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साधना स्थली में जीवंत चैतन्य व्यक्तित्व

11:35 AM May 28, 2023 IST
साधना स्थली में जीवंत चैतन्य व्यक्तित्व
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वीरेन्द्र ‘आज़म’

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सहारनपुर शहर के पास काष्ठ पर मुगलकालीन नक्काशी का हुनर है तो शब्द शिल्पी पद्मश्री कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर के साहित्य की सुरभि भी। देवबंद कस्बे में 29 मई, 1906 को जन्मे हिन्दी साहित्य के शलाका पुरुष, शैलियों के शैलीकार, रिपोर्ताज विधा के जनक और विभिन्न विधाओं के पोषक डॉ. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की साधना स्थली इसी शहर सहारनपुर में है। उनसे मिलने की इच्छा हुई तो गत 9 मई, 2023 को उनकी 28वीं पुण्यतिथि पर उनसे मिलने उनकी साधना स्थली पहुंचा। जहां वे अपनी प्रत्येक कृति और रचना में मौजूद हैं। प्रभाकर जी ने अपने मृत्यु चिंतन में कहा था-‘जन्म से मृत्यु तक का मेरा चैतन्य व्यक्तित्व सजीव रूप में मेरे लेखों में है, जब भी कोई मेरा मुझसे मिलना चाहे मेरी रचनाएं पढ़कर मुझसे मिल सकता है। मुझे अपने निकट अनुभव कर सकता है।’

सहारनपुर में स्टेशन रोड और घंटाघर से सिर्फ पचास कदम की दूरी पर स्थित है हाथी बिल्डिंग का विशाल भवन। इसी बिल्डिंग के एक भाग में ‘प्रभाकर जी की साधना स्थली’ है। इस पावन स्थल पर उन्होंने करीब आधी शताब्दी तक साहित्य साधना की है। साधना स्थली के मध्य भाग में उनका साधना कक्ष स्थित है। प्रवेश द्वार से सटी और किताबों से अटी उनकी छोटी मेज है, जिस पर सपाट रूप में एक शीशा स्थित है। शीशे के भीतर से उन्हीं के हाथों से लिखी महत्वपूर्ण सूक्तियां मानवता और राष्ट्रीयता का संदेश देने के साथ ही जीवन दर्शन समझाती चलती हैं। इसी मेज पर एक बड़ा-सा दर्पण पुस्तकों से सटा खड़ा है। उनके सुपुत्र अखिलेश प्रभाकर बताते हैं कि वे कुर्सी पर बैठकर लिखते समय इसमें अपना मुखमंडल निहारते थे। मुख मंडल निहारते क्या थे, अपने अंतर्मन से बात करते थे और अपने भीतर से उठते सवालों का खुद को जवाब देते थे, और यही जवाब कागज पर अक्षर बनकर उनकी सृजन यात्रा के साथ आगे बढ़ जाता था।

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साधना कक्ष में अनेक राजनेताओं और अनेक साहित्यकारों के भी चित्र हैं। साधना कक्ष के मध्य दीवार पर बनी एक अलमारी में उनका मंदिर है। प्रभाकर जी ने अपने जीवन दर्शन में कहा भी है-‘मैं एक कर्मकाण्डी पिता की संतान हूं, पर धर्म के कर्मकाण्ड रूप ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया। धर्म को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई रूप में मैंने कभी नहीं देखा। मानव में मेरी अथाह दिलचस्पी रही।’

साधना कक्ष में उनकी हज़ारों पुस्तकें इस करीने से लगी हैं कि रात के अंधेरे में भी इच्छित पुस्तक को वे निकाल सकते थे। इन पुस्तकों में हिन्दी साहित्य, भाषा और शैली को समृद्ध करने वाली उनकी अनेक कृतियां भी शामिल हैं। इनके माध्यम से ही मुझे उनसे मिलने और उनकी सृजन यात्रा में शामिल होने का अवसर मिला। अलमारी में सजी उनकी इन कृतियों में ‘भूले हुए चेहरे’, ‘नई पीढ़ी नये विचार’, ‘आकाश के तारे धरती के फूल’, ‘जिन्दगी मुस्कराई’, ‘बाजे पायलिया के घुंघरू’, ‘दीप जले शंख बजे’, ‘महके आंगन चहके द्वार’, ‘क्षण बोले कण मुस्काये’, ‘दूध का तालाब’, ‘एक मामूली पत्थर’, ‘उत्तर प्रदेश स्वाधीनता संग्राम की एक झांकी’, ‘यह गाथा वीर जवाहर की’, ‘जियें तो ऐसे जियें’, ‘अनुशासन की राह में’, ‘जिन्दगी लहलहाई’, ‘कारवां आगे बढ़े’ तथा ‘माटी हो गयी सोना’ आदि भी दिखाई देती हैं।

मैं उनकी कुछ कृतियों को उलटता-पलटता हूं। प्रभाकर जी के पास जगत तथा जीवन के अति विस्तृत एवं विभिन्न प्रकार के अनुभव हैं। ‘बाजे पायलिया के घुंघरू’ के एक लघु आलेख ‘एक तस्वीर के दो पहलू’ में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाकर जी का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत है, देखिए- ‘मानवता की प्रतिष्ठा के लिए स्वतंत्रता आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। चूंकि परतंत्रता जहां दानवी वृत्तियों को उभार कर क्रोध के ज्वालामुखी एवं हृदयहीनता को जन्म देती है, वहीं स्वतंत्रता हमारे भीतर प्रेम की पवित्रता, सरसता के सौंदर्य एवं स्नेह के लहलहाते सागर को।’

‘आकाश के तारे धरती के फूल’ प्रभाकर जी की 72 लघुकथाओं का संग्रह है। सनzwj;् 1952 में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित इस संकलन की लघुकथाओं का मूल आधार मानवता है। उसी का भावात्मक चित्रण इन कथाओं में है। ‘बाजे पायलिया के घुंघरू’ 36 लेखों का संग्रह है। 1957 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित इस संकलन के लेखों का आधार भी मानव है। उनके ये आलेख मानव को मानसिक पूर्णता प्रदान कर उनके जीवन को ऊंचा उठाते हैं और आनन्दमय बनाते हैं।

वे प्रखर स्वतंत्रता सेनानी भी रहे और प्रखर पत्रकार भी। स्वाधीनता आंदोलन में उनके साथी रहे पं. जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार जब सरसावा हवाई अड्डे पर उनसे पूछा, प्रभाकर आजकल क्या कर रहे हो? तब उन्होंने कहा था-‘पंडित जी मैं आपके और अपने बाद का कार्य कर रहा हूं। आज देश की सारी शक्ति पुल, बांध, कारखाने, और ऊंची बिल्डिंगें बनाने में लगी हैं, भवन और चिमनियां ऊंची हो रही हैं लेकिन आदमी छोटा होता जा रहा है। भविष्य में किसी समय जब कभी देश का नेतृत्व ऊंचे मनुष्य के निर्माण में शक्ति लगायेगा, तब जिस साहित्य की जरूरत महसूस होगी, मैं उसी का सृजन कर रहा हूं।’

उनके साधना कक्ष में सुबह से शाम कब हो गयी पता ही नहीं चला। अनुभूति होती है प्रभाकर जी यहीं कहीं हैं मेरे पास और सामने आशीर्वाद देते हुए पूछ रहे हैं ‘मिल लिए, कभी समय निकाल कर फिर आना’। ठीक उसी अंदाज और मुस्कुराहट के साथ, जैसा कि जब कभी मैं उनसे मिलकर चलता था और वे अक्सर मुझसे कहा करते थे।

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