर भूल साबित हुआ। राजीव-लोंगोवाल समझौता कुछ आगे की राह दिखा सकता था किंतु इस पर भी अमल नहीं हुआ। पंजाब का बहुत ज्यादा नुकसान हुआ। एक दशक तक चली हिंसा के दौरान लगभग 30000 लोग मारे गए। देशभर में पहले पायदान पर रहा यह सूबा अधिकांश सामाजिक-आर्थिक पैमानों पर फिसलकर 15वें स्थान पर जा गिरा। जातीय-राष्ट्रीय आंदोलन भले ही खत्म हो गया किंतु विदेशों में बैठे एक धड़े में अभी भी इसका स्पंदन जीवित है और यह भारत के लिए चिंताजनक है।
लेखक पंजाब के गृह सचिव रहे हैं।