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हिंदू संस्कृति की जननी माता गायत्री

12:35 PM May 29, 2023 IST

चेतनादित्य आलोक

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माता गायत्री का सनातन धर्म में कितना बड़ा महत्व है, इसका अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि हिंदू संस्कृति के आधार स्तंभ माने जाने वाले चतुर्वेदों, त्रिदेवों एवं त्रिदेवियों से इनका अत्यंत ही महत्वपूर्ण संबंध है। दरअसल, हमारे चारों वेदों सहित सभी शास्त्रों एवं श्रुतियों का प्राकट्य माता गायत्री से ही हुआ है, जिसके कारण इन्हें ‘हिंदू संस्कृति की जननी’ कहा जाता है। इसी प्रकार इनसे वेदों की उत्पत्ति होने के कारण इन्हें ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आराध्या देवी होने के कारण सनातनियों के लिए यह ‘देवमाता’ भी हैं।

वहीं एक मान्यता के अनुसार इन्हें ब्रह्मदेव की दूसरी पत्नी भी माना जाता है। त्रिदेवियों यानी माता पार्वती, माता सरस्वती एवं माता लक्ष्मी का अवतार भी माता गायत्री ही हैं। इनके अतिरिक्त समस्त ज्ञान की देवी होने के कारण इन्हें ‘ज्ञान-गंगा’ की संज्ञा भी दी गयी है। ऐसा माना जाता है कि माता गायत्री से ही चारों वेदों की उत्पत्ति हुई है और इसीलिए गायत्री मंत्र को समस्त ‘वेदों का सार’ कहा जाता है। महाभारत ग्रंथ के रचयिता वेद व्यास ने गायत्री मंत्र की महिमा बताते हुए कहा है कि जिस प्रकार फूलों में शहद तथा दूध में घी सार रूप में मौजूद रहता है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री मंत्र है।

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माता गायत्री के पांच मुख और दस हाथ दर्शाये गये हैं, जो हिंदू संस्कृति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं। माता के चार मुख चारों वेदों के प्रतीक हैं, जबकि उनका पांचवा मुख सर्वशक्तिमान शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं माता के दस हाथ भगवान विष्णु के प्रतीक हैं। ऐसी मान्यता है कि चारों वेदों का ज्ञान लेने के बाद जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह केवल गायत्री मंत्र को अंगीकार कर लेने मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि गायत्री मंत्र को समझ लेने मात्र से ही मनुष्य को चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। कहा जाता है कि ‘माता गायत्री की महिमा’ अर्थातzwj;् गायत्री मंत्र का प्रादुर्भाव सविता के मुख से हुआ, जिसके बाद सूर्यदेव ने इन्हें ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया था। तभी से माता गायत्री का नाम ब्रह्माणी पड़ गया। ज्ञान-विज्ञान की देवी होने के कारण माता गायत्री ब्राह्मणों की आराध्या देवी मानी जाती हैं। इनका एक नाम परब्रह्मस्वरूपिणी भी है। वेदों, उपनिषदों और पुराणादि में इनकी महिमा का विस्तृत वर्णन मिलता है।

शास्त्र बताते हैं कि माता गायत्री की कृपा से ब्रह्मा जी ने गायत्री मंत्र की व्याख्या अपने चारों मुखों से की। ब्रह्मदेव द्वारा की गयी यह व्याख्या ही आज मानव जाति के पास अनमोल उपहार स्वरूप चार वेदों के रूप में मौजूद है। गायत्री मंत्र आरंभ में सिर्फ देवी-देवताओं तक ही सीमित था। इसलिए सिर्फ वे ही इसका उपयोग कर सकते थे, लेकिन महर्षि विश्वामित्र की अत्यंत कठोर साधना या कहें कि उनके भगीरथ प्रयासों से यह परम कल्याणकारी गायत्री मंत्र सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो पाया, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार राजा भगीरथ के भागीरथ प्रयासों से माता गंगा स्वर्ग से धरती पर आ पायी थीं।

हिंदू पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को गायत्री जयंती मनायी जाती है। सनातन धर्म के मानने वाले इस दिन को माता गायत्री के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने का विशेष महत्व होता है। यदि गंगा नदी में स्नान करना संभव न हो तो जल के पात्र में थोड़ा-सा गंगा जल मिलाकर स्नान करना चाहिए। हिंदू संस्कृति में गायत्री मंत्र को भी गंगा नदी की तरह ही पावन माना जाता है। यही कारण है कि गायत्री मंत्र को ‘ब्रह्म गंगा’ भी कहा जाता है। मान्यता है कि यदि गायत्री मंत्र को सिद्ध कर लिया जाये तो यह कामधेनु यानी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली दैवीय गाय के समान ही लाभकारी सिद्ध होती है।

कहते हैं कि जिस प्रकार गंगा नदी में स्नान करने मात्र से ही शरीर के समस्त तापों, पापों एवं शापों का नाश तथा तन-मन निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार गायत्री रूपी ‘ब्रह्म गंगा’ से मनुष्य की आत्मा पवित्र हो जाती है। तात्पर्य यह कि गायत्री मंत्र से बढ़कर पवित्र करने वाला दूसरा कोई मंत्र नहीं है। साधु-संत और ऋषि, महर्षि ही नहीं, बल्कि सर्वसाधारण के बीच भी यह मान्यता प्रचलित है कि जो व्यक्ति नियमित रूप से गायत्री मंत्र का जप करता है, वह पापों से वैसे ही मुक्त हो जाता है जैसे केंचुली से छूटने के बाद सांप व्यर्थ के बोझ से मुक्त हो होता है।

गायत्री जयंती के दिन माता गायत्री की विशेष पूजा-अर्चना करने का विधान है, जिसके बाद गायत्री मंत्र का जप करना उत्तम होता है। अंत में माता गायत्री की आरती करनी चाहिए। गायत्री मंत्र इस प्रकार है :-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयातzwj;्।

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