समय ने उन्हें खुद-ब-खुद कहानीकार बनाया
प्रकाश मनु
हिंदी के दिग्गज कथाकारों में लोकसाधक देवेंद्र सत्यार्थी का नाम अलग पहचान में आता है। इसलिए कि उन्होंने कहानी की बनी-बनाई राह पर चलने से इनकार करके, अपनी एक अलग लीक, अलग राह बनाई। सत्यार्थी जी की कहानियों में जगह-जगह उनकी आत्मकथात्मक छवियां बिखरी पड़ी हैं और उनकी घुमक्कड़ी की वे रोमांचक दास्तानें भी, जब वे लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव और डगर-डगर पर चलते हुए इस महादेश की परिक्रमा कर रहे थे।
इसमें संदेह नहीं कि सत्यार्थी जी की अथक लोक यात्राओं में हासिल हुए अनुभवों की अकूत संपदा ने ही उन्हें कहानीकार बनाया। लेकिन एकदम अलग पाए का कहानीकार, जिनकी कहानियों में धरती की गंध है। उस जमाने में उर्दू में मंटो, बेदी, कृश्न चंदर और इस्मत चुगताई के साथ सत्यार्थी जी की कहानियां खूब धज से छपती थीं और जोरों से उनकी चर्चा होती थी। बगैर सत्यार्थी जी की कहानियों के उस दौर की कहानियों की ऊर्जा, शक्ति और संवेदना को जाना ही नहीं जा सकता और न कहानी के इतिहास की चर्चा की जा सकती है। सत्यार्थी जी उस समय सुर्खियों में थे और कहानी की बड़ी से बड़ी पत्रिका उनकी कहानियों को पाकर धन्य होती थी।
लेकिन सत्यार्थी जी ने लोक साहित्य के मर्मज्ञ और व्याख्याता के रूप में चतुर्दिक ख्याति पा लेने के बाद कहानियां लिखने का फैसला क्यों किया? एक बार पूछने पर उन्होंने बताया था कि वे उन दिनों राजेंद्रसिंह बेदी के पास ठहरे थे जो तरक्कीपसंद कहानीकार के रूप में मशहूर हो चुके थे और सत्यार्थी जी को उनकी कहानियां बेहद प्रिय थी। लोकयात्री सत्यार्थी लाहौर में उनके साथ रोजाना घूमने जाया करते थे और रास्ते में अपनी यात्राओं के अजीबोगरीब अनुभव और संस्मरण सुनाया करते थे। वे जब भी कोई घटना सुनाते, बेदी झट कह उठते, ‘अरे, यह तो कहानी हो गई!’
बस, इसी बात ने उन्हें उत्प्रेरित किया और वे कहानी लिखने बैठ गए। राजेंद्रसिंह बेदी उम्र में उनसे छोटे थे, पर सत्यार्थी जी ने उन्हें अपना कथागुरु मान लिया तो जीवन भर गर्व से कहते रहे, ‘राजेंद्रसिंह बेदी कहानी में मेरे गुरु हैं।’
सत्यार्थी जी की कहानियों में जीवन की घुमक्कड़ी के इतने बीहड़, कठोर और दुस्साहसी अनुभव हैं कि वे जल्दी ही जीवन के खुले विस्तार और उष्मा से सरोबोर कहानीकार के रूप में पहचाने जाने लगे। एक बार उन्होंने कहानी की दुनिया में पैर रखा तो वे सरपट इस ओर भागते ही चले गए। देखते ही देखते वे अपने समकालीन कहानीकारों की प्रथम पंक्ति में आ गए।
फिर जब उन्हें लगा कि कहानियों में उनके अनुभव पूरी तरह नहीं समा पा रहे हैं, तो उन्होंने उपन्यास लिखे। उनके ‘ब्रह्मपुत्र’, ‘रथ के पहिए’, ‘कथा कहो उर्वशी’, ‘दूध-गाछ’, ‘कठपुतली’, ‘घोड़ा बादशाह’, ‘सूई बाजार’ आदि उपन्यास आज भी आंचलिकता की भीनी सुवास और अछूते अनुभवों की ताजगी के कारण अलग से पहचान में आते हैं।
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सत्यार्थी जी के शुरुआती कहानी-संग्रह ‘चट्टान से पूछ लो’ की कहानियों में कई रंग हैं। अगर ‘कुंगपोश’ में एक कश्मीरी युवती की वेदना के साथ-साथ लोकगीतों की सी मीठी सरसता है, तो ‘कांगड़ी’ में कश्मीर की आजादी की लड़ाई का बेहद प्रामाणिक चित्रण है। ‘अमन का एक दिन’ में विश्व-युद्धों के खतरे की विभीषिका है। संग्रह की दो सबसे महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं ‘जन्मभूमि’ और ‘कबरों के बीचोबीच’।
इसके बाद के संग्रहों में ‘चाय का रंग’, ‘सड़क नहीं, बंदूक’ और ‘नए धान से पहले’ में सत्यार्थी जी की कहानियां ज्यादा खुलकर और दुस्साहसी ढंग से अपनी बात कहती नजर आती हैं। यथार्थ के न सिर्फ नए-नए स्तर, बल्कि बात कहने की नई-नई शैलियां और भाषा की बारीक अर्थ-छवियां भी यहां नजर आती हैं। ‘चाय का रंग’ में ‘इकन्नी’ जैसी छोटी और मार्मिक कथा में निजी जीवन का कोई पृष्ठ उघड़ पड़ा है तो ‘चाय का रंग’ जैसी सत्यार्थी जी की लंबी महत्वाकांक्षी कहानी भी है। ‘अन्न देवता’ में लोकतत्व को प्रतीक के अर्थ में एक नई अर्थभूमि दी गई है तो ‘ब्रह्मचारी’ में एंद्रिय अनुभवों की मांसलता है जो सौंदर्य के बड़े बारीक आवरण में झांकती है। ‘चाय का रंग’ में सत्यार्थी जी की सर्वाधिक चर्चित कहानियां हैं। उसके बाद ‘सड़क नहीं, बंदूक’ और ‘नए धान से पहले’ संग्रह सामने आए।
सत्यार्थी जी के कथाकार का चरमोत्कर्ष तब था, जब उनके साथ-साथ मंटो, बेदी, कृश्नचंदर अश्क और इस्मत चुगताई की कहानियां साहित्य के केंद्र में थी। अपने समकालीनों में सत्यार्थी जी की कहानियां लोक-चेतना और लोक-तत्वों से हिल-मिलकर चलने के कारण सबसे अलग दिखाई पड़ती हैं। इसीलिए मंटो ने बड़ी हसरत के साथ उन्हें पत्र लिखा था, ‘काश! मैं खुशिया होता और आपके साथ-साथ यात्रा करता!’ निश्चय ही कहानी में लोक-तत्वों का इतना अधिक, सार्थक और जीवंत प्रयोग किसी दूसरे साहित्यकार ने नहीं किया।