सिक्के से सीख
सिंहगढ़ राज्य की सीमा के पार बसे गांव सोनपुर में कहीं से एक महात्मा आकर विराजे। वे अपने दो शिष्यों के साथ भिक्षाटन हेतु जा रहे थे, तभी राह में उन्हें एक कीमती सिक्का मिला। महात्मा ने वह सिक्का अपनी झोली में रख लिया। शिष्यों के मन में कौतूहल जागा—‘वीतरागी संत का सिक्के से क्या काम?’ गुरुजी उनके अंतर्मन की हलचल भांप गए। मुस्कराकर बोले, ‘बच्चो! यह सिक्का मुझे प्रभु ने इसलिए दिया है, ताकि मैं इसे किसी सुपात्र को सौंप सकूं।’ कई दिन बीत गए, पर महात्मा ने वह सिक्का किसी को नहीं दिया। तभी समाचार मिला कि सिंहगढ़ के राजा पड़ोसी राज्य पर चढ़ाई करने आ रहे हैं। महात्मा ने अपने शिष्यों से कहा, ‘सोनपुर छोड़ने का समय आ गया है, चलो।’ तभी राजा की सवारी वहां आ पहुंची। वह हाथी से उतरकर साधु को प्रणाम करते हुए बोला, ‘महाराज! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। कृपया मुझे आशीर्वाद दें।’ महात्मा ने झोली से वह सिक्का निकाला और राजा को सौंपते हुए बोले, ‘नृपति! तुम्हारा राज्य वैभव के शिखर पर है—धन है, सेना है, यश है और प्रजा में सुख-शांति भी है। फिर भी तुम दरिद्र हो, क्योंकि इतना सब कुछ होते हुए भी तुम्हारे मन में संतोष नहीं है। तुम्हारे इस युद्ध में हजारों लोग मारे जाएंगे, गांव उजड़ेंगे, चीख-पुकार मचेगी। प्रभु ने जो यह विशेष सिक्का मुझे सौंपा था, वह अब मैं तुम्हें दे रहा हूं। इसे ईश्वर की चेतावनी और कृपा दोनों समझो।’
प्रस्तुति : राजकिशन नैन