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समता का समाज

04:00 AM Jan 13, 2025 IST

दिनिश राय द्विवेदी

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एक खेत मजदूर अक्सर खेत मजदूर के घर या छोटे किसान के घर पैदा होता है। मजदूरी करना उसकी नियति है, वह वहीं काम करते हुए अभावों में जीवन जीता है। उसकी आकांक्षा होती है कि उसके बच्चे जैसे-तैसे कुछ पढ़ लिख जाएं। छोटे किसान भी फसलें उगाते हुए, कर्जों और मौसम की मार झेलते हुए जीते रहते हैं। इनके बाद आते हैं नगरीय टटपूंजिए जो हमेशा सपना देखते हैं कि किसी तिकड़म से उनमें से कोई सरकारी नौकरी में लग गया हो तो थोड़ी बड़ी पूंजी इकट्ठा कर लें। फिर ऐसा धंधा करें जिससे दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई कर लें। वे नहीं तो उनके बच्चे ही ऐश की जिन्दगी जी लें।
इनके बाद बड़े सरकारी अफसर हैं जिन्हें आप ब्यूरोक्रेट्स कहते हैं। ज्यादातर अफसर सरकारों के साथ सेटिंग में लगे रहते हैं। इन्हीं सबके बीच अब एक कहानी। एक पुजारी के बड़े बेटे को जब गणित और भाषा पढ़ने का हुनर आ गया तो घर में रखी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर भी मिला। स्कूल में भर्ती होने के साथ ही विज्ञान से साबका पड़ा। वह दोनों के बीच झूलता हुआ जब इस हालत में पहुंचा कि उसे जीवन जीने के लिए कुछ करना पड़ेगा, तब उसने बहुत सपने देखे। कभी अफसर बनने का, वैज्ञानिक बनने का पर वह पुजारी, ज्योतिषी, कथावाचक और अध्यापक कतई नहीं बनना चाहता था, क्योंकि इन पेशों की हकीकत जान चुका था।
अब उसका ध्यान इंजीनियरिंग की तरफ था, लेकिन उसे जीव विज्ञान पढ़ना पड़ा। कुछ दिन उसके आसपास के लोग उसे डॉक्टर कहते रहे कि शायद बन जाए। फिर उसने सब कुछ छोड़कर वकील बनना चुना जो मजदूरों की पैरवी करना चाहता था। एक दिन उसकी पत्नी ने बताया कि रतन टाटा का निधन हो गया है। उन्होंने दुनिया के टॉप उद्योगपतियों में शामिल होने की कोशिश जरूर की होगी, पर सफल नहीं हुए। लेकिन नीचे गिरने से बचते रहे। यही सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। हम अपने पिता-दादा से बेहतर स्थिति में आ सकें और अपने से नीचे की श्रेणी के लोगों के साथ जो अन्याय होता है उसको थोड़ा बहुत कम करने की कोशिश करते हुए, अपने जीवन के लिए जीने के साधन जुटाते हुए जी रहे हैं।
सबकी यही सोच होती है कि हमारे बच्चे हम से बेहतर हो जाएं। हम थोड़ा-बहुत हमारे इस लक्ष्य से काम करते भी हैं। मुझे लगता है हम बेहतर हैं और थोड़ा बेहतर करने की कोशिश करते रहते हैं। यदि दुनिया में कोई वर्ग ही नहीं रहे, हमारा समाज वर्गहीन हो जाए तो सांस में सांस आए। मनुष्य और प्रकृति दोनों सांस लेते हुए चैन से जी सकें।
साभार : अनवरत डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

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