विभाजित परिदृश्य में भारत की संयमपूर्ण नीति
ऐसे वक्त जब दुनिया के देशों में प्रभुत्व की होड़ मची है, भारत आजादी के बाद के सफर में अपनी रीति-नीति पर कायम है। जब वैश्विक संस्थाएं बिखर रही हैं - डब्ल्यूटीओ कमज़ोर पड़ा है, संयुक्त राष्ट्र मौन है, भारत संयम अपनाए हुए है। ऑपरेशन सिंदूर का भी संदेश है कि भारत चीन-पाक के तनाव बढ़ाने के खेल में नहीं फंसेगा, लेकिन पीछे भी नहीं हटेगा।
ले.जन. एस.एस. मेहता (अ.प्रा.)
बढ़ते तनावों और पीछे हटती सच्चाइयों के युग में, भारत अपने शांत विमर्श के साथ, अपनी आज़ादी के 80 वर्ष पूरे करने जा रहा है। हमारी यात्रा एक ऐसा वृत्तांत रही है, जिसे फिर से बताने की ज़रूरत है - भले ही अपनी सौवीं वर्षगांठ की परिकल्पना, शक्ति का विस्तार करने में नहीं, बल्कि अपने उद्देश्यों को और गहराई देने में है।
जहां अन्य राष्ट्रों में प्रभुत्व बनाने के लिए होड़ मची है, भारत अपनी राह पर कायम है- विचारधारा में धंसा हुआ नहीं, बल्कि सभ्यतागत नैतिकता की गहरी जड़ों से जुड़ा, जिसे हम ‘युमैनशिप’ अर्थात धर्मनीति के नाम से जानते हैं- सतत राष्ट्रीय आचार संहिता, स्मृति द्वारा आकार पाई, समदृष्टि सहित और मूलत: संयम वाली। यह कोई जुमला नहीं; हमारा वह व्यवहार है, जिसे हम तब भी कायम रखते हैं जब कोई न देख रहा हो और कैसे हम सबके सामने होने के बावजूद खुद को रोक लेते हैं। यह नैतिकता हमने अपने सबसे प्राचीन शब्दकोष से पाई है।
दुनिया युद्ध और इसकी चेतावनियों के बीच डगमगा रही है। गाजा खून में सना है; यूक्रेन बिखरने की कगार पर है; ईरान और इस्राइल अपने संयम की सीमाएं नाप रहे हैं। व्यापार बल-प्रयोग का औजार बन गया है। जलवायु परिवर्तन के खतरे को हथियार बनाया जा रहा है। तकनीक उपकरण और ख़तरा, दोनों बन गई है। परमाणु संयम, लापरवाही भरी बयानबाज़ी में बदल गया है। संयुक्त राष्ट्र पंगु हुआ पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा समिति के स्थाई सदस्य देश तभी कार्रवाई करते हैं, जब उनके हित आपस में मिलें। संतुलन का भरोसा देने वाले तंत्र को साजिशन मामलों से अलग रखा जा रहा है।
1948 से 2025 तक, हमारे विकल्प सतत कहानी बताते हैं। हम लाहौर की दहलीज़ पर जाकर थम गए, जीता हुआ हाजी पीर इलाका लौटा दिया, और पाकिस्तानी सेना को दूर तक खदेड़ने के बावजूद मुज़फ़्फ़राबाद पर कब्ज़ा नहीं किया। सीमा पार किए बिना कारगिल पर फिर से कब्ज़ा कर लिया। हमने ढाका को आज़ाद करवाया और बाद में उन 90,000 पाकिस्तानी युद्धबंदियों को स्वदेश भेजा, जिनके साथ जिनेवा संधि के तहत उदारतापूर्ण व्यवहार किया गया। मदद की पुकार पर हम मालदीव और श्रीलंका गए। परमाणु मामलों में, कगार की नौबत बनाए बिना नो फर्स्ट यूज़ सिद्धांत का पालन करते आए हैं। हर मामले में, भारत के पास आगे बढ़ने की पूरी कूवत थी, लेकिन समदृष्टि को न तजने का उसका इरादा ज़्यादा मज़बूत रहा। जहां दूसरे बीच रास्ते में पीछे हट गए,वहीं भारत स्पष्टता और दृढ़ विश्वास के साथ अंत तक गया।
1962 में, हिंदी-चीनी भाई-भाई का दोस्ताना उस वक्त जोर-ज़बरदस्ती में बदल गया जब चीन, जो खुद प्राचीन सभ्यता है और जिसके साथ हम शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व चाहते थे, उसने वार्ता की बजाय धोखा चुना। युद्ध त्वरित रहा। जब धूल छंटी, तो एक सवाल ज़रूर उठा : चीन ने अपनी शिष्टता तज क्या पाया और सह-अस्तित्व की नैतिकता त्यागकर क्या खोया? भरोसा टूट गया।
लॉर्ड कर्जन ने 1907 में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में 'फ्रंटियर्स' नामक सालाना व्याख्यान में कहा था : ‘सहमति वाली स्पष्ट सीमारेखा की बजाय असहमति वाली सीमाओं से ज़्यादा हासिल किया जा सकता है’। एक सदी बाद, लगता है कि चीन ने वह सिद्धांत आत्मसात कर लिया। आज, भारत के संयम की परीक्षा और दिखाए गए दृढ़ संकल्प के प्रदर्शन के साथ, चीन को खुद सामने आते नहीं पा रहे, बल्कि वह खेल कर रहा है - खुद पीछे रहकर किसी और से जोर-ज़बरदस्ती करवाने वाले की भूमिका में। इस नाटक का पर्दाफाश करने में ऑपरेशन सिंदूर पहला उदाहरण रहा। यह चीन और उसका मुखौटा बने पाकिस्तान के लिए एक संदेश भी था : जहां भारत तनाव को विस्तार देने के उनके खेल में नहीं फंसने वाला है वहीं पीछे भी नहीं हटेगा। हाथी सब याद रखता है। और याददाश्त की बदौलत, वह उकसावे से नहीं, संतुलन के के साथ नपी-तुली कार्रवाई करता है।
भारत का उदय, अपने हित कायम रखने की एवज में सहयोगियों की बलि देने वाली पामर्स्टन नीति पर चलकर नहीं हुआ है। इसने रिश्तों में दबाव बनाने की बजाय इनको सतत बनाए रखने को तरजीह दी। ऐसे युग में जब पूर्व-निवारण उपाय करना तमाशा बन चुका है और गठजोड़ लेन-देन आधारित बन गए हैं, भारत फिर भी संतुलन बनाए रखने का पक्षधर है - इसलिए नहीं कि यह आसान है, बल्कि इसलिए कि यह सही है।
हमारा वैश्विक रुख इसी नैतिकता को दर्शाता है। हम निर्भरता बनाने की बजाय बहुआयामी रिश्ते बनाने में लगे हैं। हम व्यापार, तकनीक और पर्यावरणीय प्रबंधन में सुधारों के पक्षधर हैं – ताकत पाने के लिए नहीं, बल्कि निष्पक्षता के लिए। हम युद्ध की तैयारी करते हुए भी शांति बनाए रखना चाहते हैं। भारत खुद को एक ध्रुव होने का दावा नहीं करता। यह तो कुछ दुर्लभ प्रस्तुत करता है : एक आलंब, कोई स्थिति नहीं,बल्कि एक सिद्धांत।
जहां जाकर दुनिया झुक जाती है, भारत स्थिर रहता है। यूक्रेन और ईरान में, हमने तनाव कम करने का आह्वान किया - सोची-समझी तटस्थता के कारण। महाशक्तियां ध्रुवीकरण करना चाहती हैं।
ऐसे में जब वैश्विक संस्थाएं बिखर रही हैं - विश्व व्यापार संगठन कमज़ोर पड़ा है, संयुक्त राष्ट्र मौन है, जलवायु समझौते पर खेल चला हुआ है - भारत ने संयम कायम रखा है। यह अशांति को और बढ़ावा देने की बजाय उसे सहन कर लेता है। इसकी महत्त्वाकांक्षा: विजय नहीं, विवेक कायम रखना है। भारत केवल अतीत की प्रतिध्वनि नहीं करता, भविष्य की पटकथा भी लिखता है। भविष्य में इसे ग्लोबल साउथ के लिए आधारभूत भूमिका निभानी होगी। यदि जी-7 संगठन दुनिया की सबसे तगड़ी ताकत का प्रतीक है, तो जी-20 को चाहिए वह विवेक का प्रतिबिंब बने। भारत इसका स्वाभाविक केंद्रबिंदु है।
जैसे-जैसे दुनिया 2047 की ओर बढ़ रही है, उसे और भव्य जनाजों की नहीं, बल्कि एक नैतिक धुरी की; विवेक की आवश्यकता है। न तो मुनीर की तरह विभाजनकारी तत्त्वों को हवा देकर मौत का तांडव मचवाने की, न ही फलस्तीनी विस्थापन सिद्धांत की; कॉमेडी को यूरोप की त्रासदी मेंबदल देने की भी नहीं, तो ज़ारवादी दुःस्वप्न से चिपके किसी देश की नहीं; और न ही चीन द्वारा हिमालय में खिंची कर्जन रेखा लांघ भारत की भूमि हड़पने वाली कुटिल चालों की, और ट्रम्प की हरकतों की तो बिल्कुल नहीं –जो लोकतंत्रों को छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं, संस्थाओं से खेल रहे हैं और तमाम मंचों पर अपने मोहरों को शह देकर स्थापित कर रहे हैं। भारत ने भी उसके उकसावे का सामना किया - लेकिन न तो उनके बदले की भावना के आगे, न ही नित बदलने वाले रवैये के समक्ष। भारत अपनी राह पर कायम रहा।
वैश्विक स्मृति परिदृश्य में, एक सभ्यता अपनी विरासत को संजोए रखती है और दूसरी सभ्यता उसे भूल जाने का नाटक करती है। भारत हाथी की तरह, लंबी याददाश्त रखता है - विश्वासघात और सहनशीलता की, गठबंधन का सम्मान रखने की और रेखाएं न लांघने की। जबकि, चीन ने ड्रैगन की तरह, स्मृतिलोप को चुन रखा है - वह उन सीमाओं को परख रहा है जिनका सम्मान किया जाता था, उस समझ को फिर लिख रहा है, जो कभी साझा थी।
भारत के शांतचित्त आत्मविश्वास के केंद्र में उसका युवा है : हाथ कठोर, दिमाग से फुर्तीला, नवाचार के लिए मानसिक रूप से तैयार और नैतिकता की जड़ों से जुड़ा। वे बस यही चाहते हैं कि उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल हो। भारत की आकांक्षा ध्रुव बनने की नहीं है। उसने तो आलंब बनना चुना है - वह अदृश्य संतुलन जो बिखरती दुनिया को स्थिर रख सके। और यह हमारे राष्ट्रगान से ज़्यादा स्पष्ट कहीं और नहीं दिखता।‘जन-गण-मन...’ सर्वोच्चता का गान नहीं है; बंधुत्व का घोष है।
संयम एक उपाय है। वह विश्व व्यवस्था, जो संयम को मान्यता नहीं देती, जल्द ही पुनः उबरने की क्षमता खो देगी। अपनी 80वीं वर्षगांठ पर संयुक्त राष्ट्र विचार करे और पूछे: हमने क्या अनदेखा किया? और इसकी कीमत किसने चुकाई? माहौल की पुकार वैश्विक आत्मचिंतन की है।
लेखक सेना की पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर और पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक ट्रस्टी हैं।