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संतुलित समाज के निर्माण में हो सहायक

04:00 AM Jul 08, 2025 IST
संतुलित समाज के निर्माण में हो सहायक
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तर्क दिया जा रहा है कि पुरुष आयोग बनाना समानता के सिद्धांत के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करेगा कि पुरुषों को भी उनके अधिकारों से वंचित न किया जाए। यह एक ऐसी संस्था होगी जो पुरुषों से संबंधित डेटा एकत्र करेगी, उनकी शिकायतों को सुनेगी, और सरकार को उनके कल्याण के लिए सुझाव देगी।

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डॉ. सुधीर कुमार

जब हम लैंगिक समानता की बात करते हैं, तो अक्सर महिलाओं के अधिकारों और उनके सशक्तीकरण पर ज़ोर दिया जाता है, जो कि बिल्कुल सही और आवश्यक भी है। लेकिन, इस चर्चा में एक महत्वपूर्ण पहलू अक्सर छूट जाता है- पुरुषों के अधिकार और उन्हें न्याय दिलाने की आवश्यकता। अब हमारे समाज में पुरुषों के अधिकारों और उनके सामने आने वाली चुनौतियों पर भी खुलकर बात होने लगी है। इसी कड़ी में एक पुरुष आयोग बनाने की मांग जोर पकड़ रही है। पुरुषों का तर्क है कि उनके लिए भी एक ऐसी संस्था होनी चाहिए जो उनकी समस्याओं को सुने और उनका समाधान करे। यह लैंगिक समानता की दिशा में एक कदम है। समाज में लिंग-आधारित रूढ़िवादिता के कारण, पुरुषों को अपनी पीड़ा व्यक्त करने में हिचकिचाहट होती है, जिससे उनकी समस्याएं अक्सर अनसुनी रह जाती हैं।
लंबे समय से, घरेलू हिंसा और प्रेम संबंधों में होने वाली क्रूरता को अक्सर महिलाओं से जोड़कर देखा जाता रहा है, जो कि बिल्कुल सही भी है। महिलाएं इन अपराधों का शिकार होती हैं। लेकिन, सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि पुरुष भी इन अपराधों के शिकार हो रहे हैं। कई ऐसे मामले सामने आए हैं जहां प्रेम संबंधों में अनबन या अन्य कारणों से पतियों को अपनी जान गंवानी पड़ रही है। इन घटनाओं में, पुरुषों को न केवल शारीरिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी उन्हें काफी प्रताड़ना झेलनी पड़ती है, और उनके पास मदद या शिकायत दर्ज कराने के लिए कोई खास मंच नहीं है।
झूठे आरोप भी एक गंभीर समस्या है जिससे पुरुष जूझते हैं। दहेज उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न या अन्य अपराधों के झूठे आरोप पुरुषों के जीवन को पूरी तरह से तबाह कर सकते हैं, भले ही वे बाद में निर्दोष साबित हो जाएं। यह उनके करिअर, सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डालता है। वर्तमान कानूनी ढांचे में, ऐसे मामलों में पुरुषों को खुद को निर्दोष साबित करने के लिए अक्सर लंबा और जटिल संघर्ष करना पड़ता है, और उनके लिए कोई विशेष सहायता प्रणाली नहीं है।
इसके अलावा, दहेज उत्पीड़न या बलात्कार जैसे कानूनों का कई बार दुरुपयोग होता है, जिसके चलते कई निर्दोष पुरुषों को झूठे मामलों में फंसा दिया जाता है। पारिवारिक विवादों, जैसे तलाक या बच्चों की कस्टडी के मामलों में भी, अक्सर पुरुषों को अलग-थलग महसूस कराया जाता है और उनके पक्ष को कई बार उचित महत्व नहीं मिलता। मानसिक स्वास्थ्य भी एक बड़ा मुद्दा है ; समाज का दबाव पुरुषों को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने से रोकता है, जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में उन्हें न्याय पाने और अपनी बेगुनाही साबित करने में भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह उनके करियर, सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डालता है। यही कारण है कि आत्महत्या के मामलों में भी पुरुषों की संख्या अक्सर अधिक पाई जाती है, जो उनके अंदरूनी संघर्षों को दर्शाती है।
ऐसे मामलाें में अक्सर पुरुषों के प्रति समाज की प्रतिक्रिया उतनी संवेदनशील नहीं होती जितनी महिलाओं के प्रति होती है। ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसी धारणाएं और सामाजिक रूढ़िवादिता पुरुषों को अपनी पीड़ा व्यक्त करने से रोकती है। उन्हें डर होता है कि उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, उन्हें डर होता है कि समाज उनका उपहास करेगा या उन्हें कमजोर समझेगा। इसी वजह से कई बार वे अपनी समस्याओं को छिपाते रहते हैं, जो अंततः गंभीर परिणामों का कारण बनता है।
भारत का संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है, चाहे वे पुरुष हों या महिला। अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की बात करता है और अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकता है। हालांकि, अनुच्छेद 15 (3) राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की छूट देता है, ताकि समाज में उनकी स्थिति सुधर सके। इसी आधार पर महिला आयोग और महिला सुरक्षा से जुड़े कई कानून बनाए गए हैं।
लेकिन क्या वास्तव में एक अलग पुरुष आयोग की आवश्यकता है? कुछ लोगों का मानना है कि मौजूदा कानूनी ढांचे में ही पुरुषों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है, और लिंग-विशिष्ट आयोग बनाने से समाज में और अधिक विभाजन पैदा हो सकता है। हालांकि, यह भी सच है कि पुरुषों की कुछ समस्याएं ऐसी हैं जिन पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। नि:संदेह, यदि एक पुरुष आयोग बनता है, तो यह केवल पुरुषों के लिए ही नहीं, बल्कि एक संतुलित समाज के निर्माण में भी सहायक हो सकता है। यह आयोग पुरुषों को जागरूक कर सकता है कि वे अपनी समस्याओं को कैसे उठाएं और समाज में सकारात्मक भूमिका निभाएं। यह लैंगिक समानता में सहायक होगा।
उनका तर्क है कि पुरुष आयोग बनाना समानता के सिद्धांत के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करेगा कि पुरुषों को भी उनके अधिकारों से वंचित न किया जाए। यह एक ऐसी संस्था होगी जो पुरुषों से संबंधित डेटा एकत्र करेगी, उनकी शिकायतों को सुनेगी, और सरकार को उनके कल्याण के लिए सुझाव देगी।
हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जहां कोई भी व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या महिला, न्याय और गरिमा से वंचित न हो। यह समय है जब हम सभी लिंगों के सामने आने वाली जटिलताओं को पहचानें और एक ऐसा कानूनी और सामाजिक ढांचा तैयार करें जो सभी के लिए निष्पक्ष और न्यायपूर्ण हो। पुरुष आयोग की उठती आवाज़ इसी दिशा में एक चिंतन का विषय है, जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

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लेखक कुरुक्षेत्र विवि के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।

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