For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

1857 की क्रांति के पहले शहीद बाबा मोहर सिंह का वीरगति स्थल आज भी पहचान का मोहताज

06:00 AM Jun 05, 2025 IST
1857 की क्रांति के पहले शहीद बाबा मोहर सिंह का वीरगति स्थल आज भी पहचान का मोहताज
अम्बाला शहर की वह जगह जहां बाबा मोहर सिंह को फांसी दी गई थी।   -हप्र
Advertisement

जितेंद्र अग्रवाल/हप्र
अम्बाला शहर, 4 जून 

Advertisement

देश को आजादी दिलाने के लिए असंख्य देशभक्तों ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया था। इनमें 1857 की क्रांति के अमर शहीद अम्बाला के बाबा मोहर सिंह आहलुवालिया और उनके साथी भी शामिल रहे, लेकिन आज लोगों ने इनको पूरी तरह भुला दिया है। वह अंग्रेजी शासन के दमन के विरुद्ध एक योद्धा बनकर खड़े हुए। उनके आंदोलन में अम्बाला के गांव कांवला के लौहार जागीरू व गांव मौली जगरां के जोगा सिंह समेत कई क्रांतिकारी नौजवान शामिल थे। दरअसल, जिस स्थान पर बाबा मोहर सिंह और उनके साथियों को अंग्रेजों ने 5 जून को फांसी पर लटकाया था, वह स्थान आज भी अम्बाला शहर के किंगफिशर रिजॉर्ट के कोने में बने समाध के नजदीक है। पिछले 75 वर्ष में सरकारें इस पुण्य भूमि को पहचान देने में असमर्थ रही हैं। कई बार बहुत से सामाजिक संगठनों ने इस भूमि पर बाबा मोहर सिंह के नाम से इतिहास लिखकर बोर्ड लगाने का प्रयास भी किया, लेकिन ऐसे प्रयास छोटी सोच वाली राजनीति की भेंट चढ़ गए।

गौरिल्ला युद्ध कला में माहिर थे, अंग्रेज सैनिकों ने रोपड़ के जंगलों से पकड़ा, साथ देने वालों को गोलियां से भूना था

Advertisement

असल में बाबा मोहर सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर विद्रोह कर दिया था। आम लोग भी चोरी छिपे उनकी मदद करने लगे थे। बाबा मोहर सिंह आहलुवालिया ने अपने गोरिल्ला युद्ध (छुपकर लड़ने करने की कला) से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। उनके बढ़ते प्रभाव को खत्म करने के लिए अम्बाला के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर टीडी फोरसिथ ने कैप्टन गार्डन की डयूटी लगाई। कैप्टन र्गानर का नाम उस समय एक खूंखार सैनिक अफसर के रूप में लिया जाता था, जो विद्रोही सैनिकों व आम जनता पर अत्याचार कर रहा था। जानकारी के अनुसार जब भी गार्डनर बाबा मोहर सिंह आहलुवालिया को पकड़ने की कोशिश करता तो बाबा मोहर सिंह साथियों के साथ गोरिल्ला युद्ध करते हुए बच निकलते थे और कैप्टन हमेशा चीख कर अपने सिपाहियों को कहता था कि मोहर सिंह जिन्दा न बचने पाए, इसे मार डालो। इस तरह की घटनाओं का कोई अंत नहीं है। 1857 के मई महीने में इसी तरह बाबा मोहर सिंह व कैप्टन के बीच लुका छिपी चलती रही।
जून में कैप्टन ने सैनिक टुकड़ी के साथ मोहर सिंह को घेर लिया, परंतु कैप्टन के साथ गए भारतीय सैनिकों ने उन्हें पकड़ने से साफ इंकार कर दिया। कुछ हिन्दुस्तानी सिपाही बाबा मोहर सिंह के साथ जा मिले। यह देखकर कैप्टन बहुत हैरान हुआ। उसके बाद कमिश्नर ने कैप्टन के साथ चल रही सेना को वापस बुला लिया और अम्बाला से 300 अंग्रेज सैनिकों की टुकड़ी को रातों रात पटियाला के राजा की सहायता से कैप्टन के पास रोपड़ भेजा गया। उन अंग्रेज सैनिकों की सहायता से बाबा मोहर सिंह को रोपड़ के जंगलों से उनके कई साथियों के साथ गिरफ्तार करके अम्बाला लाया गया। जिन भारतीय सैनिकों ने बाबा मोहर सिंह की सहायता करने की कोशिश की थी, उन्हें पकड़ कर काली पलटन अम्बाला छावनी के ग्राउंड में सरेआम गोलियों से भून दिया गया था।
जिस दिन पकड़ा, उसी दिन सुनवाई, फैसला और फांसी
अगले दिन 5 जून 1857 को बाबा मोहर सिंह व उनके 3 साथियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, जिसकी सुनवाई उसी दिन सुबह सिस सतलुज स्टेट के कमिश्रर जीसी बर्निस व अम्बाला के डिप्टी कमिश्नर फोरसिथ ने की। उसी दिन इन चारों को राजद्रोह के मुकदमे में दोपहर को फांसी की सजा सुना दी गई और शाम को बाबा मोहर सिंह और कांवला के जागीरू लौहार को काली पलटन से 2 कोस दूर पश्चिम की ओर गांव धूलकोट के पास वटवृक्ष पर फांसी दे दी गई। बाबा मोहर सिंह को आजादी की पहली लड़ाई में अंग्रेजों द्वारा फांसी पर चढ़ने वाले पहले शहीद का मान हासिल हुआ।

ऐतिहासिक पहचान दिलाने के लिए मेयर को लिखा पत्र

बाबा मोहर सिंह का इतिहास लिखने वाले रिटायर्ड पीसीएस अफसर तेजिंदर सिंह वालिया ने बताया कि वह इस मामले को लेकर सरकार के नुमाइंदों से मिलते रहे हैं। अब उन्होंने अम्बाला की मेयर शैलजा सचदेवा को भी पत्र लिखकर इस ऐतिहासिक स्थल को पहचान दिलवाने की गुहार लगाई है।

05

Advertisement
Tags :
Advertisement