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हैप्पी न्यू ईयर

04:00 AM Dec 29, 2024 IST
हैप्पी न्यू ईयर
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आधुनिकता के नाम पर अपनाई गई संस्कृति के लिए कभी-कभी बहुत कुछ बलिदान करना पड़ता है, जो हमारे संस्कारों में शामिल है ही नहीं। हमारे देश में प्रतिवर्ष अमूल दूध की ओर से विज्ञापन प्रसारित होता है ‘नव वर्ष का स्वागत शराब से नहीं अमूल दूध से करें’। पर ‘बात तो तब बने जब हम समझें और अमल करें’। हमारे देश में व्यावसायिक वर्ग ऐसे उत्सव के अवसरों पर युवा सोच का लाभ उठाने के लिए इसे प्रोत्साहन देते हैं।’

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प्रभा पारीक
आज सुबह से ही हैप्पी न्यू ईयर की शुभकामना के संदेशों का आदान-प्रदान फोन और सोशल मीडिया पर शुरू हो चुका था। युवा वर्ग तो इस उत्सव को रात बारह बजे ही आरंभ कर देता है, यह तो हम जैसे जीवन रूपी पेड़ के पके हुए पत्ते ही हैं, जो अपने युवा बच्चों के उत्साह को नकार न पाने के कारण, देर रात तक उनके इंतजार में बैठे रहने को मजबूर होते हुए भी हंसते-मुस्कुराते रहते हैं। किसी तरह रात के बारह बजे तक जागने का यह अवसर पाते हैं। हम अभिभावक और तो कर भी क्या सकते हैं, वैसे भी दकियानूसी, पुराने विचारों के डरपोक, पिछड़ी सोच के जैसे अनेक अलंकारों का सामना हम जैसे माता-पिता को अक्सर करना पड़ता है।
संस्कारों से बंधनों से छूट भागने को तत्पर आज की यह पीढ़ी हमें अनेक तरह से नामों अलंकृत करने की ताक में रहती है, जब-जब हम अपने युवा बच्चों को आज़ादी देने में किसी प्रकार की सख्ती बरतते हैं। तब... उनके तर्क सही होते हुए भी उन परिस्थितियों के दुष्परिणामों से अनभिज्ञ विरोध के लिए तैयार ही होते हैं। हमारी इस युवा पीढ़ी का बहुत बड़ा गुण है ‘भविष्य की सकारात्मक सोच’।
आज के इस नव वर्ष के आगमन के शुभ अवसर पर हमें अहमदाबाद जाने का अवसर आया। सुष्मिता और सौरभ हमारे निकटतम पड़ोसी, कुमार साहब और वंदना बहन की संतानें भी वहीं रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। उनके दोनों ही बच्चे अहमदाबाद जैसे मेट्रो सिटी में सीए की तैयारी के लिए रह रहे हैं। पिछले दो वर्ष हुए, दोनों अपने-अपने दोस्तों के साथ मिलकर अलग फ्लैट लेकर रह रहे हैं।
हमारे देश में छोटे शहरों में उच्च शिक्षा की सुविधा के अभाव के कारण छोटे शहरों से बड़े शहरों में आने वाले मध्यवर्गीय छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही है। कुछ पढ़ाई के लिए, कुछ बड़े शहर के आकर्षण के कारण ये बच्चे बड़े शहर में रहने चले आते हैं। जिसके लिए माता-पिता भी तो हर स्तर पर समझौता कर लेने की मानसिक तैयारी दिखाते नजर आ रहे हैं।
सुष्मिता व सौरभ दोनों ही पढ़ाई में अति कुशाग्र हैं, इसलिये माता-पिता की ओर से ज्यादा रोक-टोक भी नहीं... वैसे भी बेचारे सीधे-सादे मां-बाप इन महानगरों की जीवनशैली से अंजान हैं। उनका इस तथाकथित आधुनिक नये निराले रंग-ढंगों से सामना भी कहां हुआ है।
हम कुमार साहब के पुराने व निकटतम पड़ोसी रहे हैं और हमारे कई रिश्तेदार अहमदाबाद में रहते हैं। जब कभी हमारा अहमदाबाद जाना होता, कुमार साहब के आग्रह पर हम सुष्मिता और सौरभ से मिलते और उनके माता-पिता का भेजा सामान पाकर दोनों खुश होते। इस वर्ष भी करीब 27 दिसंबर को हमने गुजरात के दूर-दराज नर्मदा जिले के कांकड़कुई गांव से अहमदाबाद के लिए बस पकड़ी और 28 को हम अहमदाबाद पहुंच गये।
बच्चों को संदेश मिल चुका था कि हम आने वाले हैं। उस दिन दोनों भाई-बहन ने हमें बताया कि एक्स्ट्रा क्लास के कारण आज मिलना नहीं होगा, आने वाले दो दिनों में हमें द्वारका जाना था। सो मिलना संभव भी नहीं था। 31 तारीख के शाम छह बजे हम दोनों कुमार साहब के बच्चों से उनके फ्लैट पर मिलने के लिए पहुंचे तो दोनों भाई-बहन अपने फ्लैट में अपने-अपने मित्रों के साथ थे... उनके मित्र काफी उत्साह में लग रहे थे, ऐसा लगा... जैसे हमारा आना उनके लिए अड़चन हुआ है, हमने भी हालात को भांप लिया और हाल-चाल पूछकर सामान पकड़ाकर वापस चले आये, न जाने क्यों... ऐसा लग रहा था कि उन दोनों को हमारे रुक जाने से कोई संकोच या भय था और कुछ देर में ही हमारे निकलने की बात सुनकर भाई-बहन दोनों के चेहरे पर राहत के भाव स्पष्ट दिख रहे थे।
हमने बच्चों को उनका सामान पकड़ाया और हम निकलने ही वाले थे कि मेरे बैग से कुछ गिरा... अरे आ... मोचड़ी (जूतियां) तो (म्हारे पासे रही जाती हमणां) अभी मेरे साथ ही चली जाती... लो बेटा इसे भी संभाल कर रख लो... सुष्मिता ने झट से मेरे हाथ से मोचड़ी लेकर रख दी और हमें छोड़ने बाहर तक दोनों भाई-बहन आए।
हम वापस अपने रिश्तेदार, जिनके घर हम ठहरे थे, वहीं पहुंच गये। हमें जल्दी आया देख कर खुशी से उन्होंने हमारे साथ नव वर्ष की पूर्वरात्रि को मनाने का कार्यक्रम बना डाला... युवा, छोकरे-छोकरियों की तरह नहीं तो हम हमारी तरह से तो नये साल का स्वागत कर ही सकते हैं।
रात का खाना बाहर ही खाने का विचार बना कर हमने रात नौ बजे घर से निकलने का निर्णय कर लिया। हम आराम से बैठे और याद करने लगे जब दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले नव वर्ष के मनोरंजक कार्यक्रमों का इंतजार हम महीनों पहले से करने लगते थे। समय की बात है यह भी कि ‘आज टीवी पर उससे दस गुने कार्यक्रमों की भरमार है पर हम हैं कि सदा नये की तलाश में भटकते रहते हैं, और कहीं भी संतुष्ट नहीं होते...’
हमने रात को अहमदाबाद के बड़े मंदिरों के दर्शन किए। भद्रकाली मां, बहुचरा मां के दर्शन करने के बाद हम जगन्नाथ मंदिर गये। सोला भागवत के दर्शन करके हम एक थ्री-स्टार होटल में भोजन के लिए अपनी बारी का इंतजार करने लगे। वहां उस होटल की छत, हॉल, लॉन सभी जगहों पर युवा ग्रुप के नव वर्ष की पार्टी का आयोजन था। दिसंबर का जाता समय अधिक तो नहीं, पर सर्दी का मौसम तो था ही... पर इन युवा लड़के-लड़कियों को तो जैसे पूरे कपड़े पहनने से ही बैर है। आधुनिकता है, उन्हें तो जैसे सर्दी छू भी नहीं रही थी। हमें इंतजार करने के लिए एक हाल में बैठने को कहा गया। जहां सामने पास ही गाड़ियां आकर रुकती और लोग मस्ती से झूमते-नाचते अंदर जा रहे थे।
हमने हमारी व्यवस्था पारिवारिक कक्ष में करने के लिए कह दिया था।
तेज संगीत की आवाज, युवा जोश, खुशी व्यक्त करने के लिए अजीब अजीब-सी आवाजें भी निकाल रहे थे। कभी-कभी हम प्रौढ़, वृद्ध भी सोचने लगते हैं कि हम चिर युवा क्यों नहीं रह सकते...
भोजन के लिए संकेत आने पर हम अंदर जाकर भोजन करके बाहर निकले तो रात के पौने बारह बज रहे थे। हमारे सामने से एक गर्मजोशी से भरा युवक और युवतियों का समूह निकला जो अति सिमट-सिमट कर आगे बढ़ रहे थे। सिगरेट और शराब के एक तेज भभके से हम सभी का सामना हुआ। मैंने देखा कि अधिकांश युवक और युवतियां नशे में मदहोश थे, जिन्हें वो लोग संभाल रहे थे जिन्होंने अभी पी नहीं रखी थी, ताकि पुलिस और लोगों की नजर से बचकर अंदर पहुंच सकें। करीब पंद्रह से अधिक युवा लोगों का बड़ा समूह था, बीच में लड़कियां थीं, जिन्हें लड़कों ने घेर रखा था। मुझे कुछ अजीब लग रहा था। इतना खुलापन, जश्न का अर्थ मदहोश हो जाना...? पर मेरे रिश्तेदार ने कहा कि बड़े होटलों की न्यू ईयर पार्टी में यह सब आम बात है। उनका मन भी कसैला-सा हो आया था। कहां गए हमारे इस युवा पीढ़ी के संस्कार कि अच्छे घरों के छात्र-छात्राएं भी इस तरह की संस्कृति में अपने आप को जोड़कर, अपना भला-बुरा भूलकर स्वयं को आधुनिक साबित करने की दौड़ का हिस्सा बनने के चक्कर में अपनी कीमती अस्मिता से समझौता करने को तैयार हो जाते हैं।
मां-बाप के विश्वास को तार-तार करने का कोई भय, ग्लानि भी नहीं होती।
मेरा पूरा ध्यान उसी समूह पर था। मेरे साथ के लोग आगे जा चुके थे। मैंने महसूस किया वही जानी-पहचानी सेंट की खुशबू जो अभी भी मेरे नाक में समाई हुई थी। जो मैंने सुष्मिता के घर पर महसूस की थी। समूह जिस रास्ते से गया वहां पर मैंने वैसी ही मोचड़ी पड़ी देखी जो अभी-अभी मैं सुष्मिता को दे कर आई थी। गौर करने पर पाया यह तो वही है... जो अभी कुछ घंटे पहले मेरे पर्स से गिरी थी। ‘हे भगवान... हमारे समाज में होता है, हो रहा है इसकी चर्चा करने और स्वयं के साथ होता देखने के लिए जितना बड़ा कलेजा चाहिए वो मुझ देहात में रहने वाली सीधी-सरल परिवार की महिला के पास नहीं था।’ और इसीलिए दिल धक-धक कर रहा था, सिर चकराने लगा, विश्वास नहीं हुआ ‘क्या सुष्मिता इस तरह के लोगों के साथ हो सकती है?’ पर... मैंने सौरभ को नहीं देखा था, मेरे मन में अजीब-अजीब से विचार आ-जा रहे थे। कहीं सुष्मिता किसी गलत तरह के लोगों के बीच तो नहीं फंस गई है या अंजाने में यह सब हो रहा है? क्या करना चाहिए, सूझ ही नहीं रहा था।
मैंने मेरे साथ वाले लोगों को वहीं बुलवाया और उनको मेरे मन की शंका बताई... अलग-अलग तरह की सलाह... फोन करो, सौरभ को बुला लो, किशोर जी को बुला लो या पुलिस को सूचना दें, क्या करें? अंत में होटल अधिकारी से इसकी जानकारी लेनी चाही... दोटूक सा जवाब मिला ‘आज के इस जश्न की रात हमें युवा लोगों से कोई सवाल पूछ कर उन्हें नाराज करना ही नहीं है’। रात के साढ़े बारह बज रहे हैं, चारों ओर हैप्पी न्यू ईयर का शोर, आतिशबाजी, शैंपियन की खुलती बोतलों का शोर... संगीत की धुन पर थिरकते जोड़े बनाकर युवा ‘आ... आज की रात है जिंदगी...’ न जाने क्यों नफरत-सी होने लगी, इन सब को देख कर। नया साल, जश्न सब ठीक है, पर शराब, वो भी इस कच्ची उम्र में? इस तरह के माहौल में मुझे शराब और शबाब का अर्थ आज समझ आया... सौरभ को फोन किया तो उसने दो बार फोन उठाया भी पर कुछ सुनाई न देने के कारण शायद झुझलाकर फोन स्विच ऑफ कर दिया। आखिर मौज-मस्ती में खलल को कैसे बर्दाश्त करता वह... सुष्मिता को फोन किया तो एक युवक की नशे में चूर अस्पष्ट आवाज सुनाई दी... कुछ न कर पाने की लाचारी... ‘बेटी चाहे गांव की ही क्यों न हो, दूसरे की ही क्यों न हो, हर मां के लिए लाडली बेटी ही तो होती है कहते भी तो हैं कि बेटियां साझी होती हैं।’
बहुत सोचने के बाद निर्णय लिया कि इस उत्सव के बीच जा कर ही बेटी सुष्मिता को खोजना होगा। यदि वह किसी षड्यंत्र का शिकार हुई है तो भी उसे आज अभी बचाना होगा। अथवा वह यह सब जानते-बुझते कर रही है तो उसे उसके कदम रोकने होंगे... इस दलदल में फंसने से बचाना होगा... लॉन में चल रही पार्टी के युवकों को तो होश ही नहीं था कि वे हमारी बात सुनते। हमने छत पर चल रही पार्टी में जाने से पहले लॉन से एक वेटर को पटाया, पैसे देकर यह संदेश भिजवाया कि सुष्मिता के पिता गंभीर हैं, यदि वह यहां है तो हम उसे लेने आए हैं। हमने दूर से देखा सुष्मिता का नाम सुनकर उन युवकों के होश उड़ गए। पूरे विश्वास से पीछा करने पर हमने जो दृश्य देखा... वह अकल्पनीय था।
सुष्मिता अस्त-व्यस्त कपड़ों में पलंग पर पड़ी थी। चार युवक नशे की हालत में और पी रहे थे और दो लड़कियां भी थीं जो उन्हीं के समान नशे की हालत में बेहूदे कपड़े पहने मदहोशी की हालत में थीं।
हमारे अचानक आ जाने से युवक उठकर जाने लगे, पर उनके पैर उनका साथ देने में असमर्थ थे... तब तक होटल का स्टाफ भी हमारे साथ आया था। उसने उन युवकों को बैठे रहने का इशारा किया। न जाने किस उच्च अधिकारी के कुल दीपक निकल आएं। हमारे लिए यही क्या कम था कि होटल स्टाफ अपने आप को इसके लिए जिम्मेदार न मानते हुए भी हमारी मदद कर रहा था।
हम सभी ने मिलकर सुष्मिता को वहां से निकाला, उसे अपने आप नींद से जागने तक का इंतजार करने का निर्णय किया। बाकी रात न जाने कितने बजे तक चारों ओर से हैप्पी न्यू ईयर का शोर सुनाई दे रहा था... पर हमने सुष्मिता के जीवन में हैप्पी न्यू ईयर के बाद उठने वाले तूफानों से बचा लिया था। सुबह भाई-बहन दोनों चुप थे। शायद समझ गए थे कि आधुनिकता के नाम पर अपनाई गई संस्कृति के लिए कभी-कभी बहुत कुछ बलिदान करना पड़ता है, जो हमारे संस्कारों में शामिल है ही नहीं।
हमारे देश में प्रतिवर्ष अमूल दूध की ओर से विज्ञापन प्रसारित होता है ‘नव वर्ष का स्वागत शराब से नहीं अमूल दूध से करें’। पर ‘बात तो तब बने जब हम समझें और अमल करें’। हमारे देश में व्यावसायिक वर्ग ऐसे उत्सव के अवसरों पर युवा सोच का लाभ उठाने के लिए इसे प्रोत्साहन देते हैं। नित नये आकर्षक प्रयोग होते हैं कि ‘कैसे युवाओं को लुभाकर पैसा कमाया जाए’। यह किशोर जी के परिवार व हमारे गांव का सच्चा न्यू ईयर था।

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