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विविधता के ताने-बाने में एकजुट रहने का वक्त

04:00 AM Dec 27, 2024 IST

सर संघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में पुणे में संबोधन के दौरान संदेश दिया कि राष्ट्र की एकता और समाज में समरसता बनाये रखें व अतीत की घटनाओं का शिकार होने से बचें। भारत को मिसाल कायम करनी है कि अलग-अलग धर्मों के लोग मिल-जुल कर रह सकते हैं। मौजूदा समय में ये शब्द भरोसा दिलाने वाले हैं जबकि पुराने मुद्दे खोजकर सामने लाने की होड़-सी मची हुई है।

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विश्वनाथ सचदेव

‘अतीत के बोझ तले दब कर तीव्र घृणा, ईर्ष्या, शत्रुता, संदेह का शिकार हो जाना स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। आये दिन इस तरह के मुद्दे उठाना भी गलत है।’ ये शब्द राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत के हैं, जो उन्होंने हाल ही में पुणे में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कहे। संदर्भ भारत के विश्व गुरु होने के दावे का था और बात संभल, अजमेर, कन्नोज आदि शहरों में चल रहे अभियानों की थी। यह पहली बार नहीं है जब भागवत जी ने राष्ट्र की एकता और समाज में समरसता का संदेश देते हुए अतीत की घटनाओं का शिकार होने से बचने का संदेश दिया। पिछले दो-तीन साल में वे अलग-अलग मौकों पर इस आशय की बात कह चुके हैं। पुणे का उनका भाषण इस संदेश की नवीनतम कड़ी है। अवसर ‘हिंदू सेवा महोत्सव’ नाम से आयोजित कार्यक्रम का था। इस भाषण के दौरान उन्होंने इस बात को दुहराना ज़रूरी समझा कि ‘मंदिर-मस्जिद के रोज़ नये विवाद निकाल कर कोई नेता बनना चाहता है तो ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें दुनिया को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं’।
सर संघचालक ने अपने इस भाषण में यह भी कहा कि अपनी ही बात को सही मानने की ज़िद भी उचित नहीं है। हमारी वजह से दूसरों को तकलीफ न हो, हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा। फिर, रामकृष्ण मिशन में क्रिसमस के अवसर पर बड़ा दिन मनाने का उल्लेख करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि ‘हम यह इसलिए कर सकते हैं क्योंकि हम हिंदू हैं’।
भागवत जी के ये शब्द भरोसा दिलाने वाले हैं। आज की स्थिति में जबकि पुराने मुद्दे खोजकर सामने लाने की होड़-सी मची हुई है, इस तरह की बातें आश्वस्त करती हैं कि अभी सबकुछ हाथ से फिसला नहीं है। अभी सबकुछ बचाया जा सकता है। आवश्यकता यह कार्य ईमानदारी से करने की है। भागवत जिस पद पर हैं, और जिस आदर और श्रद्धा के साथ समाज का एक बड़ा तबका उनकी बात को सुनता है, उसे देखते हुए ऐसा लगना स्वाभाविक है कि उनकी बातों पर गौर किया जायेगा। समरसता के उनके संदेश को समझने का, उसके अनुरूप आचरण करने का ईमानदार प्रयास किया जायेगा। लेकिन, सनातन की दुहाई देकर जिस तरह का वातावरण कुछ ताकतें बना रही हैं, उससे संदेह होता है कि सर संघचालक जैसे व्यक्तित्व की बात उनके साथी और अनुयायी समझना चाहते भी हैं अथवा नहीं।
एक ओर तो भागवत समरसता का संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं, और दूसरी ओर कुछ व्यक्ति एक संप्रदाय विशेष के बहिष्कार की बात कह कर भारतीय समाज में कटुता फैलाने में लगे हैं।
यह माहौल कई-कई रूपों में सामने आ रहा है। पहले एक समुदाय के धर्मस्थल के नीचे मंदिर खोजे जा रहे थे, अब जीर्णोद्धार करने के नाम पर पुराने मंदिरों को सामने लाने की मुहिम चलायी जा रही है। हर सम्भव कोशिश हो रही है यह बताने की कि एक संप्रदाय के लोग हमारी आस्था-श्रद्धा के साथ खिलवाड़ करते रहे। लगभग 34 साल पहले हमने सांप्रदायिकता की आग को फैलने से रोकने के लिए एक कानून बनाया था– 15 अगस्त, 1947 को देश के पूजास्थलों की जो स्थिति थी उसे वैसा ही रखने का कानून। अयोध्या के राम मंदिर के प्रकरण को इससे मुक्त रखा गया था, क्योंकि वह मामला अदालत में चल रहा था। अब अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बन चुका है। उम्मीद की जा रही थी कि इसके साथ ही एक संप्रदाय के धर्मस्थलाें के नीचे मंदिर खोजने की कवायद भी समाप्त हो जायेगी। पर ऐसा होता दिख नहीं रहा।
सवाल पूछा जाना चाहिए कि मंदिर की खोज के लिए की जाने वाली खुदाई कहां तक होगी? कहां जाकर रुकेगा यह क्रम?– ‘मंदिर-मस्जिद तो बाद के हैं/ हम उससे पहले भी तो थे/ हम उससे पहले जो भी थे/ उस सच को ज़िंदा रखना है!’
आज आवश्यकता उस साझे सच को याद करने की है। आरएसएस के मुखिया भागवत जी ने प्राचीन मंदिरों की खोज को रोकने की बात कह कर यही कहना चाहा है कि पीछे लौटने का यह क्रम अंतत: हमें आदि मानव की गुफा तक पहुंचा देगा। इसका मतलब आदि मानव हो जाना नहीं होगा– इसका मतलब मनुष्यता खो देना होगा। जंगल, गुफा, पत्थर, आग... मनुष्यता के प्रारम्भ के बीज को फिर से बोना होगा। क्या यह स्वीकार है हमें? दांव पर हमारी मनुष्यता लगी है। सवाल अपने भीतर की मनुष्यता को बचाये रखने का है।
पर जो कुछ होता दिख रहा है, वह बहुत आश्वस्त नहीं करता। सच कहें तो परेशान करने वाला है। मोहन भागवत ने कहा है कि भारत को एक उदाहरण प्रस्तुत करना है इस बात का कि अलग-अलग धर्मों के लोग मिल-जुलकर रह सकते हैं, जी सकते हैं।
यह लेखक भागवत जी की इस बात से भी सहमत है कि देश में कोई अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक नहीं है। हम सब एक हैं। इस देश में हर एक को अपने तरीके से पूजा-अर्चना करने का अवसर मिलना चाहिए। वस्तुत: यह अवसर नहीं, अधिकार हैं जो हमारे संविधान ने हमें दिया है। नागरिक के इस सांविधानिक अधिकार की रक्षा होनी ही चाहिए।
कुछ लोगों को भागवत के कहने पर विश्वास नहीं हो रहा। कुछ कह रहे हैं भागवत जो कह रहे हैं वह उनके मन की बात नहीं है। जो ऐसा सोचते हैं, उन्हें हक है इसका। लेकिन किसी को इस बात का हक नहीं है कि वह इस देश के किसी नागरिक की आस्था और श्रद्धा को अपमानित-लांछित करे। ऐसे भी लोग हैं जो यह कहते हैं कि धर्म-निरपेक्षता शब्द को संविधान के आमुख में बाद में ‘घुसेड़ा’ गया। यह सही है कि जब संविधान बना तो आमुख में यह शब्द नहीं था। पर इसके पीछे का सच भी समझना होगा। संविधान सभा के सदस्य केटी शाह ने तीन बार धर्म निरपेक्ष (सेक्यूलर) शब्द को संविधान में जोड़ने का प्रस्ताव रखा था, पर तब यह माना गया कि हमारे संविधान की समूची भावना ही धर्मनिरपेक्षता को प्रकट करती है। बाद में 1976 में एक संशोधन द्वारा इस शब्द को आमुख में जोड़कर स्थिति को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया गया, ताकि कोई संदेह न रहे।
अब फिर तरह-तरह के संदेह खड़े किये जा रहे हैं। बंटने-कटने की बातें की जा रही हैं। एक रहने की दुहाई दी जा रही है। आखिर किसके एक रहने की बात की जा रही है। सब भारतीयों को एक रहना है। सवाल हर भारतीय के ‘सेफ’ रहने का है। हर नागरिक की सुरक्षा की गारंटी होनी चाहिए, तभी हम यह कह सकेंगे कि विविधता हमारी ताकत है। और यह गारंटी हम में से हर एक को देनी है– दूसरे की सुरक्षा करके ही हम अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं। इस ‘हम’ में हर भारतीय शामिल है। एक को भी पंक्ति से हटाने का मतलब ‘भारतीयता’ को अपमानित करना है।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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