For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

स्वदेशी ज्ञान को मान

04:00 AM Dec 05, 2024 IST
स्वदेशी ज्ञान को मान
Advertisement

रतंत्रता, वक्त के थपेड़ों व कालांतर बाजार के गहरे दखल से भले ही भारत का प्राचीन सेहत का ज्ञान सदियों से हाशिये पर रहा है, लेकिन पिछले एक दशक के राजाश्रय में इसकी देश-विदेश में प्रतिष्ठा स्थापित हुई। भारत में अथाह गरीबी के चलते प्रकृति के सान्निध्य में सेहत के गुर को महसूस करते हुए महात्मा गांधी ने प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों को देश में प्रतिष्ठा दी थी। आज भी उनके अनुयायी पूरे देश में इस मुहिम में जुड़े हुए हैं। यह सुखद ही है कि एक दशक पूर्व राजग सरकार ने जिस आयुष मंत्रालय की स्थापना करके इस दिशा में जो रचनात्मक पहल की थी, उसके उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे हैं। उसके चलते भारत ही नहीं, विदेशों में भी हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की स्वीकार्यता बढ़ी है। इस अभियान के एक दशक पूरे होने पर आयुष मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2014 में जो आयुष बाजार 2.8 अरब डॉलर था, उसका आकार बीते साल तक 43.4 अरब डॉलर हो गया है। ये एक बहुत उत्साहजनक आंकड़ा है। इतना ही नहीं आयुष बाजार का निर्यात भी दुगना हुआ है। जिससे इस पद्धति की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता का पता चलता है। यानी इन्हें एक पूरक चिकित्सा के रूप में मान्यता मिल रही है। निस्संदेह, आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने शोध-अनुसंधान व बड़े पूंजी निवेश के चलते अप्रत्याशित उन्नति की है। ऐसे में यदि विज्ञान व परंपरागत चिकित्सा पद्धति में समन्वय बने तो मानवता का कल्याण ही होगा। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि तीव्र विकास की छाया में गरीबी का भी विस्तार हुआ है। महंगी होती चिकित्सा पद्धति गरीब की पहुंच से दूर होती जा रही है। सरकारी चिकित्सा तंत्र मरीजों के भारी बोझ से चरमरा रहा है। ऐसे में यदि जीवन शैली में सुधार, सजगता व शारीरिक सक्रियता से लोगों को स्वास्थ्य लाभ मिले तो किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। इसे पूरक चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया ही जाना चाहिए।
यह भी एक हकीकत है कि आयुष बाजार के विस्तार से जहां सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उपचार में मदद मिली है, वहीं इससे रोजगार व उद्यमिता को भी संबल मिला है। एक ओर जहां आयुर्वेदिक दवाओं के उत्पादन से रोजगार बढ़े हैं, वहीं इसमें प्रयोग की जाने वाली जड़ी-बूटियों, फल और इससे जुड़े जैविक उत्पादों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी संबल मिला है। कमोबेश इसी तरह योग से जुड़ी सामग्री का निर्यात भी तेजी से बढ़ा है। प्रधानमंत्री के प्रयासों से योग को वैश्विक मान्यता मिली है। हालांकि, अमेरिका,यूरोप व आस्ट्रेलिया आदि में योग के सामान से जुड़ा कारोबार ज्यादा ऊंचाइयां छू रहा है। यह सुखद है कि हम देर से ही सही, इस दिशा में आगे बढ़े हैं। हमारे आयुर्वेद के उत्पादों को विश्व स्वास्थ्य संगठन की मान्यता मिलना भी एक बड़ी उपलब्धि है। इस दिशा में आधुनिक चिकित्सा के साथ समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ने के लिये साझे प्रयास जरूरी हैं। ऐसे में बहुत जरूरी हो जाता है कि हम आयुष उत्पादों की गुणवत्ता बनाये रखने पर विशेष ध्यान दें। उनका आधार वैज्ञानिक प्रमाण हों। इससे भारत पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के जरिये वैश्विक नेतृत्व करने में सक्षम हो सकेगा। दरअसल, भारतीय परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों मसलन आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा,योग, सिद्ध आदि पद्धतियों की धारणा रही है कि किसी रोग को दबाने के बजाय उसके कारकों का उपचार किया जाए। साथ ही यह भी कि हमारे विचार, खानपान और प्रकृति का सान्निध्य जीवन को स्वस्थ बनाने में मददगार होता है। जिसका मूल आधार हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करना होता है। लेकिन इसके मायने आधुनिक चिकित्सा पद्धति की अनदेखी नहीं है, बल्कि समन्वय ही है। निश्चित रूप से यदि विज्ञान व परंपरा के समन्वय का मणिकांचन संयोग होगा तो सेहत के लक्ष्य हासिल करना ज्यादा आसान होगा। भारतीय जीवनशैली, खानपान, परिवेश व ऋतुचक्र के अनुरूप यदि उपचार होगा तो उसका सकारात्मक प्रतिसाद भी मिलेगा। ऐसे में हमारी सस्ती परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां गरीब, विकासशील व ग्लोबल साउथ के देशों को आरोग्य की राह दिखा सकती हैं। जरूरी है कि सदियों के अनुभव से हासिल गुणवत्ता व प्रमाणिकता के परंपरागत ज्ञान और आधुनिक चिकित्सा पद्धति के मध्य तालमेल की कोशिश की जाए।

Advertisement

Advertisement
Advertisement