वक्त की आवाज़
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अमरावती में दिए वक्तव्य में धर्म के नाम पर पैदा की जा रही गलतफहमियां दूर करने की बात कही। उन्होंने कहा कि राममंदिर बनना तो ठीक है लेकिन इस तरह के नये-नये मंदिर विवाद खड़ा करना देश की सामाजिक समरसता के लिये ठीक नहीं है। उन्होंने स्वीकारा कि विविधता हमारा वर्तमान तो है लेकिन ये हमारे अतीत का हिस्सा भी रहा है। देश में विभिन्न धर्म-संस्कृति के लोग आते रहे हैं। प्रारंभिक मतभेद और कटुता को दूर करके भारतीय संस्कृति का हिस्सा बनते रहे हैं। जिससे विविधता के बीच एकता के सूत्र विकसित होते रहे हैं। यही वजह है कि बाद में कानून के जरिये तय हुआ कि आजादी के वक्त पूजा स्थल का जैसा स्वरूप रहा, उसे यथास्थिति में बनाये रखा जाये। निश्चित रूप से ऐसे विवादों को हवा देने से सामाजिक समरसता पर आंच आएगी व देश का विकास बाधित होगा। इसके बाद जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य व कतिपय अन्य धर्मगुरुओं ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने बयान को भागवत की निजी राय बताया। निश्चित रूप से भागवत का बयान समय की आवाज है और बकौल भागवत धर्म की सतही समझ से सांप्रदायिक कट्टरता को बढ़ावा मिलता है। लेकिन यह बात विचारणीय है कि भागवत के बयान के विरोध में तो आवाजें उठी, लेकिन संघ प्रमुख के बयान के समर्थन में संघ के आनुषंगिक संगठनों व भाजपा नेताओं की तरफ से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई। जबकि प्रधानमंत्री व गृहमंत्री अमित शाह के ऐसे बयानों के समर्थन में पार्टी नेताओं में बयानबाजी की होड़ पैदा हो जाती है। समय की मांग है कि संघ प्रमुख के बयान में निहित संदेश को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि संघ की स्थापना के मूल में हिंदुत्व की विचारधारा रही है। यही इस संगठन का आधार भी रहा है। ऐसे में जब संगठन की तरफ से प्रगतिशील विचार सामने आता है तो उसे सुना जाना चाहिए। उसका स्वागत किया जाना चाहिए।
निस्संदेह, धर्म एक जटिल मुद्दा है और इसके वास्तविक स्वरूप को समझे जाने में चूक होने की आशंका बनी रहती है। जिसके चलते सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलने की आशंका बलवती होती है। वहीं सवाल उठता है कि क्या भागवत के बयान वाला दृष्टिकोण संगठन में उदारवादी व सख्त नीति के बीच विभाजित हो रहा है? यही वजह है कि संघ व भाजपा नेताओं की तरफ से इस बयान को सकारात्मक प्रतिसाद नहीं मिला है। इस बयान को बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के बाद वहां कट्टरपंथियों के वर्चस्व के रूप में देखा जा सकता है। भागवत की चिंताओं को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। पूरी दुनिया में इस्लामिक कट्टरता के चलते संप्रदाय को अतिवाद के पोषक के रूप में देखा जाता रहा है। जिसके चलते इसकी छवि धूमिल हुई है। ऐसे ही यदि बहुसांस्कृतिक देश में कट्टरवाद को प्रश्रय दिया जाता है तो वैश्विक संदर्भ में देश की छवि पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। धर्म विशेष के नाम पर दुनिया में आतंकवाद की जो मुहिम चली है, उससे धर्म को हिंसा के पर्याय के रूप में देखा जाने लगा है। जिसको लेकर धारणा बनी है कि इससे धर्म की गलत व्याख्या की जा रही है। निश्चित रूप से ऐसे ध्रुवीकरण के प्रयासों से देश में विकास का एजेंडा हाशिये पर चला जाएगा। इसे उत्तर प्रदेश के उदाहरण के तौर पर देखा जाना चाहिए जहां नित नये विवादों को तूल देने के कारण सांप्रदायिक तनाव में वृद्धि देखी गई। उदाहरण के तौर पर संभल में हुई घटना को देखा जा सकता है, जहां हिंसा में चार लोगों की जान चली गई थी। ऐसे कृत्यों से भारत के विश्वगुरु बनने के दावे तथा वसुधैव कुटुंबकम की सनातन परंपरा पर आंच आती है। जिसके लिए जरूरी है कि हमें अपनी बात को ऊंचा रखकर दूसरे विचार की अनदेखी की जिद से बचना होगा। हम अपनी आस्था का ख्याल तो रखें लेकिन साथ ही दूसरे पक्ष के विचार का भी सम्मान करें। ऐसे में देश के कर्णधारों को चाहिए कि वे सत्ता पर काबिज रहने के लिये धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति से बचें।