समाज के सच की अनदेखी न करें निर्माता
फिल्म मदर इंडिया में बिरजू की भूमिका से लेकर सुजाता, मिलन और गुमराह जैसी फिल्मों में एक्टिंग हो या फिर ‘मुझे जीने दो’ का डाकू का दमदार किरदार- दिवंगत अभिनेता सुनील दत्त के जीवंत अभिनय को आज भी दर्शक भूले नहीं हैं। फिल्मों के जरिये समाज सुधार, विकास और मुद्दा आधारित फिल्म निर्माण-निर्देशन की चुनौतियों को लेकर बरसों पहले उनसे हुई लेखक दीप भट्ट की बातचीत के अंश।
कहने को सुनील दत्त फिल्म मदर इंडिया के बैड ब्वाय थे। गुड ब्वाय की भूमिका राजेन्द्र कुमार के हिस्से में आई थी। पर मैंने जब भी मदर इंडिया देखी मुझे फिल्म का बैड ब्वाय यानी बिरजू ही अच्छा लगा। बेईमानी से हड़प ली गई जमीन और मां के सोने के कंगनों को पाने के लिए जिस जी-जान से वह गांव के महाजन यानी सुखी लाला से संघर्ष करता है वह देखने लायक है। इस संघर्ष के दौरान सुनील दत्त ने गुस्से की बेहतरीन भाव अभिव्यक्तियां दी हैं। मां के प्रति उनके प्यार और समर्पण के कई दृश्य तो आत्मा को छू लेते हैं। सुनील दत्त की इस छवि में बाद में सुजाता और मिलन जैसी अनगिनत फिल्मों की छवियां जुड़ती चली गईं। पर उनसे मुलाकात का मन तो मदर इंडिया की बिरजू वाली छवि ने ही बनाया। उनसे मुलाकात हुई 26 जनवरी 2001 को उनके बांद्रा पाली हिल स्थित ऑफिस में। उनसे आजादी के बाद से आये फिल्मी बदलाव और उनके फिल्मी कैरियर पर विस्तार से बातचीत हुई।
आपने हिंदी सिनेमा का एक लंबा दौर देखा। आज कैसा महसूस करते हैं?
फिल्म, लिट्रेचर और म्यूजिक तीनों हमारे समाज को रिफ्लेक्ट करते हैं। जिस तरह का समाज होता है उस लिहाज से हर चीज बदलती रहती है। पहले हमारे यहां नेशनलिज्म था अब नेशनलिज्म रहा नहीं। अब तो ये हो गया है कि कहीं कम्युनलिज्म है, कहीं रीजनलिज्म है। वो जमाना अलग था। उस समय देश के किसी कोने में कोई समस्या होती थी तो हम समझते थे कि ये हमारी हिन्दुस्तान की समस्या है। हम फिल्मों के जरिये उस समस्या का हल तलाश करने की कोशिश करते थे।
‘मुझे जीने दो’ में हिन्दू-मुस्लिम शादी दिखाई थी। तब इसे लेकर क्या सवाल खड़े हुए थे?
समाज ने उसे एक्सेप्ट भी किया था। उस जमाने में समाज एक अच्छे रास्ते पर चल रहा था। पॉलिटिशियंस ने तब उसका फायदा नहीं उठाया था। भोपाल में ये पिक्चर रिलीज हुई थी तो कुछ मौलवी लोगों ने बड़ा एजिटेट किया था। उन्होंने मुस्लिम स्टूडेंट्स को इस फिल्म के खिलाफ भड़काने की कोशिश की। जावेद अख्तर जो आज बहुत बड़े राइटर हैं, गीतकार हैं ये उस वक्त स्टूडेंट लीडर थे, ने मुझे बताया कि हम सब देखने गए पिक्चर आपकी। फिल्म देखने के बाद हमें अच्छा लगा कि एक सच्चाई की बात चल रही है। तब उन्होंने कहा कि कोई स्टूडेंट फिल्म के खिलाफ एजीटेशन नहीं करेगा। लेकिन अब इस तरह के मुद्दे उठाते वक्त फिल्मकार को बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है।
आपने कई समाज सुधार की फिल्मों में काम किया जिनमें एक थी साधना जो बी.आर. चोपड़ा फिल्म्स के बैनर तले बनी थी?
उस जमाने में बुनियादी तौर पर समाज सुधार की फिल्में होती थीं। जैसे चोपड़ा साहब की फिल्में। उनकी एक पिक्चर थी साधना। उसमें यह लड़की तवायफ है। हीरो प्रोफेसर है। फिल्म के एक शॉट में हीरो की मां मर रही है। मां यह कहती है कि मैं मरने से पहले बहू को देखना चाहती हूं। एक तवायफ को लाते हैं, उस को सिखाया जाता है कि वह घर में ऐसे पेश आए जैसे असली बहू हो। मां उस बहू को स्वीकार कर लेती है। मां अच्छी होना शुरू हो जाती है। अब इनके लिए मुसीबत हो गई। ये लड़की से कहते हैं कि तुम अब जाओ। मां कहती है कि तुम लाओ मेरी बहू को। ये ड्रामा था। एक आर्थोडॉक्स मां उस तवायफ को स्वीकार कर लेती है। पिक्चर हिट थी वो। लेकिन ऐसे विषय को लेकर अब माहौल बदल गया है।
मदर इंडिया से आपके कैरियर ने एक नया मोड़ लिया था। इस फिल्म के बारे में क्या कहेंगे?
मदर इंडिया से बेहतर फिल्म तो मैंने देखी नहीं। जो 80 से 90 फीसदी लोगों की जिंदगी को रिप्रेजेंट करे और सुपर हिट हो। मदर इंडिया की रिलीज के बाद भारत सरकार बड़े सुधार लाई खेती के लिए, स्पेशल बैंक बने ताकि किसानों को लोन मिल जाए। अच्छे बीज आने शुरू हो गए। नहरें बननी शुरू हो गईं। तो ये सारी मूवमेंट फिल्म मदर इंडिया के बाद आई।
आपको मदर इंडिया की सबसे बड़ी ताकत क्या लगती है?
मदर इंडिया के कई शॉट आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर अंकित हैं। याद कीजिए जहां बिरजू (सुनील दत्त) कन्हैया लाल की बेटी को घोड़े पर लेकर भाग रहा है। मां उसे यह कहकर रोकने का प्रयास करती है कि बेटा, मैंने तुझे बड़ी मुश्किलों से जवान किया है। जब वह नहीं रुकता तो वह, ‘मैं बेटा दे सकती हूं पर लाज नहीं दे सकती’ कहकर बेटे को गोली मार देती है। इसके बाद जहां मां-बेटे गले मिलते हैं, वहीं बिरजू के हाथों से मां के सोने के कंगन गिर रहे हैं। इस दृश्य को देखकर यूं लगता है कि जैसे मां-बेटे ने अपने-अपने हक अदा कर दिए।
आपने मदर इंडिया में महबूब खान और सुजाता में बिमल रॉय जैसे दिग्गज फिल्म निर्देशक के साथ काम किया। दोनोंके काम का तरीका कैसा था?
जिन लोगों के साथ मैंने काम किया उनमें पहले महबूब खान साहब थे। बिमल रॉय जी से मैंने बहुत कुछ सीखा है। विजुअल क्रिएट करने में उनका कोई जवाब नहीं था। इनकी वजह से ही मैं डॉयरेक्टर और प्रोड्यूसर बना। एक्टिंग और फिल्ममेकिंग के गुर मुझे महबूब साहब ने सिखाए। उनके साथ बैठ-बैठ करके फिल्म मेकिंग सीखी। वे पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन अभिनय की एक-एक चीज बारीकी से बताते थे।
अभिनय में आंखों की भूमिका को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं आप?
यह फिल्म पर डिपेंड करता है। दरअसल पढ़े-लिखे आदमी के एक्सप्रेशंस अंदर दबे हुए होते हैं। और जो अनपढ़ लड़का होगा उसका गुस्सा और प्यार दोनों उसके चेहरे पर होंगे। ठीक मदर इंडिया के बिरजू की तरह। पढ़ा-लिखा आदमी गुस्सा भी करेगा तो उसके बोलने का तरीका अलग होगा। उसके प्यार का स्टाइल भी बड़े मेच्योर टाइप का होगा। आंखों के इंप्रेशन का यह फर्क सुजाता और मदर इंडिया को देखते ही पता लग जाता है। ऐसे ही ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ देखें और फिर मदर इंडिया देखें तो आपको फर्क नजर आएगा। आंखों से आप हजारों चीजें एक्सप्रेस कर सकते हो।
‘मुझे जीने दो’ में डकैत की भूमिका को इतने जीवन्त तरीके से निभाना कैसे मुमकिन हुआ?
जब हम मुझे जीने दो बना रहे थे तो मैंने सोचा, यार ये डाकू लोग इतनी दहशत पैदा कर देते हैं लोगों में। मैं उनके बारे में फिल्म बना रहा हूं। उन्हीं दिनों की बात है कुछ डाकुओं ने आचार्य विनोबा भावे के सामने सरेंडर किया था। मैं स्पेशली उनसे मिलने गया। मुझे याद है मैंने वहां रुक्का डाकू को देखा था। रुक्का की आंखें ऐसी थीं जैसे कि चील की आंखें होती हैं। मैं उसकी आंखें बहुत देर तक देख नहीं सका। वो पांच फुट छह इंच का आदमी और हम छह फुट एक इंच के आदमी। मैंने देखा कि यार पावर क्या है, पावर तो आंखों में हैं। फिर मैंने डिसाइड किया कि ‘मुझे जीने दो’ में आंखों का ही प्ले होगा। लोगों को बहुत पसंद आया।
क्या आपके जमाने में भी फिल्मों में काले धन की समस्या थी?
हमारे जमाने में भी बहुत थी। आजकल फिल्म बनाने में बहुत ज्यादा पैसे लगते हैं। उस जमाने में भी ब्लैक मनी थी। ब्लैक मनी कहां नहीं है। सिर्फ फिल्म लाइन में ही ब्लैक का धंधा नहीं है। दरअसल ये ऐसा प्रोफेशन है कि फिल्म वालों को कोई भी गाली दे सकता है। हमारे जमाने में भी जो अच्छे फिल्म मेकर थे वे फिल्में बनाते थे। वो लोग फिल्मों को फाइनेंस करते थे।
सिनेमा का भविष्य कैसा नजर आता है आपको?
आजकल हम आ गए हैं एस्केपिज्म में। हम रियलिटी से भाग रहे हैं। एक तरह का डर बैठ गया है फिल्मकारों के भीतर।