शहीदों की वीर माता
साल 1897 में भयानक प्लेग से पुणे शहर मृतकों के शोक में डूबा था। लेकिन अंग्रेजों ने जख्मों पर मरहम लगाने के बजाय उन्हें कुरेदना शुरू कर दिया। महामारी से बचाव के बजाय सफाई के नाम पर लोगों को उजाड़ना शुरू कर दिया। जनता त्राहि-त्राहि करने लगी। सबसे ज्यादा अमानवीय व्यवहार अंग्रेज अधिकारी रेण्ड कर रहा था। तब क्रांतिकारी दामोदर चापेकर, बालकृष्ण चापेकर व वासदेव चापेकर ने क्रूरता का दमन क्रूरता से किया। उन्होंने क्रूर अधिकारी मिस्टर रेण्ड व मिस्टर एजर्स्ट को गोली मार दी। आनन-फानन में अंग्रेजों ने मनमाने मुकदमे चलाकर तीनों को फांसी की सजा सुना दी। एक मां की तीनों संतानें फांसी पर चढ़ गईं। स्वामी विवेकानंद की शिष्या निवेदिता मां को सांत्वना देने चापेकर बंधुओं के घर पुणे पहुंची। उनकी धारणा थी कि बुढ़ापे की लाठी तीनों संतानों की फांसी से मां टूट गई होगी। लेकिन जब निवेदिता मां के सामने पहुंची तो वह स्वागत के लिये हाथ जोड़कर खड़ी थी। उनका आत्मबल देखकर सिस्टर निवेदिता की आंखों में आंसू उमड़ आए। मां ने पलटकर कहा कि तुम मोह-माया त्यागकर तपस्विनी बन गई हो, फिर आंखों में मोह के आंसू क्यों? देश के लिये मेरे तीन बेटों के बलिदान पर मुझे गर्व है। दुख है तो इस बात का कि तीन शहीदों के अलावा मेरी कोई और संतान नहीं है। यह सुनकर सिस्टर निवेदिता मां के चरणों में झुक गई। प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा