सृजन में माटी की सौंधी महक
डॉ. जयभगवान शर्मा
हरियाणवी लोकनाट्य परंपरा (सांग) के कथानक को आगे बढ़ाने वाली रागिनियां यहां के लोक जीवन में रची-बसी हैं। छंद विशेष में सृजित रागिनियों का अपना विशिष्ट व मौलिक महत्व रहा है। ‘लावणी’ तथा ‘सार’ छंदों पर केंद्रित आलोच्य रागिनी-संग्रह ‘लावणी-सार’ यथा नाम तथा गुण है, जिसमें माटी की सौंधी महक को महसूस किया जा सकता है।
दैनिक ट्रिब्यून के साप्ताहिक स्तंभ ‘राग रागिनी’ में प्रकाशित हो चुकी इन रचनाओं को प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत का दर्पण कहा जा सकता है।
कवि लुप्त होती हरियाणवी संस्कृति के विषय में चिंतित हैं : ‘एक बखत था साम्मण साम्मण, गूंज्जैं थे मल्हार घणे/ पींघ-पाटड़ी लांबे लंगर, झोट्टे न्यारे त्यार घणे। रळ-मिल झुल्ले परिवार घणे, पर इब वै जजबात नहीं/ मन की क्यारी सुक्की सारी, पहलम-से हालात नहीं।’ वस्तुतः प्रादेशिक संस्कृति की अनुभूतियों की दिव्य सिलवटों को परत-दर-परत खोलकर अपने बोध को वैखरी रूप देना सुधि कवि ‘नाहड़िया ‘ की एक साधना है। हरियाणवी बोली के वैशिष्ट्य के प्रतिपादन के साथ-साथ लुप्त होते प्रादेशिक रीति- रिवाज, ऋतु वर्णन, कुत्सित राजनीति, सामाजिक सरोकार, महिला सशक्तीकरण, समयानुसार बदलते परिवेश, तीज-त्योहारों के रंग, तत्व-दर्शन, गीता -ज्ञान, देशभक्ति आदि विषयों को कवि ने अपनी रागिनियों का आधार बनाया है तथा समसामयिक मुद्दों के प्रति जागृति व सकारात्मक सोच को प्रवृत्त किया है। संग्रह की सभी रागनियां छंदोबद्ध हैं। यद्यपि कहीं-कहीं भावों की पुनरावृत्ति अवश्य हुई है तथापि उनका अंदाज और कथ्य नव्य है।
समग्रतः कहा जा सकता है कि संग्रह की समस्त रागनियां छंद शास्त्र के निकष पर खरी उतरती हैं तथा रागिनी विधा के उन्नयन व लोकसंस्कृति के संवर्धन-संरक्षण में महती भूमिका निभाती हैं। रागनियों में अनुप्रास अलंकार का बहुधा प्रयोग देखने को मिलता है :- ‘चाल्लू चिल्ला चालीसा यो, जो मरवावै चिल्ली’/ ‘ताल तलैया लेय तिलारा, मींढक नित टर्रावैं।’ इसके अतिरिक्त उपमा, उत्प्रेक्षा, श्लेष, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग भी हुआ है।
पुस्तक : लावणी-सार कवि : सत्यवीर नाहड़िया प्रकाशक : समदर्शी प्रकाशन, गाजियाबाद पृष्ठ : 109 मूल्य : रु. 175.