लोकतंत्र की आत्मा है अभिव्यक्ति की आजादी
हमारा लोकतंत्र इतना कमज़ोर नहीं हो गया है कि किसी कविता या कॉमेडी से समाज में आपसी शत्रुता अथवा घृणा फैले। यह कहना कि किसी कला या कामेडी या व्यंग्य से नफरत फैल सकती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को नकारने जैसा होगा। न्यायालय के इस कथन को समझने और याद रखने की आवश्यकता है।
एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा चर्चा में है और इसे एक विडंबना ही कहा जायेगा कि इस बार यह मुद्दा एक कॉमेडियन की प्रस्तुति को लेकर उठा है। मैं बात कुणाल कामरा के उस कार्यक्रम की कर रहा हूं जिसमें उन्होंने बिना नाम लिए महाराष्ट्र के एक राजनेता को ‘गद्दार’ कहा था। यह पहली बार नहीं है जब उक्त नेता को किसी ने इस विशेषण से जोड़ा है। उक्त नेताजी के पुराने साथी, जिन्हें त्याग कर उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनायी थी, अक्सर उनकी निष्ठा पर सवाल उठाते रहे हैं। पर नेताजी के अनुयायियों ने अब अपनी जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है—उसे पहले नहीं देखा गया था।
जहां तक कॉमेडियन की बात है, मुझे आपत्ति किसी को गद्दार कहने से नहीं है। कोई भी ‘मेरी नजर से देखो’ का वास्ता देकर किसी पर इस तरह का आरोप लगा सकता है, पर मुझे उन गालियों से आपत्ति है जो कॉमेडियन अपने कार्यक्रम में काम में लेते हैं। यह भाषा किसी सभ्य समाज की नहीं होनी चाहिए। और मैं यह भी कहना चाहता हूं कि व्यंग्य सार्थक भी तभी होता है जब, जिसपर व्यंग्य किया गया है, वह तिल मिलाकर रह जाये, और अपने आप को कुछ करने की स्थिति में भी नहीं पाये! बहरहाल, इस सबके बावजूद मैं कॉमेडियन के अपनी बात कहने के अधिकार का समर्थन करूंगा।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें हमारे संविधान ने दिया है। यहीं इस बात को भी रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि यह अधिकार असीमित नहीं है। हमारा संविधान इस अधिकार पर ‘उचित प्रतिबंध’ की बात भी करता है। जहां एक ओर इस अधिकार का उपयोग करने वाले से विवेकशील होने की अपेक्षा की जाती है। वहीं सरकार को भी यह अधिकार दिया गया है कि वह राष्ट्रीय हितों को देखते हुए उचित प्रबंध लगाये। हां, यह बात भी सही है कि अक्सर सरकारें अपने इस अधिकार का ग़लत उपयोग करने लगती हैं। अक्सर हम यह भी देखते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरों की दुहाई देकर जनतंत्र के इस महत्वपूर्ण हथियार को भोथरा करने की कोशिशें होती हैं। पचास साल पहले जब देश में आपातकाल घोषित किया गया था तो तब की सरकार ने ऐसी ही एक कोशिश की थी।
यहीं यह बताना भी ज़रूरी है कि तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस बात को स्वीकारा भी था कि सेंसरशिप के कारण उन तक सही और पूरी जानकारी नहीं पहुंच पायी थी और वे उचित कदम नहीं उठा पायीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के इस पहलू को भी ध्यान में रखा जाना ज़रूरी है। जनतांत्रिक व्यवस्था में जहां यह अधिकार जनता को एक हथियार देता है वहीं संबंधित सरकार को भी अपना कर्तव्य निभाने में सहायता कर सकता है। इस अधिकार का अभाव या हनन, दोनों, जनतंत्र को कमज़ोर बनाते हैं।
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अमेरिकी पत्रकार को दिये गये इंटरव्यू में आलोचना को ‘जनतंत्र की आत्मा’ कहा था। तब उन्होंने यह भी कहा था कि ‘आज के ज़माने में सही और तीखी आलोचना दिखाई नहीं देती।’ इसी इंटरव्यू में उन्होंने भारत में आलोचना की शानदार परंपरा का भी उल्लेख किया था। ‘निंदक नियरे राखिए’ वाले कबीर को भी याद किया था। अपने इस इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने आलोचना और आरोप में अंतर समझाने की भी कोशिश की थी। यह बात दिलासा देने वाली है। पर अपने एक दशक से अधिक के कार्यकाल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस न करके हमारे प्रधानमंत्री जी ने आलोचना के द्वार को ही जैसे बंद कर रखा है।
पत्रकारों, रचनाकारों के प्रति एक आदरभाव की अपेक्षा करती है जनतांत्रिक व्यवस्था। यदि रचनाकार, पत्रकार, व्यंग्यकार आलोचना करते हैं तो व्यवस्था का दायित्व बनता है कि वह इसे सकारात्मक दृष्टि से समझे-स्वीकारे। यहां, स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को याद किया जाना चाहिए। जब उन्हें यह लगा कि उनकी समुचित और सार्थक आलोचना नहीं हो रही तो उन्होंने छ्द्म नाम से स्वयं अपनी आलोचना करके जनतांत्रिक तौर-तरीकों का जैसे रास्ता दिखाया था। यही नहीं, उस जमाने के जाने-माने वरिष्ठ कार्टूनिस्ट शंकर को एक सार्वजनिक समारोह में उन्होंने कहा था, ‘शंकर, मुझे भी मत बख्शना।’ नेहरू का यह दृष्टिकोण और कथन जनतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं के सम्मान का एक उदाहरण है।
इतिहास साक्षी है कि कार्टूनिस्ट शंकर ने, और उसके बाद आर.के. लक्ष्मण ने अपनी कृतियों में सकारात्मक आलोचना के ढेरों उदाहरण प्रस्तुत किये थे। एक और कार्टूनिस्ट थे ‘काक’। उनके कार्टून भी सत्ता की तीखी आलोचना करने वाले हुआ करते थे। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। यहां व्यंग्यकार शरद जोशी को याद करना भी ज़रूरी है। शासन को सही राह पर लाने की एक सार्थक कोशिश हुआ करता था उनका लेखन। उनके व्यंग्य हंसाते भी थे, और तिलमिलाते भी थे। यहीं यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि इन और ऐसे आलोचकों को उचित प्रतिसाद देना शासन और समाज दोनों का कर्तव्य है।
जनतांत्रिक व्यवस्था मात्र शासन-व्यवस्था नहीं है, यह एक जीवन-पद्धति है। इस व्यवस्था में सरकार और समाज दोनों का कर्तव्य बनता है कि वे कर्तव्यनिष्ठा और जागरूकता का निरंतर उदाहरण प्रस्तुत करें। इसी प्रक्रिया का हिस्सा आलोचना को सम्मान देना है। इसी सम्मान का प्रतीक है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार।
यहां दोहराने की कीमत पर भी यह कहना ज़रूरी है कि हमारे संविधान की धारा 19 (क) और 19(ख) दोनों मिलकर जनतांत्रिक प्रणाली को एक सार्थकता प्रदान करती हैं। पहली धारा जनता को यह अधिकार देती है कि वह शासन की नकेल अपने हाथ में रखे और दूसरी धारा उस कर्तव्य की याद दिलाती है जो ‘उचित प्रतिबंध’ के माध्यम से जनता को निभाना होता है। कर्तव्य और अधिकार का यह अनोखा संतुलन हमारे जनतंत्र को एक विशिष्टता देता है। इसी विशिष्टता का तकाज़ा है कि शासन और समाज, दोनों, आलोचना के प्रति जागरूक भी रहें और उसका सम्मान भी करें।
जहां तक कुणाल कामरा के मामले का सवाल है, इसे सिर्फ एक घटना मात्रा मानकर नहीं छोड़ा जा सकता। असहिष्णुता का यह उदाहरण हमें यह भी याद दिलाता है कि यह अपनी तरह का अकेला उदाहरण नहीं है। इससे पहले भी पत्रकारों-कलाकारों-रचनाकारों के प्रति इस तरह का व्यवहार होता रहा है। जनतंत्र की आत्मा का तकाज़ा है कि यह व्यवहार बंद हो।
कुछ ही दिन पहले एक प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने एक टिप्पणी में कहा था कि कलाकार, साहित्यकार का (अभिव्यक्ति की आज़ादी) अधिकार इस आधार पर खत्म नहीं किया जा सकता कि उनकी अभिव्यक्ति कितनी लोकप्रिय है। विचार का मुकाबला विचार से ही होना चाहिए। इसी टिप्पणी में आगे यह भी कहा गया कि हमारा लोकतंत्र इतना कमज़ोर नहीं हो गया है कि किसी कविता या कॉमेडी से समाज में आपसी शत्रुता अथवा घृणा फैले। यह कहना कि किसी कला या कामेडी या व्यंग्य से नफरत फैल सकती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को नकारने जैसा होगा। न्यायालय के इस कथन को समझने और याद रखने की आवश्यकता है। आलोचना शासक को अपने कर्तव्य को निभाने के लिए जागरूक बनाने के लिए होती है। जनतंत्र की इस आत्मा की रक्षा ज़रूरी है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।