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साझी विरासत को सम्मान देती सोच से लें सीख

04:00 AM Dec 30, 2024 IST

भूतपूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में देश के विकास को गति देने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए जिनमें से एक अमेरिका से असैन्य परमाणु करार था। जिसका मकसद अमेरिका से संबंध सुधारकर विदेशी निवेश की राह खोलना था। लेकिन ‘विदेशी अधीनता’ के आरोपों के तहत संसद में उन्हें विरोध सहना पड़ा। पड़ोसी देशों से वे बेहतर रिश्तों के पक्षधर रहे। प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी नीति सभी समुदायों-वर्गों को साथ लेकर चलने की रही।

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ज्योति मल्होत्रा

डॉक्टर मनमोहन सिंह के निधन के बाद के कुछ घंटों में, कांग्रेस नेता मनीष तिवारी के लेख और साथी पत्रकार प्रदीप मैगजीन की सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में विचार व्यक्त किए हैं कि किसलिए मीडिया के एक हिस्से ने 2014 में गैर-जिम्मेदाराना हरकतों को अपनाया था– जब वह उनके प्रधानमंत्रित्व काल के अंतिम महीनों में भले मानस डॉक्टर साहिब के पीछे बेहद अजीब तरीके से पड़ गया था। एक्स प्लेटफार्म पर आई मैगजीन की बहुत सटीक टिप्पणी, काफी कुछ कह गई : ‘वह भयानक अहसास : भारत को मनमोहन सिंह को बदनाम करने के अपराध बोध के साथ जीना होगा’।
हममें से जिन लोगों ने 2012-2014 के बीच इस निष्ठुर कथानक को घटते देखा होगा, इसकी आलोचना न करने के कारण इस बदनामी अभियान के भागीदार रहे, इस बारे में कोई मुगालता न रहे। हमने भवन को टुकड़े-दर-टुकड़े भरभराते देखा। हमने देखा कि कैसे राहुल गांधी ने 2013 में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में उस अध्यादेश को फाड़ दिया था, जिसे मनमोहन सिंह दोषी राजनेताओं को अस्थायी संरक्षण देने के लिए सदन में पास करवाना चाह रहे थे –यह तब हुआ जब भाजपा पहले से डॉ. सिंह पर गांधी परिवार की ‘कठपुतली’ होने का इल्जाम लगाती आई थी। हमने देखा कि भाजपा ने उसके बाद वाले शीतकालीन संसद सत्र में कामकाज चलने नहीं दिया था और भाजपा नेता अरुण जेटली ने आक्रामक रूप से सदन ठप करने के लिए अपनी पार्टी का बचाव किया। इससे पहले 2008 में, प्रेस गैलरी से हमने देखा था कि कैसे भाजपा ने संसद में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के पक्ष में प्रधानमंत्री को बोलने नहीं दिया और सदन उस वक्त लगभग ठप हो गया था जब कथित तौर पर सांसदों को एकतरफा वोट देने के एवज में दी गयी नकदी बरामद हुई।
बेशक यूपीए के पास संख्या बल था, इसलिए मतदान में जीत मिली- और जॉर्ज बुश के साथ परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। सीपीआई(एम) के प्रकाश करात सहित अधिकांश लोगों ने यह समझने की बिल्कुल भी जहमत नहीं उठाई कि परमाणु समझौता वास्तव में है क्या - यह किसी विदेशी शक्ति के अधीन काम करने के बारे में कभी भी नहीं था, बल्कि वैश्विक जिम्मेदारी की पुनः पुष्टि को लेकर था, यह भी कि इससे अमेरिका के साथ रिश्ते सहज होने से विदेशी निवेश के दरवाजे खुलेंगे, जिसकी भारत को सख्त जरूरत थी, ताकि वह अपना भाग्य फिर से गढ़ सके।
चीनी नेता देंग का वह पसंदीदा नारा याद कीजिये? ‘जब तक बिल्ली चूहे पकड़ने लायक है, तब तक आप यह नहीं पूछते कि वह काली है या सफेद’? चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और राष्ट्रवादी निश्चित रूप से पश्चिमी देशों के साथ साझेदारी बनाने में चीन की जरूरत का जिक्र कर रहे थे, क्योंकि विदेशियों के पास चीन में निवेश करने की क्षमता थी। अगर चीन अपने वैचारिक दुश्मन को गले लगाने की आवश्यकता समझ सका, तो प्रकाश करात क्यों नहीं? डॉ. मनमोहन सिंह को यह सवाल पूछना चाहिए था - या कम से कम तब पीएमओ में राज्य मंत्री और उनके आंख-कान रहे पृथ्वीराज चव्हाण को अक्सर यह प्रश्न उठाना चाहिए था। मनमोहन सिंह को यह भी पता था कि अमेरिका के साथ भारत की दोस्ती बनने से चीनियों को परेशानी होगी, हो सकता है इसके मद्देनज़र वे भारत के साथ अधिक नरम रुख रखने को लिए राज़ी हों। और ऐसा हुआ भी, जब 2005 में, भारत और चीन ने सीमा विवाद को सुलझाने के लिए वार्ता शुरू की - हालांकि बाद में चीन पीछे हट गया, जब उसने देखा कि भारत दुनिया से अलग-थलग और कमजोर पड़ रहा है, लेकिन यह बाद में हुआ।
दुखद यह कि सीताराम येचुरी, जिन्होंने भारत-अमेरिका समझौते को घरेलू राजनीति से जोड़ने के सीपीएम के फैसले का खुलकर विरोध किया था, उन्हें उनकी अपनी पार्टी ने ही खारिज कर दिया। येचुरी हार गए, करात जीत गए और यूपीए के पैरों तले से जमीन खिसका दी। विडंबना यह है कि कुछ साल बाद, प्रकाश करात के कट्टर सहयोगी पिनाराई विजयन के नेतृत्व वाली केरल की वामपंथी सरकार ने लंदन स्टॉक एक्सचेंज में ‘मसाला बॉन्ड’ का समर्थन किया, जिसके जरिये केरल के स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र में नई पहल के वास्ते पूंजी जुटाई गई, और जिससे राज्य की सूरत बदल दी। केरल को छोड़कर, देश के बाकी हिस्सों से सीपीएम साफ हो गई। समय की मांग के साथ आगे बढ़ने की जरूरत का मनमोहन सिंह का मंत्र पूरे भारत में गूंजा - इसने वामपंथियों को व्यावहारिक रूप से खत्म कर दिया और भारतीय उद्यमियों की ‘जिंदादिली’ की प्रवृत्ति को बंधन मुक्त करते हुए उन्हें देश की भौगोलिक सीमा से परे की दुनिया में नई साहसिक छलांगें लगाने का मौका दिया, यह वो था जिसकी कल्पना 1947 में परिवार के साथ रेडक्लिफ सीमा पार कर भारत में आते वक्त खुद डॉ. सिंह ने भी नहीं की होगी। बारिश से भीगते सप्ताहांत में डॉ. सिंह का निधन हमें दो ‘कल्पनाएं’ करने का अवसर प्रदान करता है। पहली, जरा सोचकर देखें, यदि मनमोहन सिंह चीनियों के साथ सीमा समाधान निकालने में समर्थ होते। गलवान प्रसंग न घटता, तब चार साल तक चीनी आपकी सीमा पर बैठकर आपकी ओर न देखते। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति स्थापित हो चुकी होती। इसके अलावा, यह कल्पना भी करें कि अगर मनमोहन सिंह 2008 में अपने जन्मस्थान गाह के दौरे कर जाते। तो पाकिस्तान के साथ भी चीजें अच्छी चल रही होतीं। कुछ समय के लिए दोस्ती की ब्यार चली भी, जब 2005 में मुशर्रफ एक क्रिकेट मैच देखने के लिए दिल्ली आए और उन्होंने मनमोहन सिंह को वापसी यात्रा पर आमंत्रित किया था। इस बीच डॉ़ सिंह ने सियाचिन का एक संक्षिप्त दौरा किया था और एनजे 9842 नामक जगह पर समाप्त होने वाले ग्लेशियर का जिक्र करते हुए -जिसकी उंचाई का फायदा उठाने की चाहत भारत और पाकिस्तान दोनों को थी -उसे एक ‘शांति कुंज’ में बदलने की तमन्ना व्यक्त की। मनमोहन सिंह कश्मीर की एक दिन की यात्रा पर भी गए थे, वहां तमाम किस्म के भारतीयों से संवाद करने और वार्ता प्रक्रिया आगे बढ़ाने के लिए 8 गोलमेज वार्ताएं हुईं- इनमें राजनीति विषय वाली बैठक की अध्यक्षता उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने की थी।
इस बीच, भारतीयों और पाकिस्तानियों ने पहले ही मन बना रखा था कि रेडक्लिफ लाइन को इतिहास बना दिया जाए - ताकि लोग एक-दूसरे के यहां आते-जाते रहें। पाकिस्तानी गायकों ने बॉलीवुड फिल्मों के लिए पार्श्व गायन किया, अमृतसर और लाहौर में अचल संपत्ति की कीमतें बढ़ गईं। मुशर्रफ ने गाह को स्ट्रीट लाइट से रोशन करने की विशेष अनुमति दी, जिसकी निगरानी ‘टेरी’ के आरके पचौरी ने व्यक्तिगत रूप से की। जिस स्कूल में मनमोहन सिंह बचपन में पढ़े थे, उसके भवन को संवारा गया। दोनों शहरों में बातचीत का केंद्र बिंदु था -‘रास्ते जल्दी ही खुल जावांगे’।
लेकिन 2008 के मुंबई आतंकी हमले से खुलने की इस प्रक्रिया को एक करारा झटका लगा। पाकिस्तान में, 2009 तक वकीलों के आंदोलन ने जोर पकड़ लिया और मुशर्रफ सत्ता से बाहर हो गए। दोनों मुल्कों में बातचीत पुनर्जीवित करने के प्रयास कभी शुरू तो कभी रुकने का सिलसिला 2014 के चुनावों की पूर्व संध्या तक चलता रहा, जब अमृतसर से लाहौर के बीच निर्बाध राह खोलने के गंभीर प्रयास अंततः दफन हो गए। नरेंद्र मोदी को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन मनमोहन सिंह का अनुसरण करते हुए उन्होंने अपने शपथ ग्रहण के अवसर पर दक्षिण एशिया के सभी नेताओं को दिल्ली आमंत्रित किया।
अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह (नेहरू या शास्त्री या इंदिरा जितना पीछे न भी जाएं तो) दोनों ने महसूस किया कि भारत के प्रधानमंत्री को अवश्य ही सभी लोगों को साथ लेकर चलना चाहिए, भले ही उन्होंने आपको वोट दिया हो या नहीं। यह भी कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को सांप्रदायिक, वर्गीय या जातीय आधार पर नहीं बांटा जा सकता। साथ ही यह कि घर में शांति आपके पड़ोस में शांति का एक कारक है।
कल्पना कीजिए कि काश भारत का मौजूदा राजनीतिक वर्ग इस साझी विरासत को लागू कर सके।

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लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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